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वो आदमी मुख्यधारा की पत्रकारिता का ऐसा चेहरा है जिस पर पार्टियों के कार्यकर्ताओं के सिवा सब भरोसा करते हैं

Nitin Thakur : आप रवीश कुमार से क्यों चिढ़ते हैं? वो आदमी जब एलीट के विमर्श को देसी भाषा में आम आदमी के बीच ले जाता है तो अंग्रेज़ीवाले खास तबके को ये बात उसका हक मार लेने जैसी लगती है। वो आदमी जब हर स्वीकार्य अवधारणा (यहां रुक कर सोचिए) पर बात बेसिक्स से शुरू करता है तो कुछ अंधविश्वासों की चूलें खुदबखुद हिलने लगती हैं, उन अंधविश्वासों से फायदा उठानेवालों को ऐसे सवालों से दर्द होना लाज़िमी है। जब ‘हां-हां’ के शोर में एक आवाज़ ‘क्यों’ का सुर उठाती है तो उसे खारिज करने की कोशिश हर समय में की ही जाती है सो की जा रही है। एक वर्ग चाहता है कि उनकी डिबेट फेल हो जाएं लेकिन अफसोस दिन ब दिन उसे देखने-सुननेवालों की तादाद बढ़ रही है तो ये भी कोफ्त की एक वजह है।

<p>Nitin Thakur : आप रवीश कुमार से क्यों चिढ़ते हैं? वो आदमी जब एलीट के विमर्श को देसी भाषा में आम आदमी के बीच ले जाता है तो अंग्रेज़ीवाले खास तबके को ये बात उसका हक मार लेने जैसी लगती है। वो आदमी जब हर स्वीकार्य अवधारणा (यहां रुक कर सोचिए) पर बात बेसिक्स से शुरू करता है तो कुछ अंधविश्वासों की चूलें खुदबखुद हिलने लगती हैं, उन अंधविश्वासों से फायदा उठानेवालों को ऐसे सवालों से दर्द होना लाज़िमी है। जब 'हां-हां' के शोर में एक आवाज़ 'क्यों' का सुर उठाती है तो उसे खारिज करने की कोशिश हर समय में की ही जाती है सो की जा रही है। एक वर्ग चाहता है कि उनकी डिबेट फेल हो जाएं लेकिन अफसोस दिन ब दिन उसे देखने-सुननेवालों की तादाद बढ़ रही है तो ये भी कोफ्त की एक वजह है।</p>

Nitin Thakur : आप रवीश कुमार से क्यों चिढ़ते हैं? वो आदमी जब एलीट के विमर्श को देसी भाषा में आम आदमी के बीच ले जाता है तो अंग्रेज़ीवाले खास तबके को ये बात उसका हक मार लेने जैसी लगती है। वो आदमी जब हर स्वीकार्य अवधारणा (यहां रुक कर सोचिए) पर बात बेसिक्स से शुरू करता है तो कुछ अंधविश्वासों की चूलें खुदबखुद हिलने लगती हैं, उन अंधविश्वासों से फायदा उठानेवालों को ऐसे सवालों से दर्द होना लाज़िमी है। जब ‘हां-हां’ के शोर में एक आवाज़ ‘क्यों’ का सुर उठाती है तो उसे खारिज करने की कोशिश हर समय में की ही जाती है सो की जा रही है। एक वर्ग चाहता है कि उनकी डिबेट फेल हो जाएं लेकिन अफसोस दिन ब दिन उसे देखने-सुननेवालों की तादाद बढ़ रही है तो ये भी कोफ्त की एक वजह है।

वो आदमी मुख्यधारा की पत्रकारिता का ऐसा चेहरा है जिस पर पार्टियों के कार्यकर्ताओं के सिवा सब भरोसा करते हैं, जब सबकी विश्वसनीयता संदिग्ध हो जाएं तो ऐसे में किसी को क्रेडिबिलिटी के पिरामिड पर खड़े देखना खुद ही ईर्ष्या पैदा करता है। दूसरी डिबेट्स में आपके नेताओं के सामने एंकर सवाल रखते हुए छत्तीस समीकरणों से गुज़रता होगा मगर उस आदमी के सवाल हर समीकरण को धता बताकर निकलते हैं, मैं मानता हूं आपकी भावनाएं नेताजी से पूछे गए असहज सवाल के साथ आहत होती ही होगी। आप अगर भक्त वर्ग हैं तब तो उस आदमी से चिढ़ना आपका हक और फर्ज़ दोनों है। जैसे पड़ोसी का बच्चा आपके बच्चे से ज़्यादा नंबर लाता है तो आपकी प्रतिद्वंद्विता कब डाह में बदल जाए खुद भी अहसास नहीं होता तो वैसा ही कुछ इस मामले में भी दिखता है। कल तो इसी डाह की आग में एक किताब वापसी गैंग के चिंटू ने फर्ज़ी स्टिंग चलानेवाले एक बदनाम स्वयंघोषित नॉन सेकुलर एंकर के पक्ष में छाती पीटते-पीटते अपने कपड़े तक उतार दिए।

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वो आदमी जब वोटर की जात पूछ रहा होता है तो टीवी पर आपको भारतीय लोकतंत्र के किले में कच्चे रह गए कंगूरे दिखा रहा होता है मगर आप शर्मिंदगी से भर कर उसे ही जातिवादी ठहराने का खेल खेलते हैं। वैसे रवीश के अलावा भी कई पत्रकार हैं (सिर्फ एंकर ही पत्रकार नहीं होता) जिनसे एक खास रुझान के लोग बहुत खार खाते हैं। इनमें से अधिकतर को अपनी सत्ता छिनते ही मीडिया के लोग पसंद आने लगते हैं। वजह यही कि तब रवीश जैसों के सवाल दूसरे पक्ष के खिलाफ हो रहे होते हैं जो इन्हें खुद के लिए मुफीद पड़ता है। सो, कुढ़नेवाले कुढ़ते रहें.. पत्रकारिता अपनी चाल चलती रहेगी। सवाल उठाने का लोकतंत्र फलता-फूलता रहेगा। फ्री मीडिया ज़िंदाबाद!

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युवा और लोकप्रिय राइटर नितिन ठाकुर के फेसबुक वॉल से.

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