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सुख-दुख

हरामखोर मीडिया उस दिन भी चुप रहेगा

Abhishek Srivastava : तनु शर्मा का केस सिर्फ एक उदाहरण भर है। लगता है हम लोग आइबीएन-7 के शैलेंद्र सिंह की मौत को भूल चुके हैं। कांचदार कॉरपोरेट कंपनियों के दमघोंटू माहौल और संकुचित निजी जीवन स्थितियों से उपजे अलगाव में बदहवासी का शिकार होकर खुदकुशी कर लेना या किसी अनपेक्षित हादसे का शिकार हो जाना, दोनों समान बातें हैं।

Abhishek Srivastava : तनु शर्मा का केस सिर्फ एक उदाहरण भर है। लगता है हम लोग आइबीएन-7 के शैलेंद्र सिंह की मौत को भूल चुके हैं। कांचदार कॉरपोरेट कंपनियों के दमघोंटू माहौल और संकुचित निजी जीवन स्थितियों से उपजे अलगाव में बदहवासी का शिकार होकर खुदकुशी कर लेना या किसी अनपेक्षित हादसे का शिकार हो जाना, दोनों समान बातें हैं।

अभी-अभी मैं अंदाजे से कह सकता हूं कि हमारी मित्र मंडली में ही करीब दर्जन भर पत्रकार मित्र ऐसे होंगे जो रोज़ रात के अंधेरे में छत से कूद जाने या घर से भाग जाने का प्‍लान बनाते रहते होंगे। उनमें मैं भी शामिल हूं। किसी दिन किसी का प्‍लान बदहवासी में सच हो गया, तो एक और तनु शर्मा या शैलेंद्र सिंह हमारे सामने होंगे। हरामखोर मीडिया उस दिन भी चुप रहेगा।

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देखिए, इससे बचने का एक आसान सा निजी और एक कठिन सा सार्वजनिक उपाय है। पहला, ज्‍यादा महत्‍वाकांक्षा मत पालिये और कम ज़रूरतों में चैन से रहिए। दूसरा, बरमूडा ट्रायएंगल में तब्‍दील होते कांचदार मीडिया संस्‍थानों की इमारतों को एक राउंड फूंक दीजिए और इन इमारतों में छुपे सफेदपोश मैनेजमेंट एजेंटों यानी संपादकों में से जहां जो कोई भेंटाए, उसको सार्वजनिक रूप से रगड़ कर गरियाइए और बहुत एंग्‍ज़ायटी हो तो पीट दीजिए।

पत्रकार और एक्टिविस्ट अभिषेक श्रीवास्तव के फेसबुक वॉल से.

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Mukund Hari : कभी-कभी ऐसा अनुभव होता है कि समाज के लिए एक पत्रकार बहुत मज़बूत किन्तु स्वयं के लिए सबसे कमज़ोर शख्स होता है। तनु शर्मा के दोषी सिर्फ वो तीन लोग ही नहीं बल्कि हम जैसे हमपेशा लोग भी हैं जो ऐसी यातनाओं को दूसरे का समझ आंखे फेरकर या खुद को बचाकर, सब जानकर भी किनारे से खिसक लेते हैं क्यूंकि सबको अपनी रोज़ी-रोटी का डर है।

दरअसल, ये डर नहीं बल्कि एक प्रवृत्ति है, जिसमें हम भारतीय सबसे आगे हैं। जब तक आग हमारे खुद के घर तक नहीं पहुंचती, हम उसे संजीदगी से नहीं लेते। कई बार लगता है, मजबूरियों के नाम पर स्वार्थी और नपुंसक हो रहे हैं हम। हमसे भले तो वो हिंजड़े हैं जो अपने हक़ और जिद के लिए लड़ना और छीनना जानते हैं और वो भी एक होकर।

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दूसरी तरफ हमलोग हैं जो न तो अपने हक़ का पैसा मांग सकते हैं और ना ही इन शोषकों से लड़ने की हिम्मत जुटा पाते हैं। मगर, मुझे उम्मीद है, पाप का घड़ा फूटेगा और इस सिस्टम को भी बदलना ही होगा। ऐसी उम्मीद जगाने वालों में से एक Yashwant Singh जैसे लोग अभी बाकी हैं। इन जैसों को देख अनेकों को प्रेरणा मिलेगी।

पत्रकार मुकुंद हरि शुक्ला के फेसबुक वॉल से.

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0 Comments

  1. ATUL KUMAR TIWARI

    June 24, 2014 at 4:47 am

    मित्र मीडिया में बहुत सारे ऐसे लोग भी हैं । लेकिन शायद उनको लोग नहीं जान पाते। वो गलत काम का विरोध करते हैं, जिसकी सजा उनके साथ उनके परिवार को भी भुगतनी पड़ती है। मैं अपनी एक दास्तान सुनाता हूं। मैं महुआ बिहार झारखण्ड में कार्यरत था। संयोग से नवम्बर में जिस दिन दीपावली की छुट्टी लेकर मैं घर जा रहा था। रास्ते में पता लगा चैनल में स्ट्राइक हो गई है। साथ में काम करने वाले मित्रों ने पूछा तुम्हारा नाम दे दिया जाए। मैने पहली बार में ही हां कह दिया। घर पर ही था पता चला मालिक ने चैनल ही बंद कर दिया। करीब करीब सभी लोग नौकरी पा गये। लेकिन मैं अभी आठ महीने से बेरोजगार हूं। ऐसा नहीं कि मैने चैनल में इंटरव्यू नहीं दिये। दिये और सलेक्ट भी हुआ लेकिन नौकरी चाहिए तो समझौते पर मिलेगी। जितनी सैलरी है उससे सात से आठ हजार कम पर। मेरे जमीर ने गवाही नहीं दी मैने नहीं किया। अभी तक बेरोजगार हूं रोज टूटता हूं। लेकिन अपने बेटे को देख फिर से उठता हूं। लेकिन अभी तक बेरोजगार हूं।

  2. Mukesh Kumar Singh

    June 24, 2014 at 2:59 pm

    किसी पत्रकार का ऑफ़िस के बाहर कहीं भी हुआ उत्पीड़न ख़बर हो सकती है, लेकिन ऑफ़िस में होने वाले ज़्यादतियाँ संवैधानिक हैं! वाह रे हमारा पेशा!!

  3. विजय कुमार

    June 26, 2014 at 5:22 am

    अाप सच कहते हो दैनिक जागरण आप की जवानी खा जाता है और बुढापे में आप को अकेले छोड देता है, उसने हमारे साथ भी यही कियात्र मुझे हटाए जाने का दुख नहीं है, दुख है कि हमारे कुछ पत्रकार जोकि उनकी चम्‍चागिरी में रहते है कहीं उनके साथ भी यहीं हुआ तो वह कहां जायेंगे, वैसे उन्‍होंने तो दलाली खाकर अच्‍छा खासा पैसा एकत्रित कर लिया होगा, लेकिन पैसे से रोटी खरीद सकते है, जिंदगी नहीं यह बात वह भूल चुके है, वैसे भी यहीं पर हमें भुगत कर जाना है,
    दूसरा समय तो आ गया है कि पत्रकार एकत्रित हो मगर जयचंदों के कारण ऐसा नहीं हो पा रहा है, हमें एक प़थ्‍वीराज चौहान की जरूरत है जो इन जयचंदो को आवाज पर मारेे9( ex reporter deanik jagran

  4. vinay goel

    September 10, 2014 at 12:25 pm

    lagta hai abhishek ji ko tathakathit patrakaron ki jat pat chalgaye hai isliye Adwa sach khuleam bol rahe hain. lekin yeh dhyan rahe ki aapke is mission shay hi koi sath de. har koi itna sahas nahin kar sakta. sabko apne bivi bachhe palne hai.

  5. Gopalji

    September 24, 2015 at 1:25 pm

    अपने हमपेशा पत्रकार बंधुओं की अक्सर ऐसी खबरें सुनने और पढ़ने को मिलती हैं जिनमे कुछ से उगते सूरज की सुषमा सी झलक से मन प्रफुल्लित होता है तो वहीं दूसरी ओर मन बहुत व्यथित होता है जब किसी पत्रकार बंधू को दुखी होते देखता हूँ, उसके साथ हमारे मीडिया के लोगों के द्वारा उसका उत्पीड़न और शोषण होने की खबर सुनता हूँ। मन तब और अधिक अशांत हो उठता है कि जब शोषित और लज्जित हुए उस पत्रकार बंधू को दो जून की रोटी और बच्चों की फीस तक के लिए जूझते देखता हूँ।
    दुःख होता है कि हमारे ही मीडिया बंधू जो आज कॉर्पोरेट मीडिया के सजग प्रहरी बन अपने ज़मीर और पेशे का सौदा कर भारतीय संविधान में फोर्थ पिलर के अस्तित्व को नष्ट-भ्रष्ट करने में लगे हैं।

    इस भाण्ड मीडिया से तो बेचारे हिजड़े ही भले कि जो अपने पेशे के प्रति वफादार तो हैं।

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