लखनऊ में पांच दिनों से अखबार नहीं आ रहे हैं। लोग परेशान हैं। कार्यक्रम हो रहे हैं, पत्रकार वार्ताएं हो रही हैं लेकिन जब खबरें नगर में पहुंच नहीं रही हैं तो लोगों को लगता है कि उनका उद्देश्य पूरा नहीं हो सका है। कार्यक्रमों की सूचनाएं भी नहीं पहुंच रही हैं। मैं तो ज्यादातर साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों में जाता हूं। इस बीच कई कलाकार बाहर से नगर में आए लेकिन वे अपने साथ अखबार नहीं ले जा सके। फोन आते हैं। क्या हमारे कार्यक्रम की कवरेज हुई, फोटो भी थी? अगर वे आसपास हैं तो हम उन्हें कार्यालय आकर अखबार लेने की सलाह देते हैं, दूर हैं तो इंटरनेट संस्करण के बारे में बताते हैं। पत्रकार साथी भी परेशान हैं। उनकी खबरें लोगों तक पहुंच नहीं रही हैं, बाइलाइन बेकार जा रही हैं..।
लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अखबार न बंटने से खुश हैं। वे कौन लोग हैं? वे ऐसे लोग हैं जो कभी नहीं चाहते कि उनके काम में कोई खलल पड़े। वे नहीं चाहते कि उनकी लापरवाही लोगों के सामने आए। वे नहीं चाहते कि उनके भ्रष्टाचार उजागर हों। वे पांच दिनों से बहुत खुश हैं कि अस्पताल में लोग डेंगू से मर रहे हैं लेकिन वहां की लापरवाही लोगों तक नहीं पहुंच पा रही है। वे बहुत खुश हैं कि कल पत्रकारों ने बहुत सारे सवाल कर उन्हें असहज कर दिया लेकिन ये सवाल-जवाब लोगों तक पहुंच पाए। अपराध हो रहे हैं, आत्महत्याएं हो रही हैं, दुर्घटनाओं में लोग मर रहे हैं, छेड़छाड़ और दुर्व्यवहार हो रहे हैं, महंगाई बढ़ रही है, बिजली नहीं आ रही है, ट्रांसफार्मर बदले नहीं जा रहे हैं, नाली का पानी सड़कों पर जमा है, नलों में गन्दा पानी आ रहा है, लेकिन ऐसा लग रहा है जैसे चारो ओर कितनी सुख-शान्ति है, गोया रामराज्य आ गया है। वे जो इसके लिए जिम्मेदार हैं, वे बहुत खुश हैं।
कई लोग कहते हैं कि अब चैनलों का जमाना है, खबरें तो हम तक पहुंच ही जाती हैं। लेकिन मैं तो ऐसे समाज को जानता हूं जहां अखबारों के बिना पूरे दिन एक अधूरापन रहता है। मैं ऐसे कितने ही परिवारों को जानता हूं जिनकी सुबह की चाय अखबार के साथ ही पूरी होती है, ऐसे कितने ही लोगों को जानता हूं जो सबेरे बाहर चाय पीने इसलिए निकलते हैं कि साथ में अखबार पढऩे को मिलता है, किसी सुबह कालोनी से गुजरता हूं तो बहुत सारे बुजुर्गों को बालकनी में कुर्सियों पर बैठकर अखबार पढ़ते देखता हूं, ऐसी महिलाओं को जानता हूं जो टेलीविजन पर खबरें तो नहीं देखतीं लेकिन दोपहर में कुछ वक्त ऐसा जरूर आता है जब बिस्तर पर अखबार फैलाकर पढऩे बैठ जाती हैं, मेमू ट्रेनों की कोच में अखबार के एक-एक पन्ने को दूर तक सफर करते देखता हूं।
मैं जानता हूं कि इनमें से अधिकतर लोग वे हैं जो जानते हैं कि वे इस समाज को बदलने के लिए कुछ नहीं कर सकते हैं लेकिन ये वे अघाए हुए लोग नहीं हैं जो आंख बन्दकर लेने से कहीं कुछ भी न होने का अनुभव कर खुश हो हैं बल्कि ये वे लोग हैं जो जब भी अखबार पढ़ते हैं तो ऐसी खबरों पर उनकी मुट्ठियां थोड़ी कसने लगती हैं, जबड़े थोड़े और सख्त हो जाते हैं। अखबार इनके लिए जरूरी है, इनके विरोध के जज्बे को बचाए रखने के लिए जरूरी है, अखबार न बंटने से जो खुश हो रहे हैं उनके तालाब में कंकड़ मारने के लिए जरूरी हैं..।
पत्रकार आलोक पराड़कर की फेसबुक वाल से.