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इंटरव्यू

‘हैदर’ जैसी फिल्में भारतीय लोकतंत्र में ही संभव है : आशीष विद्यार्थी (इंटरव्यू)

आशीष विद्यार्थी आला दर्जे के कलाकार होने के साथ-साथ सबसे घुल-मिल कर रहने वाले एक आम इंसान भी हैं। बीते 12 दिनों से आशीष इस्पात नगरी भिलाई में यहीं के पले-बढ़े युवा निर्देशक केडी सत्यम की फिल्म ‘बॉलीवुड डायरी’ की शूटिंग में व्यस्त थे। शूटिंग कभी सुबह 10 बजे से रात 12 बजे तक चली तो कभी अगली सुबह 6 बजे तक। शूटिंग के बीच-बीच में जब भी वक्त मिला, आशीष ने टुकड़ों-टुकड़ों में बातचीत की। इस बीच वह सबसे खुल कर मिलते भी रहे। इसके बाद मुंबई रवाना होने से पहले उनके साथ बातचीत का फाइनल दौर चला। आशीष विद्यार्थी मानते हैं कि बीते तीन दशक के मुकाबले आज ज्यादा बेहतर फिल्में बन रही हैं। फिल्मों की व्यस्तता के बीच उन्हें थियेटर को कम वक्त देने का मलाल भी है। हाल की अपनी फिल्म ‘हैदर’ को लेकर वह खुल कर प्रतिक्रिया देते हैं। उनका मानना है कि ‘हैदर’ जैसी फिल्में भारतीय लोकतंत्र में ही संभव है। आशीष विद्यार्थी से हुई पूरी बातचीत सवाल-जवाब की शक्ल में-

आशीष विद्यार्थी आला दर्जे के कलाकार होने के साथ-साथ सबसे घुल-मिल कर रहने वाले एक आम इंसान भी हैं। बीते 12 दिनों से आशीष इस्पात नगरी भिलाई में यहीं के पले-बढ़े युवा निर्देशक केडी सत्यम की फिल्म ‘बॉलीवुड डायरी’ की शूटिंग में व्यस्त थे। शूटिंग कभी सुबह 10 बजे से रात 12 बजे तक चली तो कभी अगली सुबह 6 बजे तक। शूटिंग के बीच-बीच में जब भी वक्त मिला, आशीष ने टुकड़ों-टुकड़ों में बातचीत की। इस बीच वह सबसे खुल कर मिलते भी रहे। इसके बाद मुंबई रवाना होने से पहले उनके साथ बातचीत का फाइनल दौर चला। आशीष विद्यार्थी मानते हैं कि बीते तीन दशक के मुकाबले आज ज्यादा बेहतर फिल्में बन रही हैं। फिल्मों की व्यस्तता के बीच उन्हें थियेटर को कम वक्त देने का मलाल भी है। हाल की अपनी फिल्म ‘हैदर’ को लेकर वह खुल कर प्रतिक्रिया देते हैं। उनका मानना है कि ‘हैदर’ जैसी फिल्में भारतीय लोकतंत्र में ही संभव है। आशीष विद्यार्थी से हुई पूरी बातचीत सवाल-जवाब की शक्ल में-

-शुरुआत भिलाई से ही करते हैं। इस शहर की आप कैसी छवि अपने मन में लेकर आए थे और इसे कैसा पाया…?

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–सच कहूं तो मुंबई में जब मुझे कहा गया कि भिलाई जाना है, तो मेरे जहन में भिलाई स्टील प्लांट जरूर था लेकिन  पढ़ा-लिखा होने के बावजूद मैं खुद सोच में पड़ गया था कि ये शहर एमपी, झारखंड  या छत्तीसगढ़ में कहां है। दरअसल आज भिलाई हम भारतीय लोगों के जहन से गुम सा होता जा रहा है। आज सबसे बड़ी जरुरत है कि हम अपने आजाद मुल्क के शुरूआती और सबसे बड़े सरकारी औद्योगिक उपक्रम भिलाई की पहचान को जिंदा रखें। खास कर सरकार और यहां के लोगों को देश भर के स्कूली बच्चों के स्टडी टूर करवाना चाहिए। पं. जवाहरलाल नेहरू ने कभी भिलाई और उस दौर में स्थापित हुए तमाम सार्वजनिक उपक्रमों को आधुनिक भारत के तीर्थ कहा था और  यह भिलाई के लोगों के व्यवहार में आज भी दिखता है। यहां लघु भारत हर गली, चौराहे और बाजार में दिख जाता है। यह हम सब का दायित्व है कि भिलाई की इस पहचान को हम राष्ट्रीय पटल पर जागृत रखें।

-लेकिन भिलाई जैसे तमाम आधुनिक तीर्थों पर विनिवेश यानि निजीकरण का खतरा मंडरा रहा है। तब भिलाई अपनी पहचान कैसे कायम रख पाएगा?

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–देखिए, हर चीज का एक दौर में महत्व होता है और उसकी ऐतिहासिक प्रासंगिकता होती है। लाल किला कल तक कुछ और महत्व का था लेकिन एक समय के बाद अब वह नए आयाम में है। तो आपके भिलाई का भी एक ऐतिहासिक महत्व है कि देश की आजादी के बाद इतना विशाल औद्योगिक ढांचा कैसे खड़ा हुआ और यह भारतीयता का प्रतीक कैसे बना। इसका ये महत्व तो रहेगा ही। अब अगर हम सोचें कि यहां भी निजीकरण का खतरा है तो इसकी क्या पहचान रह जाएगी? मेरा मानना है कि अगर भिलाई और देश की तरक्की के लिए जरूरी है तो यहां विनिवेश भी होगा। लेकिन यह किस हद तक होगा, इसे आप लोग तय करेंगे, जनता तय करेगी। फिर अगर ऐसी कोई आशंका दिखती भी है तो विनिवेश के बावजूद भिलाई का ध्येय खोना नही चाहिए।

-12 दिन तक आपने  भिलाई को करीब से देखा, शूटिंग में भी व्यस्त रहे। यहां से ऐसी कौन सी खास यादें हैं जो लेकर जा रहे हैं?

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–यहां आने के बाद जिन लोगों से भी मुलाकात हुई,सब ने मेरा दिल जीत लिया है। गजब की फीलिंग है यहां के लोगों में। मैं तो शूटिंग के अलावा भिलाई के लोगों से मिलने और यहां अलग-अलग जगह घूमने में बिजी रहा। यहां जलेबी चौक में जलेबी और समोसा, सिविक सेंटर में नन्हे की कॉफी, आकाशगंगा सुपेला व सेक्टर-4 की चाट और हाईवे रेस्टॉरेंट पावर हाउस डोसा नहीं भूल पाउंगा। मैने तो खूब लुत्फ उठाया। मुझे फोटोग्राफी जुनून की हद तक पसंद है। जलेबी चौक में जलेबी खाते-खाते अचानक मैनें सामने दीदार स्टूडियो देखा। स्टूडियो का नाम और चौक की जगह मिलकर एक अद्भुत प्रभावी दृश्य बना रहे थे। यहां का 32 बंगला, टाउनशिप और तमाम शहर ही अपने आप में अद्भुत दृश्य रचते हैं।

-भिलाई में पले-बढ़े और आज  बालीवुड के स्थापित निर्देशक अनुराग बासु के साथ आपने ‘बरफी’ की थी और अब भिलाई के ही एक और युवा निर्देशक केडी सत्यम के साथ ‘बॉलीवुड डायरी’ कर रहे हैं। इन दोनों भिलाइयन की शख्सियत और उनके काम को कैसे देखते हैं?

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–मेरी नजर में अनुराग बासु बहुत ही क्रिएटिव और सज्जन व्यक्ति है। वो अपने ख्वाबों को बेहद खूबसूरती से बुनते हैं, जिसे आप उनकी अलग-अलग फिल्मों में विभिन्न पात्रों के माध्यम से देखते हैं। ‘बरफी’ में उनके निर्देशन में काम करने पर एक अलग तरह की तसल्ली हुई। मुझे निजी तौर पर अनुराग की जो बात बहुत पसंद आती है वह यह है कि उसमें एक अच्छी फिल्म बनाने का जज्बा और हौसला दोनों है। इसी तरह सत्यम भी भिलाई का है। मैं उसे कुछ साल पहले मिला। मैंनें पाया कि बहुत ही समझदार, ईमानदार और निडर लड़का है। मैं निडर इसलिए कह रहा हूं कि आज निडर होना बहुत बड़ी बात है। सत्यम भी अपने सपने देखने की हिम्मत रखता है। जो बात मुझे अनुराग बासु में दिखी थी, वही मैं सत्यम में भी देखता हूं कि वो अपनी बात  कहना चाहता है अपनी फिल्म बनाना चाहता है।

-सत्यम की फिल्म ‘बॉलीवुड डायरी’ है किस तरह की फिल्म?

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–फिलहाल तो फिल्म की कहानी और दूसरे खुलासे मैं नहीं कर सकता। हां, इतना बता सकता हूं कि बहुत दिनों की मेहनत के बाद  सत्यम ने अपनी ये फिल्म शुरू की है। इसमें हम सब साथ हैं। जाहिर बात है कि उनकी यह फिल्म एक बहुत ही अनूठी कहानी है। यह कुछ सपनों की कहानी है जो हम सब देखते हैं। सत्यम ने इसे कुछ कहानियों के साथ पिरोया है आप सबको बहुत पसंद आएगी यह फिल्म। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि हमारे हिंदुस्तान के 99 प्रतिशत  लोगों को अपना कुछ न कुछ हिस्सा दिखेगा इस फिल्म में।

-इसी फिल्म की शूटिंग के दौरान जो अनहोनी हुई, उसे किस तरह याद रखेंगे?

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–शूटिंग के दौरान 19 अक्टूबर को दुर्ग की शिवनाथ नदी में अचानक मैं डूबने लगा। मुझे तैरना आता है लेकिन पता नहीं उस वक्त अचानक क्या हुआ, कुछ समझ नहीं आया। शायद पैर में धोती फंस गई और बहाव तेज होने की वजह से घबराहट महसूस हुई। उसी वक्त वहां मौजूद पुलिस जवान विकास सिंह और मेरे डायरेक्टर केडी सत्यम को लगा कि कुछ अनहोनी हो सकती है। सभी सचेत हो गए। मैं खास तौर पर आरक्षक विकास सिंह की तत्परता का कायल हूं।  इस एक हादसे ने मेरे जीवन का नजरिया भी बदला। मुझे लगता है यह नया जीवन है और इसे पूरी तरह एन्जाय करूं।

-भिलाई से लौटते वक्त कोई अफसोस..?

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–हां, भिलाई स्टील प्लांट ही भिलाई की खास पहचान है लेकिन मैं इस बार प्लांट नहीं देख पाया। मैं अपने परिवार और दोस्तों को साथ लेकर आउंगा और तसल्ली से प्लांट देखना चाहता हूं। मैं यहां फौलाद ढालते हाथों को करीब से देखना चाहता हूं। मेरा वादा है अगली बार प्लांट जरूर देखने जाउंगा।

-आपकी अपनी पृष्ठभूमि भी बड़ी रोचक है। इसे कैसे बयां करेंगे?

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–अक्सर मुझसे लोग पूछते हैं कि मैं किस स्टेट को बिलांग करता हूं। मैं भी सवालिया अंदाज में बताता हूं कि मेरे पिता गोविंद विद्यार्थी मलयाली थियेटर पर्सनालिटी थे। मेरी मां और मशहूर शास्त्रीय नृत्यांगना रेबा विद्यार्थी जयपुर (राजस्थान) के बंगाली परिवार से थी। मेरी पैदाइश हैदराबाद में हुई और पढ़ाई लिखाई दिल्ली में हुई। अब रोटी मुंबई और साउथ की खा रहा हूं। ऐसे में आप खुद बताइए कि मैं किस स्टेट को बिलांग करता हूं?

-आपके पिता प्रसिद्ध पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी से प्रभावित थे। ऐसे में कलम के बजाए कैमरा चुनना मुश्किल भरा फैसला था?

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–बाबा एक स्वतंत्रता सेनानी और थियेटर पसर्नालिटी होने के साथ-साथ प्रसिद्ध पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी से बहुत ज्यादा प्रभावित थे। इसलिए बाबा ने विद्यार्थी उपनाम अपनाया। बाबा खुद भी जर्नलिस्ट थे। बाबा से मैनें फोटोग्राफी सीखी। बाबा की तरह मैं आपने आस-पास जो भी घट रहा है, उसे फोटोग्राफी और दूसरे माध्यमों  में रिकार्ड करता जाता हूं। जहां तक अभिनय का सवाल है तो नेशनल स्कूल आफ  ड्रामा (एनएसडी) जाने का मेरा अपना फैसला था। बाबा इस दुनिया में नहीं है लेकिन मुझे उम्मीद है कि वो मेरे फैसले से खुश हैं।

-थियेटर से फिल्मों का रुख कैसे हुआ..? अब तक का सफर कैसा रहा..?

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–नेशनल स्कूल आफ  ड्रामा (एनएसडी) के बैकग्राउंड की वजह  से फिल्मों तक पहुंच तो गया था लेकिन यह यहां कदम जमाना आसान नहीं था। मेरा फिल्मी सफर 1986 में कन्नड़ फिल्म ‘आनंट’  से शुरू हुआ। इसके पहले तो खूब थियेटर करता था। हिंदी में 1992 में पहली बड़ी फिल्म ‘1942 अ लव स्टोरी’ आई। लेकिन पहचान मिली1994 में गोविंद निहलानी की फिल्म ‘द्रोहकाल’ से । इस फिल्म में कमांडर भद्रा के किरदार के लिए श्रेष्ठ सहायक अभिनेता का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार हासिल हुआ। तब से अब तक दक्षिण के अलावा हिंदी और बांग्ला सहित विभिन्न भाषाओं में 300 से ज्यादा फिल्में कर चुका हूं।

-अब फिल्मों की व्यस्तता के बीच थियेटर को कितना वक्त दे पाते हैं?

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–ये सच है कि जितना वक्त मैं थियेटर को देना चाहता हूं, उतना नहीं दे पाता हूं। फिर भी कोशिश करता हूं कि थियेटर जितना भी करूं अच्छे से करूं। अभी बहुत दिन से थियेटर नहीं कर पा रहा हूं, इसलिए थोड़ा विचलित भी हूं।

-आपका एक पात्रीय नाटक ‘दयाशंकर की डायरी’ काफी चर्चित रहा और सराहा भी गया। इतनी उम्मीदें थी इस नाटक को लेकर..?

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–कोई भी क्रिएशन टीम वर्क का नतीजा होता है, उसके बाद वह अपना खुद का रूप ले लेता है। ‘दयाशंकर की डायरी’ के बारे में भी यही कहना ठीक होगा। राइटर-डायरेक्टर नादिरा जहीर बब्बर सहित पूरी टीम ने कुछ इंटरेस्टिंग बनाने की सोची और वो एक हद तक लोगों को पसंद आया है। इसमें एक अनूठी बात यह है कि यह एक ऐसी कहानी है जिसमें आम लोग अपने आप को और अपने आस-पास को इसमें  देख पाए हैं।

-आपकी हालिया रिलीज फिल्म ‘हैदर’ आलोचना और सराहना दोनों पा रही है। आप इसे किस नजरिए से देखते हैं?

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–मेरी नजर में ‘हैदर’ इंडियन सिनेमा और इंडियन पॉलिटी के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण फिल्म है। सिनेमा के लिए महत्वपूर्ण इसलिए क्योंकि जिस तरीके से कहानी कही गई है, वह वर्ल्ड क्लास है। अभी थोड़ी देर पहले ही विशाल भारद्वाज का मैसेज आया कि रोम में ‘हैदर’ को पीपल्स च्वाइस अवार्ड मिला है। मैं पॉलिटी की बात इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि हमारे देश में लोकतंत्र है और यहां एक फिल्ममेकर अपनी बात कहने की छूट रखता है। वी शुड बी प्राउड आफ इट। दुनिया में बहुत से मुल्क ऐसे हैं जहां अपनी बात कहने पर प्रतिबंध झेलना पड़ता है और जेल से लेकर फांसी तक हो जाती है। लेकिन हम लोग गौरवान्वित हैं कि हमारे देश में अलग-अलग मत के लिए जगह है।

-लेकिन ‘हैदर’ पर हदें लांघने जैसे आरोप भी लगे हैं?

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–देखिए, कईयों को लगता  है कि ये इधर वाली बात है या उधर वाली बात।  लेकिन हमें समझना चाहिए कि हमारी डेमोक्रेसी की सबसे बड़ी ताकत बोलने की आजादी है। इसी वजह से हम लोग ग्रो कर पाए हैं।  हमारा डेमोक्रेटिक सिस्टम इतना मजबूत है कि हमारे यहां तानाशाही पांव नहीं जमा पाई है। यह हमने हाल के इलेक्शन में भी देखा कि जो पार्टी कभी बहुमत में नहीं आई थी  वह आ गई और एक पार्टी जिसने अच्छा परफार्म नहीं किया उनको जनता ने एकदम से पटक कर अलग कर दिया गया।

-कश्मीर जैसे संदेनशील मुद्दे को उठाने के लिए शेक्सपियर के ‘हैमलेट’ का ही सहारा क्यों लिया जाए..?

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–सवाल तो किसी पर भी उठाया जा सकता है। अगर आप पेंटर हैं और आइल पेंट इस्तेमाल करते हैं तो आप पूछ सकते हैं कि आइल की क्या जरूरत है, चारकोल से हो सकता है। चारकोल उठाएंगे तो आप कहेंगे वाटर कलर से हो सकता है। तो ये एक आध्यात्मिक या यूं कहिए इंटेलक्चुअल किस्म का सवाल है। जिसके बारे में मैं ज्यादा कुछ नहीं कहना चाहूंगा। मैं सिर्फ  यह मानता हूं कि हम लोग अपने-अपने तरह से अपनी बात कहना जानते हैं। जरिया कुछ भी हो सकता है। विशाल ने इससे पहले ‘ओमकारा’ एकदम अलग पृष्ठभूमि में बनाई। तो, वो वहां पर वैलिड है।  अब ये एक फिल्मकार की क्रेडिबिलिटी है कि वो किस तरह का माध्यम चुनता है। वैसे ‘हैदर’ एक चुनौतीपूर्ण कदम था, जिसे विशाल ने बहुत ही गजब तरीके से उठाया है।

-दक्षिण की फिल्में अलग किस्म की थोड़े लाउड मिजाज लिए हुए होती है। वहीं बालीवुड का टेस्ट अलग होता है। ऐसे में दोनों माहौल में काम करते हुए क्या फर्क देखते हैं?

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–यह फिल्मकार पर निर्भर करता है कि वो अपनी बात किस तरह कहना चाहता है। मुझे  लगता है कि हमको किसी और पक्ष के बारे में उतना सोचना नहीं चाहिए क्योंकि हमें मालूम नहीं होता है कि वहां और यहां आखिर चलता क्या है। हकीकत ये है कि दक्षिण में वो वैसी ही लाउड किस्म की फिल्में इसलिए बनाते हैं, क्योंकि वहां वैसी ही फिल्में चलती है। मैं फिल्म को फिल्म की तरह ही करता हूं, इसमें फर्क नहीं देखता।

-80-90 के दशक की तरह क्या आज समानांतर सिनेमा जैसा कुछ बचा है? आज की फिल्में कितनी तसल्ली दे पाती है आपको?

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–मुझे लगता है पिछले तीन दशक के मुकाबले आज तो गजब की फिल्में बन रही हैं। पहले जरा माफी के साथ फिल्में बनानी पड़ती थी। तब डायरेक्टर लोगों से कहना पड़ता था कि मैं जरा अच्छी फिल्म बनाना चाहता हूं इसलिए समानांतर सिनेमा बना रहा हूं, प्लीज आना यार देखने के लिए। लेकिन आज तो लोग डंके की चोट पर अच्छी फिल्में बना रहे हैं। मुझे लगता है फिल्मों को लेकर आज बहुत ही जबरदस्त माहौल है। आज आप जिस तरह की फिल्म देखना चाहते हैं उस तरह की फिल्में भी बन रही है। यह अमेजिंग दौर है इंडियन सिनेमा का। न सिर्फ हिंदी के लिए बल्कि बांग्ला, तमिल, असमिया और सभी भाषाओं की फिल्मों के लिए भी।

-लेकिन इस दौर में यह भी हो रहा है कि समानांतर सिनेमा का प्रतीक रही ‘बाजार’ जैसी फिल्म के निर्देशक सागर सरहदी अपनी फिल्म ‘चौसर’ को लेकर 10 साल से खरीदार तलाशते भटक रहे हैं। क्या सरहदी जैसे निर्देशक अब चूक गए?

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–‘कौन चूक गया और कौन नहीं चूका’ ये सब उन लोगों की बातें है जो ड्राइंग रुम में बैठ कर डिस्कशन करते हैं। हम लोग काम करने वाले लोग है। हम फिल्म बनाते हैं और हमारी कोशिश रहती है कि लोगों को पसंद आए। कोई भी फिल्मकार अपने पूरे पैशन के साथ  एक पीस आफ आर्ट के तौर पर फिल्म बनाता है। अगर हम उसकी कद्र नहीं कर पाए तो मुझे लगता है कि यह हमारा नुकसान है।

-एक कलाकार के लिए सामाजिक जवाबदारी कितना मायने रखती है?

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–हम लोग कलाकार होने के साथ-साथ इंसान भी हैं। हम लोग पूरा ध्यान रखते हैं कि हमारे किसी भी एक्ट से समाज में कोई गलत संदेश ना जाए। मेरी कोशिश रहती है कि जहां जो चीजें मुझे प्रेरित कर पाती है, मैं वही करूं। मैं ऐसा भी नहीं कहता कि मेरे कुछ करने ना करने से कुछ बदलने वाला नहीं।

-लेकिन हाल ही में आपने बोतल बंद पानी का विज्ञापन भी किया है..?

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–कुछ साल पहले तक मैं स्मोक किया करता था। फिर मैंने छोड़ दिया। अब मेरी ये कोशिश रहती है कि मैं फिल्मों-एड में स्मोकिंग और उसके आस-पास की चीजों का प्रचार करने से बचूं। ऐसा ही दूसरे विषयों को लेकर मेरी सोच रहती है। कोशिश करता हूं कि समाज में मेरा योगदान अच्छी चीजों को लेकर रहे। बोतलबंद पानी का विज्ञापन अपवाद हो सकता है।

-तमिल, तेलुगू, हिंदी, मराठी, बंगाली, उड़िया और कन्नड़ सहित ढेर सारी भाषाओं में सहज होकर कैसे काम कर पाते हैं?

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–सच कहूं तो दक्षिण भारतीय भाषाओं में मेरी पकड़ कमजोर है। इसके बावजूद सबसे बड़ी चुनौती यह रहती है कि अभिनय के दौरान हम दर्शकों को उन्हीं की भाषा में बोलते नजर आएं। भाषाई फिल्में करते वक्त मुझे बेहद सतर्क रहना पड़ता है कि डायलॉग में क्या बोला जा रहा है और आस-पास के लोग क्या कह रहे हैं। तालमेल से सब हो जाता है।

-आने वाली फिल्में कौन-कौन सी हैं?

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-‘हैदर’ तो फिलहाल धूम मचा रही है। हिंदी में जल्द ही ‘रहस्य’ और उसके बाद केडी सत्यम की यह फिल्म  ‘बालीवुड डायरी’ रिलीज होगी। अभी तमिल में 4 और तेलुगू में दो फिल्में पूरी हो चुकी है जो इसी माह रिलीज होगी। कन्नड़ में एक फिल्म फ्लोर पर है।

लेखक पत्रकार मोहम्मद जाकिर हुसैन इस्पात नगरी भिलाई में पत्रकारिता कर रहे हैं। उनसे मोबाइल नंबर 09425558442 और ई-मेल [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।

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