Ravish Kumar : रफाल पर ख़बर तो पढ़ी लेकिन क्या हिन्दुस्तान के पाठकों को सूचनाएँ मिलीं… हिन्दुस्तान अख़बार ने रफाल मामले को लेकर पहली ख़बर बनाई है। ख़बर को जगह भी काफी दी है। क्या आप इस पहली ख़बर को पढ़ते हुए विवाद के बारे में ठीक-ठीक जान पाते हैं? मैं चाहता हूं कि आप भी क्लिपिंग को देखें और अपने स्तर पर विश्लेषण करें। ठीक उसी तरह से जैसे आप हम एंकरों के कार्यक्रमों और भावों का विश्लेषण करते हैं। हिन्दी प्रदेश ख़ासकर बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड में पढ़ा जाने वाला यह अख़बार क्या अपनी पहली ख़बर में वो सब जानकारियां देता है जिसके लिए इस ख़बर ने अख़बार में पहला स्थान प्राप्त किया है?
शीर्षक है – राफेल पर नए खुलासे से तकरार। काफी मोटे अक्षरों में लिखा गया है। मगर नया खुलासा क्या है, इसकी कोई जानकारी पहले पन्ने पर प्रमुखता से नहीं मिलती है। पहले पैराग्राफ में सिर्फ एक पंक्ति है कि ‘एक मीडिया रिपोर्ट में दावा किया गया है कि राफेल सौदे पर प्रधानमंत्री कार्यालय ने हस्तक्षेप किया था।’ आगे की ख़बर में बयानों और खंडनों को ही प्राथमिकता दी जाती है। पहले पन्ने पर दो बयान हैं और दो खंडन हैं। उसी से जगह भर दी जाती है। पहले पन्ने के नीचे और आखिरी के हिस्से में बेहद बारीक फोंट से बल्कि सबसे छोटे फोंट में एक छोटा सा हिस्सा है जिसे हाईलाइट किया गया है कि क्या था मामला।
क्या था मामला में अख़बार ने लिखा है कि ‘दावा किया गया है कि 24 नवंबर 20154 को रक्षा मंत्रालय के उपसचिव ने एक नोट भेजा, जिसमें सौदे पर पीएमओ की ओर से बातचीत पर असहमति जताई गई। कहा गया कि पीएमओ के जो अफसर फ्रांस से वार्ता दल में शामिल नहीं हैं, उन्हें फ्रांस सरकार के अफ़सरों से समानांतर चर्चा नहीं करनी चाहिए। हालांकि तत्कालीन रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर ने इस आपत्ति को अनावश्यक बताया था।’
विवाद का मूल कारण यही है। कायदे से नोट की तस्वीर छापनी चाहिए थी और इस बात को मोटे अक्षरों में छापना था ताकि पाठक की नज़र सबसे पहले इसी पर पड़े कि विवाद हुआ क्यों। क्या लिखा था उस नोट में। अख़बार ने अपनी तरफ से कुछ ग़लत नहीं किया लेकिन आप अपनी तरफ से सोचें कि क्या आपको अख़बार पढ़ने से ख़बर का पता चला?
इस ख़बर में हिन्दू अख़बार और एन राम का नाम नहीं है। हिन्दुस्तान ही नहीं कई अख़बारों में इसकी जानकारी नहीं होगी। किसी दूसरे का नाम न देने की अख़बारों की अपनी नीति होती है। वैसे मैं किसी ख़बर को उठाता हूं तो अख़बार और संवाददाता का नाम ज़रूर लिखता हूं।
हिन्दुस्तान के करोड़ों पाठक यह नहीं जान पाते हैं कि एन राम के इस खुलासे ने रफाल विवाद में एक ऐसा मोड़ ला दिया है जिससे पहले से चली आ रही आशंकाएं और मज़बूत होती हैं। हिन्दुस्तान के पाठक यह सब जानते तो अच्छा होता।
विशेष संवाददाता ने खबर की शुरुआत में यानी पहले पैराग्राफ में सिर्फ एक पंक्ति में लिखा है कि राफेल सौदे पर प्रधानमंत्री कार्यालय ने हस्तक्षेप किया था। बाकी सारी ख़बर राहुल और निर्मला सीतारमण के बयान पर लिखी जाती है। दोनों के बयान को अलग से बाक्स में तस्वीरों के साथ जगह मिलती है। निर्मला सीतारमण के बयान का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष था एन राम और हिन्दू पर हमला करना कि आधा पन्ना ही छापा है। पूरा पन्ना छापना चाहिए था। इस बात को पहले पन्ने की पहली ख़बर में जगह नहीं मिली है लेकिन पेज नंबर 15 पर है।
आप पाठकों को बता दूं कि निर्मला सीतारमण ने पूरे पन्ने की बात कर एक तरह से पुष्टि कर दी राम ने जिस नोट को आधार बनाकर ख़बर लिखी है वह नोट सही है। जब पूरा नोट जारी हुआ तो उसमें रक्षा मंत्री का नोट भी दिलचस्प है। रक्षा मंत्री पर्रिकर नहीं लिखते हैं कि आपने ग़लत लिखा है। बल्कि लिखते हैं कि ऐसा प्रतीत होता है कि प्रधानमंत्री कार्यालय इसकी मानिटरिंग कर रहा है। मगर क्या इसे मानिटरिंग करना कहते हैं? नोटिंग की शुरूआत इस बात से होती है कि प्रधानमंत्री कार्यालय स्वतंत्र रूप से मोलभाव कर रहा है और उसकी जानकारी रक्षा मंत्रालय को नहीं है। ऐसा लगता है कि मोनिटरिंग रक्षा मंत्रालय कर रहा है और काम प्रधानमंत्री कार्यालय। प्रधानमंत्री कार्यालय मोनिटरिंग कर रहा था तो भारत के रक्षा सचिव से या भारतीय टीम से क्यों नहीं पूछ रहा था, उसकी जानकारी में क्यों नहीं था? और रक्षा ख़रीद प्रक्रिया के किस प्रावधान के तहत प्रधानमंत्री मोनिटरिंग कर रहा था? अखबार ने इन सवालों को बताना ज़रूरी नहीं समझा है।
सारी महत्वपूर्ण बातें इधर-उधर हैं। कम मात्रा में हैं। बयान और खंडन वाला हिस्सा ज़्यादा मात्रा में है। अच्छा होता अख़बार उस नोट को छाप देता जिसे लेकर विवाद हुआ था। अखबार ने दो दो पन्ने पर काफी जगह दी है इसलिए नोट की तस्वीर छापने का अवसर था। इससे पाठक खुद भी देख पाते कि क्या लिखा है। अख़बार ने अपनी पहली ख़बर में तकरार और खंडन को प्राथमिकता दी है।
जब पूरा नोट सार्वजनिक हो चुका था तब अख़बार को डिटेल में बताना चाहिए था कि 24 नवंबर 2015 की अपनी नोटिंग में रक्षा मंत्रालय के तीन शीर्ष अधिकारियों ने क्या दर्ज किया था। इस पैराग्राफ पर तीन लोगों के दस्तख़त हैं। जिनमें से एक रफाल ख़रीद के लिए बनी कमेटी के अध्यक्ष वायुसेना के उपप्रमुख एयर मार्शल एस बी पी सिन्हा के भी साइन हैं।
उसमें यही लिखा था कि “यह साफ है कि प्रधानमंत्री कार्यालय की तरफ से अपने आप( समानांतर) बातचीत करने से रक्षा मंत्रालय और भारतीय टीम की मोलभाव की क्षमता कमज़ोर हुई है। हमें प्रधानमंत्री कार्यालय को सलाह देनी चाहिए कि कोई भी अफसर जो रक्षा सौदे के लिए बनी भारतीय टीम का हिस्सा नहीं है, वह फ्रांस सरकार के अफसरों से समानंतर बातचीत न चलाए। अगर प्रधानमंत्री कार्यालय को रक्षा मंत्रालय की टीम के प्रयासों के नतीजों पर भरोसा नहीं है तो उसे बातचीत की नई प्रक्रिया और व्यवस्था बना लेनी चाहिए। “
क्या एक पाठक के तौर पर आप इन दोनों बातों को विस्तार से जाने बग़ैर जान सकते हैं कि राहुल गांधी क्यों हमला कर रहे हैं और निर्मला सीतारमण क्यों सफाई दे रही हैं? जब आप मूल को ही ठीक से नहीं जानते हैं तब आप ठीक से नहीं जानते हैं। क्या अख़बार को अपनी तरफ से भी बताने का प्रयास नहीं करना चाहिए था?
तभी मैं कहता हूं कि अख़बार पढ़ने से पढ़ना नहीं आ जाता है। मतलब आपने ख़बर पढ़ी लेकिन सारी उपलब्ध सूचनाएं नहीं पढ़ीं। आपको लगेगा कि आपने ऐसा कुछ पढ़ा है या सुना है या देखा है मगर डिटेल आप नहीं जानते हैं।
एयर मार्शल का खंडन हाईलाइट किया गया है कि कोई समानांतर बातचीत नहीं हुई। मगर इस बातचीत हो रही थी और इससे मोलभाव की क्षमता पर असर पड़ रहा था, उस पर उनके दस्तख़त हैं। न तो सवाल पूछा गया होगा और न उन्होंने जवाब दिया होगा कि उन्होंने फिर साइन क्यों किया?
जी मोहन कुमार का भी खंडन भी बाक्स जैसा प्रमुखता से छपा है कि “यह कहना पूरी तरह ग़लत है कि पीएमओ समानांतर वार्ता कर रहा था।“ फिर जी मोहन कुमार ने उस नोट पर क्यों अपने हाथ से लिखा था “रक्षा मंत्री ध्यान दें और अच्छा है कि प्रधानमंत्री कार्यालय ऐसी बातचीत न करे क्योंकि इससे हमारी मोलभाव करने की स्थिति पर गंभीर असर पड़ता है।” अख़बार ने पाठकों के सामने जवाब में इस अंतर्विरोध को नहीं रखा है।
ज़ाहिर है अख़बार अपने पाठकों को साफ-साफ नहीं बताता है। उसके करोड़ों पाठक इस ख़बर को बारीकि से नहीं जान पाते हैं। अख़बार की अपनी नीति और अपना स्तर हो सकता है लेकिन समीक्षा का अधिकार एक पाठक के पास ही होता है। इसी तरह से आप दूसरे हिन्दी अख़बारों की ख़बरों की समीक्षा करें। इससे पाठक बेहतर होंगे, पत्रकारिता बेहतर होगी।
एनडीटीवी में कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार की एफबी वॉल से.
Shailendra Singh
February 9, 2019 at 3:52 pm
Kya Ravish Kumar har khabar ki vishvasniyata jaanchte hain? Nahin.
Aap bhi sirf vivadit post FB wall se hi uthate hain taaki vivaad ki stithi mein bach sakein.
N Ram aur The Hindu taany taany fiss ho chuke hai aur Ravish Kumar bhi
Ashish Mishra
February 9, 2019 at 8:52 pm
Ravesh भाई अब तो हाल ये है की आप की ही एक साल पहले की बात याद आ रही है कि मीडिया सत्ता की दलाली ही नहीं बल्कि मरी जा रही है गोदी भक्ति में इतना बुरा हाल तो मीडिया का कभी नहीं था