जयपुर। 6 दशक की यशस्वी पत्रकारिता के बाद हिन्दी पत्रकारिता के आदर्श श्री श्याम सुंदर आचार्य का बीते दिनों साकेत अस्पताल, जयपुर में निधन हो गया. वह कैंसर से लंबी लड़ाई के बाद देहमुक्त हुए. उनकी शव यात्रा उनके निवास ‘द्वारका दास पुरोहित पार्क के पास, अग्रवाल फार्म, जयपुर’ से सुबह 11.30 बजे मोक्षधाम, महारानी फार्म, दुर्गापुरा, जयपुर के लिए निकली। अंतिम विदाई देने के लिए भारी संख्या में उनके परिचित, शिष्य, मित्र, संबंधी और प्रशंसक पहुंचे.
वरिष्ठ पत्रकार श्याम आचार्य हिंदुस्तान समाचार के संवाददाता, संपादक, राष्ट्रीय संपादक एवं महाप्रबंधक रहे. साथ ही जनसत्ता, नवभारत टाइम्स और दैनिक नवज्योति के स्थानीय संपादक भी रहे. उन्होंने दैनिक भास्कर में भी अपनी सेवाएं दीं. उनका कॉलम ‘ऑफ दी रिकार्ड’ काफी चर्चित रहा. उनके निधन से पत्रकार जगत में शोक छा गया है. लोगों का कहना है कि हमने पत्रकारिता के पुरोधा को खो दिया है, एक सच्चा पत्रकार सदा के लिए मौन हो गया है.
एएनएस समाचार के संरक्षक लक्ष्मीनारायण भला, जर्नलिस्ट एसोसिएशन ऑफ राजस्थान (जार) के प्रदेश अध्यक्ष राकेश शर्मा, महासचिव संजय सैनी, जार के पूर्व अध्यक्ष राजेंद्र बोड़ा, संजीव श्रीवास्तव, आनंद जोशी, गोपाल शर्मा, अनिल माथुर, राजीव जैन और ललित शर्मा व पिंक सिटी प्रेस क्लब के अध्यक्ष अभय जोशी महासचिव मुकेश चौधरी, श्रमजीवी पत्रकार संघ के अध्यक्ष हरीश गुप्ता, आईएफ डब्ल्यू जे के प्रदेश अध्यक्ष उपेंद्र सिंह एवं प्रेस क्लब के पूर्व अध्यक्ष मिलाप डांडिया, गोविंद चतुर्वेदी, बृजेश शर्मा, इशमधु तलवार, सत्य पारीक, एलएल शर्मा, वीरेंद्र राठौड़, किशोर शर्मा, नीरज मेहरा, राधारमण शर्मा एवं गुलाब बत्रा, राजेन्द्र राज आदि ने आचार्य के निधन पर शोक जताया है. मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने आचार्य के निधन पर शोक जताया है।
श्याम आचार्य पर एक सचित्र संस्मरण वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी ने फेसबुक पर पोस्ट किया है, जो इस प्रकार है-
Om Thanvi : कभी-कभी मौत दरवाज़े पर खड़ी नज़र आती है। परसों मानसरोवर के साकेत अस्पताल में श्याम आचार्य जी को देखने गए, तब पता नहीं कैसे लगा कि विदा होने की तैयारी में हैं। आज शाम वे चले गए।
हालाँकि ऐसा संशय शायद कुछ अरसे से मँडरा रहा था। दिसम्बर से वे बिस्तर पर थे। पिछले ही पखवाड़े पूर्व आइएएस अधिकारी श्याम सुंदर बिस्सा के प्रयत्नों से उनकी कविताओं की किताब प्राकृत भारती अकादमी ने छापी। (राजेंद्र) बोड़ाजी ने बताया कि मित्रों तक को मालूम न था कि वे अपनी कापी में पद्य लिखते आए हैं। परिजनों से ही पता चला। आनन-फ़ानन में पांडुलिपि तैयार हुई और अस्पताल जाकर उनकी कृति मित्र उन्हें भेंट कर आए।
प्रेमलताजी के साथ जब उनसे मिलने गया, इशारे से उन्होंने किताब की प्रति मुझे देने को कहा। उनकी बेटी सीमा ने कुछ तसवीरें लीं, तब तक श्यामजी किताब को थामे रहे। मैंने उन्हें कहा कि घर जाकर आज ही पढ़ूँगा। भले उन्होंने बोलना छोड़ दिया था, पर सजग थे। उन्होंने गर्दन हिलाई। घर पर जब किताब उठाई, हैरान हुआ कि पहली कविता मानो अंतिम कविता थी: “प्राण! अब इस देहरी को छोड़ रे/ रोग की गठरी बनी जो/ पीड़ की नगरी बनी जो/ मोह में नित उलझकर/ क्षीण, कृश ठठरी बनी जो …”।
श्यामजी से पहली मुलाक़ात उनके ही क़सबे जैसलमेर में 1978 में हुई थी। वे जयपुर में एजेंसी हिन्दुस्थान समाचार में थे और अरब के एक शहज़ादे के शिकार अभियान के हल्ले से चिंतित राज्य सरकार के प्रेस-दल में वहाँ आए थे। अरुण कुमारजी (तब यूएनआइ में, बाद को ‘पानी-बाबा’ हुए) से भी पहली भेंट तभी हुई। दिल्ली से आए जावेद लईक़ और रघु राय से भी।
मैं साप्ताहिक ‘रविवार’ के लिए के उस विवादग्रस्त शिकार की रिपोर्ट के सिलसिले में बीकानेर से जैसलमेर गया था। वहाँ से जयपुर आया। मेरी सचित्र रिपोर्ट राजस्थान पत्रिका ने पहले छापी और उसके आधार पर कुलिशजी से नौकरी का प्रस्ताव भी हासिल हुआ। मैंने पढ़ाई पूरी करने की मोहलत माँगी। बहरहाल, रिपोर्ट सरकार को रास नहीं आई। अरुण कुमारजी (जो तब मुख्यमंत्री भैरोंसिंह शेखावत के बहुत क़रीब थे) ने भी मेरी नरम आलोचना की। पर श्यामजी ने एक नवोदित पत्रकार का हौसला बढ़ाया, यह मुझे बख़ूबी स्मरण है।
अगले वर्ष मेरा विवाह हुआ, ससुराल न्यू कॉलोनी में श्यामजी के घर और दफ़्तर के सामने थी। श्वसुर श्रीगोपालजी पुरोहित से उनका घरापा था। अब मैं उनके विशेष स्नेह का पात्र भी बन गया। बाद में जनसत्ता में हम साथ हुए। वे वहाँ समाचार सम्पादक रहे थे, फिर नवभारत टाइम्स में जयपुर रहकर कलकत्ता के स्थानीय सम्पादक हो जनसत्ता से फिर जुड़ गए।
मैं जनसत्ता का कार्यकारी सम्पादक होकर चंडीगढ़ से दिल्ली आया तो कलकत्ता अक्सर जाना हुआ। कलकत्ता में श्यामजी की बड़ी पहचान और साख थी। बांग्ला धड़ल्ले से बोलते थे। उन्होंने मुझे अनेकानेक लेखकों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों से मिलवाया। जनसत्ता की प्रगति की योजना सुझाई। एक राजस्थानी बासे में घर-जैसे खाने का ठिकाना भी बताया!
उनका निजी जीवन आगे दुखमय हो गया। विधि की विडम्बना ही थी। पहले शांतिजी (प्रेमलताजी के परिवार से रिश्तेदारी के चलते हम उन्हें ‘सगीजी’ कहते थे) चली गईं। फिर असमय बड़ा बेटा भूषण। पर उन्होंने अपने आप को सम्भाले रखा। लिखते रहे। जीते रहे।
जीवट के धनी, मधुर और सुंदर श्यामजी को विदा का आख़िरी सलाम।
(फ़ोटो: सीमा व्यास)