यशवंत सिंह-
एक दौर था जब भाड़े पर गैंग मिला करते थे खूनी क्रांति के लिए। इन गैंग्स का एक ही नियम था। पैसा दो और किसी भी काम के लिए गैंग हायर करो। इन गैंग्स का खुद सत्ता में आने का कोई मन नहीं होता था। ख़ूँख़ार लड़ाकों की टीम भाड़े पर देना ही इनका उद्यम था।
ये सच भी है कि सत्ताओं को अक्सर बंदूक़ की ज़रूरत पड़ती है। सत्ता पाने, सत्ता क़ायम रखने, सत्ता बिगाड़ने का खेल ज़्यादातर बंदूक़ के बल पर होता रहा है। लोकतंत्र के नाम पर दो तीन दल भले ही बिना खून ख़राबे के सत्ता में आते जाते रहें लेकिन जब आप पूँजीवादी व्यवस्था की जगह कोई अन्य व्यवस्था लाना चाहेंगे तो आप पर बंदूक़ें तन जाएँगी। इसलिए लोकतंत्र भी एक क़िस्म की तानाशाही है जो अपने को क़ायम रखने के लिए खेला दर खेला करने को अभिशप्त है ताकि जनता में बदलाव का भ्रम बना रहे और वो भाजपा नहीं तो कांग्रेस, कांग्रेस नहीं तो तीसरा मोर्चा टाइप ओजहीन प्रयोगों में ऊर्जा खपाकर सम्पूर्ण बदलाव का लुत्फ़ मुफ़्त में पाती रहे।
बात तालिबान की चल रही आजकल। अफगानिस्तान टाइप देशों में तालिबान जैसे गैंग बरसों बरस से इस उस नाम से सक्रिय हैं। इन्हें सुधारने बदलने की बजाय इनका इस्तेमाल बड़े लोग करते रहे। वैसे ये सुधरने के भी नहीं क्योंकि ये सुधर जाएँगे तो इनका जनाधार खिसक जाएगा। धर्मों का सत्ता के लिए इस्तेमाल बहुत पुराना चलन है। धर्मों का सत्ता के लिए सुविधानुक़ूल व्याख्या भी उतना ही पुराना चलन है। आम जन को ये सत्ताएँ धर्म की अपने अनुकूल व्याख्या से कंट्रोल करती हैं। इसमें सबसे ज़्यादा पीड़ित उत्पीड़ित होती हैं महिलाएँ।
इस्लाम में महिला के लिए दोयम दर्जे की व्यवस्था है। उसे पुरुष की कठपुतली मात्र बने रहने को कहा गया है। मर्द उदार है तो उसकी स्त्रियाँ थोड़ा बहुत स्पेस हासिल कर लेती हैं वरना उनका जीवन पुरुष के रहमोकरम पर ही निर्भर रहता है। पर पढ़ी लिखी मुस्लिम स्त्री के मन में अपने सपने तो होते ही हैं। वे नहीं चाहतीं कोई उनसे निकाह करे और किसी छोटी मोटी बात पर तलाक़ तलाक़ कर दे।
भारत में ये यूँ ही नहीं हुआ कि ट्रिपल तलाक़ क़ानून लाने के इस एक मुद्दे के लिए मुस्लिम स्त्रियाँ मुस्लिम विरोधी पार्टी की सत्ता के मुखिया के समर्थन में आ गईं। आज की मुस्लिम स्त्रियाँ ऊर्जा और सपने से भरी हुई हैं। ये आधी आबादी एक रोज़ धर्म आधारित राज करने वाले मुस्लिम शासकों के लिए बड़ी चुनौती बनेंगी। तालिबान शासन भी इससे अछूता न बचेगा। इसकी दस्तक उस एक video में दर्ज है जिसमें मुस्लिम महिलाएँ बंदूकधारी तालिबानों के आगे बैनर लेकर प्रोटेस्ट कर रही हैं। अफगानिस्तान की महिला एंकर तालिबान के आने से अपनी जॉब जाने पर मुखर विरोध दर्ज करा रही है।
तालिबान शासन दरअसल इस्लाम धर्म के नाम पर बंदूक़ का ही शासन होगा। एक गैंग जो लड़ता रहा इस उस के लिए, आज खुद सत्ता में है। इन्हें सत्ता शासन का अनुभव नहीं रहा। इनके लिए सत्ता शासन के हथियार अजायबघर की चीजें हैं। इनका असली हथियार बंदूक़ ही है। असली परीक्षा इनकी अब शुरू होगी। इन्हें बंदूक़ साइड में रख आम जन को उन्नत समृद्ध करने के लिए काम करना होगा जो इनके स्वभाव में नहीं है।
ख़तरा इनके बदलने में भी है। इनके भीतर का असंतुष्ट ख़ेमा असली जिहादी खुद को घोषित कर सत्ता पलटने पाने में जुट जाएगा। सत्ता के लिए अपनों का क़त्ल करने की रवायत जितनी इस्लामी शासन में रही है, उतनी और कहीं नहीं दिखती। तुर्की साम्राज्य का इतिहास अपने भाई बाप चाचा को क़त्ल कर आगे का रास्ता निष्कंटक करने की रही है। भारत में भी मुग़लिया साम्राज्य में ये पारिवारिक खूनी क्रांति खूब हुई है। इसलिए अफगानिस्तान में तालिबानी शासन में सर्वाधिक किसी को झेलना पड़ेगा तो वो औरतें ही हैं।
इस पड़ोसी देश में स्थिरता दूर की कौड़ी है। पश्चिमी मुल्कों की नज़र इस देश के खनिज पर है। तालिबान से डील में बहुत कुछ ऐसा अनकहा है जो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को यहाँ झोली भरने के काम आयेगी।
एक लड़ाका गैंग सत्ता में है तो उसे अपने कैडर को बदलने समझाने में बहुत ऊर्जा खपाना होगा। दुनिया तो तैयार बैठी है कि उधर गोली चले और इधर internet बर्बर तालिबान की गाथाओं को ट्रेंड कराने लगे। ऐसे में तालिबान शासकों के लिए असली परीक्षा की घड़ी अब शुरू होती है। वे अपनी जनता को किस क़दर सुरक्षित और संतुष्ट रख पाते हैं, ये देखना होगा।