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सुख-दुख

धनतेरस का दिन और अमर उजाला का हालचाल!

अरूण श्रीवास्तव-

धनतेरस को देहरादून से प्रकाशित अमर उजाला आठ मुखी था और सभी के सभी पेज विज्ञापन से ठुंसे हुए थे. वैसे ‘पहले मुर्गी आई या अंडा’? माना इस सवाल का सही और प्रामाणिक जवाब नहीं है, पर इस सवाल का तो है कि यदि अखबार में एक भी विज्ञापन न रहे तो वह कितने दिन चलेगा और एक भी समाचार न रहे तो वह कितने दिन चलेगा? कुछ ऐसा ही इन दिनों अखबारों में छप रहे विज्ञापनों को देखकर लगता है कि अखबार उसी दिशा में बढ़ चले हैं।

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अब धनतेरस के दिन उत्तराखंड की राजधानी देहरादून से प्रकाशित होने वाले अमर उजाला को ही ले लीजिए। अमर उजाला इसलिए क्योंकि मैं लगभग 25 साल से नियमित पाठक रहा हूं। इस दिन का अमर उजाला (24+4+4+10) पेज का था। मैं या यूं कहें कि हम जैसे सेवानिवृत्त लोग खुश हो गए कि त्योहार के मौके पर दो-चार दिन की सामग्री तो पढ़ने को मिली। पर अखबार उलटते-पलटते घोर नहीं घनघोर निराशा हुई। चार अतिरिक्त पेज धनतेरस के विज्ञापनों को समर्पित थे तो मुख्य हिस्से के तीन-चार पेज जैकेट (अखबार की दुनिया में फुल पेज के विज्ञापन को जैकेट कहते हैं) वाले थे। बाकी के पेज आधे विज्ञापन और आधे पर समाचार थे। बाकी पेज भी गले तक विज्ञापनों से ठुंसे पड़े थे। यह हाल धनतेरस के दिन का ही नहीं था, बल्कि इसके लक्षण कई दिन पहले से दिखाई पड़ने लग गए थे और कई दिन बाद (दीपावली) तक दिखाई पड़े।

बताते चलें कि, अखबारों के पेज विज्ञापन बढ़ने से ही बढ़ते हैं। है कोई ऐसा अखबार, मालिक या अखबार समूह जो समाचार बढ़ने की वजह से पेज बढ़ाता हो? अच्छी खबर/स्टोरी या एक्सक्लूसिव इंटरव्यू के लिए पेज बढ़ाता हो, कोई स्कीम लांच किया या करता हो। घनतेरस के दिन 42 पेज का अमर उजाला (और भी अखबारों ने पेज बढ़ाये होंगे) जिस दिन विज्ञापन कम या न के बराबर होते हैं उस दिन यही अमर उजाला दुबला होकर 16 पेज का हो जाता है। एक दिन तो इतना पतला हो गया कि हाथों से फिसलकर गिर गया। उठा कर पेजों की संख्या देखी तो अंकित पेजों की संख्या 10 थी। अंकित इसलिए कि पता नहीं किस वजह से अखबार जैकेट के बाद भी पूरे पेज के विज्ञापन वाले पेज पर संख्या नहीं दी जाती।

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सुना है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की नियामक संस्था ने खबरिया चैनलों के लिए हर एक घंटे में 12 मिनट विज्ञापनों के लिए तय (हालांकि कोई भी न्यूज़ चैनल इसे मानता नहीं) किये हैं? कुछ उसी तरह के मानक अखबारों के लिए तय होने चाहिए और उसका पालन भी कराना चाहिए। यह संस्था ट्राई (टेलीकॉम सेक्टर) की तरह मजबूत भी होनी चाहिए ना कि दिखावटी। प्रेस परिषद किस उद्देश्य के लिए बनायी गई और क्या हो कर रह गई यह तो ठीक-ठीक पता नहीं। हो सकता है कि इस अवसर पर छपने वाले विज्ञापनों में” दाल में कुछ काला हो” पर जिस तरह से विज्ञापन छपा रहे हैं और छापे जा रहे हैं उससे लगता है कि पूरी दाल ही काली है।

हां एक बात और यह सब मैं एक पाठक की हैसियत से लिख रहा हूं। कृपया मानहानि का दावा न करिएगा। अगर मजबूरी में करना ही पड़े तो सवा रुपए का करिएगा। क्योंकि इससे ज्यादा मेरी औकात नहीं है।

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