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वेब-सिनेमा

रॉकस्टार बनाने वाले इम्तियाज़ का पतन है यह फ़िल्म!

समर अनार्या-

हाँ उस फ़िल्म का जॉर्डन और कहाँ चमकीला। असल में एक पूरे समाज के पतन का दस्तावेज है चमकीला- जो बिकेगा वही गायेंगे तक ठीक है- उस पूरे दौर ने पूरे उत्तर भारत में ऐसे कई नायक खड़े किए जिन्होंने अपनी अपनी भाषाओं को अश्लीलता का पर्याय बना दिया।

ये वही गाने भी हैं जिन्होंने लड़कियों का सड़क पर चलना मुहाल कर दिया था/है।

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बेशक चमकीला जातिवाद का शिकार हुआ- पेशेवर प्रतिस्पर्धा का भी पर यह बात उसको नायक नहीं बना सकती। पूरी फ़िल्म में जाति वाला पहलू छुआ भी नहीं गया है- बस एक संवाद छोड़।

फिर चमकीला की दूसरी शादी वाला हिस्सा भी लगभग ग़ायब ही है।

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कुल मिला कर अभिनय ठीक है पर फ़िल्म का संदेश बहुत ख़राब है- जो बिकता है वही समाज की ज़रूरत नहीं होता। बहुत चमकीले वे चीजें बेच जाते हैं सभ्य समाज में जिनकी जगह ही नहीं होनी चाहिए थी।

फ़िल्म अच्छी लगी हो तो एक बार स्त्री मन से देखने की कोशिश करिए। पान की दुकान पर बज रहे निहायत अश्लील गानों के बीच कॉलेज जाती आपकी बहन, दोस्त, प्रेमिका या नितांत अजनबी लड़की ही। मेरी बात ठीक से समझ पायेंगे तब।

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बाक़ी अफ़सोस ही है कि बाबा वारिस शाह का, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का, हबीब ज़ालिब का, शकेब ज़लाली का, लाल सिंह दिल का, अवतार सिंह पाश का पंजाब चमकीला में नायक खोज रहा है!

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