Anurag Vats-
बहुत से मित्र, जो इस लड़के के मित्र थे, अब अफ़सोस जता रहे हैं। उनमें से अनेक ने पढ़ी होगी यह इबारत। यह लड़का उनकी नज़रों के सामने से सरकता जा रहा था। अपने आप में घुल रहा था। सारे संकेत दे रहा था। शायद पुकार भी रहा था किसी को।
सब देखते हैं जनाज़ा। जाते हुए को कोई नहीं देखता, जो लगातार निगाह के सामने घटित होता है। मुँह फेर लेते हैं कुछ। कुछ को अपनी समस्या सबसे बड़ी लगती है। बहुत कम पास जाने और सामने वाले को हौसला देने की सोचते हैं।
पर शायद तब तक जाने वाला कभी वापिस न लौटने वाली गली में दाख़िल हो चुका होता है।
आप स्तब्ध हो सकते हैं। उसे कायर कह सकते हैं। लेकिन यह अनायास जगत-खेल छोड़ जाना सिर्फ़ कायरता होती तो क्या बात थी! इसका कोई जस्टिफिकेशन नहीं।
मैं इस लड़के को एक लम्हा भी नहीं जानता। लेकिन इसकी वॉल पर जाकर आप इसे पढ़िए। कितना रोशनख़याल इंसान अपनी पूरी उठान में अलविदा कह गया है।
अपने आसपास ऐसे लोगों की—हो सके तो—छाँटांक भर फ़िक्र कीजिए, क्या पता वे अपने क़दम वापिस खींच लें!
आकाशदीप शुक्ला की ये तीन जुलाई को पोस्ट पढ़िए-
Akashdeep Shukla-
कितनी ही बार जीवन, जीवन जैसा नहीं लगता. सब कुछ होते हुए भी, कुछ भी नहीं होना महसूस होता है. कई बार बालकनी में बैठे-बैठे घंटों बीत जाते हैं, तो कई बार कहीं एक पल भी नहीं बैठा जाता है. किसी भी दर्द से बुरा होता है बेचैन हो जाना. कुछ समझ ही नहीं आता. ब्लड प्रेशर उछल कूद मचाने लगता है, लगता है जैसे दिल मुंह को आ जाएगा.
इस सब के बीच मैं घर का हर कोना देख आता हूँ. मुट्ठियां भींचता हूँ. पाँव कांप रहे होते हैं. पलकों पर तो जैसे वज़न आ जाता है. आँखें सूखने लगती हैं.
शीशे के आगे जाकर ख़ुद को ऐसे देखता हूँ तो देखा नहीं जाता. मैं झट से घर से बाहर निकल जाता हूँ. लिफ्ट छोड़ सीढ़ियों के रास्ते ही बाहर भागने की कोशिश करता हूँ. जैसे कोई बड़ी इमरजेंसी आ गई हो. कहा जाता है कि आपातकाल में किसी खुली जगह पर पहुँच जाना चाहिए. मैं भागता हूँ, खुली जगह की तरफ़. लेकिन खुली जगह अब बची कहां है?
कई बार कुछ घाव बाहर की तरफ़ से नहीं खुलते, उनके धागे अंदर से टूट जाते हैं. घाव अंदर की तरफ खुल जाते हैं. जिसका शायद कोई इलाज नहीं. एक ऊँची इमारत के सबसे ऊँचे कमरे में रहते हुए मैंने खिड़कियों पर मज़बूत जाल लगवा दिए थे. जो भी कोई देखता तो वो यही कहता कि बीसवीं मंज़िल पर बाहर से आपकी खिड़की से कौन ही आएगा.
मैं जानता हूँ, जिस घर में कोई दरवाज़े से नहीं आता वहां कोई खिड़की से भी क्यों और कैसे आएगा.
काश मैं किसी को बता पाता कि मुझे बाहर से किसी के आ जाने का डर नहीं है, बल्कि मुझे तो इस बात की फ़िक्र है कि किसी रोज़ कोई जुगनू सीढ़ियों का रास्ता नहीं पकड़ पाया और बेचैनी में खिड़की के रास्ते अंदर से बाहर की तरफ़ कूद गया तो क्या होगा? क्या होगा?
यह क्या और क्यों का फेर भी बहुत अजीब है. बेहद अजीब. सड़क के बीचोबीच खड़े होकर मैं अपने दाएं और बाएं से गाड़ियों को आते जाते देख रहा हूँ. रात और बेचैनी दोनों ही बढ़ती जा रही है. भागते मन को कहीं खुली जगह नहीं मिल रही है. टांके अंदर की तरफ़ एक एक कर के टूटते जा रहे हैं.
मूल खबर-
Rakesh Pandey
August 14, 2023 at 6:08 pm
अगले दिन आकाश की यह पोस्ट आई थी।
यह लिखना और कहना बार-बार चिढ़ पैदा करता है जब आप लेखन में उदासी/दुःख/प्रेम/विरह को लिखने वाले के निजी जीवन से जोड़कर सहानुभूति दिखाने लगते हैं. इससे बचें. निजी सवालों से बचें.
लिखने वाला जानता है कि वह क्या लिख रहा है. ज़रूरी नहीं आप सब लिखे को महसूस करने के लिए उसके लिखने वाले की ज़िंदगी को आधार बनाएं.
(प्रेम कविता पढ़कर, आपको कभी प्रेम हुआ है? जैसे सवालों से बचें. या उदासी पर लिखा पढ़कर- ख़ुश रहा करो, जैसी सहानुभूति से बचें.)
ऐसा भूलकर भी किसी लेखक से नहीं पूछें.
यह लेखक की क्षमता है कि वह काल्पनिक को भी यथार्थ की तरह दिखा रहा है. वह अपने पात्रों को, दृश्य को निजी जीवन के आसपास से ही उठाता है, सिर्फ इसलिए कि वह उसकी कल्पनाशीलता है. वह अपने आसपास कहानी ढूंढ़ लेता है और व्यवस्थित ढंग से, रोचक तरीके से आप सभी के सामने रखता है.
थोड़ी स्वतंत्रता लिखने वाले को भी दीजिये. एक लेखक को अपने हर लिखे के नीचे डिस्क्लेमर देना पड़े (कि इस कहानी के पात्र काल्पनिक हैं, या यह मैं नहीं हूं) इससे ज़ियादा दुखद क्या हो सकता है.
हो सकता है वह लेखन निजी हो, लिखने वाला अपनी ही कहानी लिख रहा हो, फिर भी आवंछित सहानुभूति से बचें.
आप पढ़ें, लेखन को प्रेम या स्नेह दें, लेखक को नहीं. लेखक का कोना निजी कोना है, उसे वहीं रहने दें. जबतक आपकी निजी जानपहचान लिखने वाले से नहीं है.
बेहतर पाठक बनें.
आप जिसे लेखक की उदासी समझ रहे हैं, दरअसल वह उसका एकांत है… बस इतना ही कहना है, इतना ही कहना था. यह पोस्ट आई थी
Aamir Kirmani
August 14, 2023 at 6:14 pm
बहुत अफ़सोसनाक ख़बर
आज सुबह जब से यह खबर सुनी है, तब से दिल की कैफियत बड़ी अजीब सी है।
आकाश के पिता दीपू शुक्ला मेरे पड़ोसी ही नहीं, बल्कि दोस्त भी हैं। इस नाते आकाश मेरे भतीजा था लेकिन मैं उसे दोस्त ही मानता था
आत्महत्या किसी भी समस्या का हल नहीं होता
तुम बहुत याद आओगे आकाश
मरने के बाद कोई किसी का नहीं होता, यहां तक की आपका संस्थान भी ! जिसमें अपने जीजान लगा दिया।
सुबह से आज तक देख रहा हूं, एक लाइन की खबर, एक टिकर, एक पट्टी तक नहीं चली आकाश की दुखद मृत्यु की। कितनी बेरहम है दुनिया
Dr.VNPandey
August 14, 2023 at 7:44 pm
दुःखद है…बेहद दुखद…और चिंताजनक भी।
मैं आकाश से कभी परिचित नहीं रहा। मेरे समझ से परे है कि आकाश ने ऐसा निर्णय कियूं लिया..पर एक बात तय है ..कि उन्हें इस बात का भान हो गया था कि अब सारे दरवाज़े बंद हो चुके हैं। कोई कुछ कर नहीं सकता…या कुछ भी हो नहीं सकता। फिलहाल उन्हें विनम्र श्रद्धान्जलि….
लेकिन सभी साथी पाठकों से कहूंगा..की जब हमें ये लगता है कि कुछ नहीं हो सकता, तब ही तो चमत्कार होता है। और, @भड़ास संपादक जी की बात भी सही है…की अपनों के साथ बने रहिये..बातचीत का सिलसिला जारी रखिये। भरोसा रखिये…जब दिन हमेशा नहीं रह सका तो रात की क्या औकात…
Shahnawaz Alam
August 16, 2023 at 10:08 am
आज हर संवेदनशील इंसान एक एक कर ऐसे ही टूटता जा रहा है कही कोई जगह नही बची है इस जहन्नम में जिसे लोग दुनिया कहते हैं
हर कोई दूसरे का तांग खींचने मर पड़ा है लोगों को अपनी खुशी से खुशी नही मिल रही है दूसरे के सुख परेशानी से खुशी मिल रही है जीवन नही चाहते हुए बजी नारकीय बनती जा रही है आकाश अकेले नही मरा है वो बहुत सवाल छोड़कर गया है कि आप दूसरे के दुख से खुशी क्यों महसूस करते है क्यों नही आप दूसरे के खुशी का कारण बनते हैं