रंगनाथ सिंह-
ऐसा लगता है कि ब्रिटेन और अमेरिका ने मिलकर तय कर लिया है कि वो Wikileaks के संस्थापक जूलियन असांज की बलि चढ़ाकर मानेंगे। ये दोनों देश दुनिया भर में लोकतंत्र और ‘बोलने की आजादी’ के सबसे बड़े निर्यातक रहे हैं। इनसे एक बोलने वाला आदमी बर्दाश्त नहीं हो रहा है।
लोकतंत्र बचाने और बोलने की आजादी को बनाए रखने के लिए विभिन्न एनजीओ के माध्यम से पश्चिम ने अरबों रुपये भारत जैसे देशों में बाँटे हैं लेकिन जूलियन असांज और एडवर्ड स्नोडेन का हश्र देखकर लगता नहीं है कि इनको सचमुच इन चीजों की ज्यादा चिन्ता है।
आज एक विश्लेषक का आलेख पढ़ रहा था जिसमें उन्होंने दिखाया था कि पत्रकार खशोगी की हत्या मामले में बाइडन एण्ड कम्पनी ने डोनाल्ड ट्रम्प पर सऊदी अरब के संग गलबहियाँ करने के तीखे आरोप लगाये थे और कहा था कि सत्ता में आते ही पत्रकार की हत्या करने वालों को सबक सिखाया जाएगा। हुआ उल्टा। बाइडन जी ने सत्ता में आते ही यूटर्न ले लिया। सत्ता में आते ही सऊदी को सीने से चिपका लिया।
तीसरी दुनिया के देशों के आन्तरिक संघर्षों की आग में घी डालने वाले बड़े सेठ फिलहाल चुप हैं। कुछ साल पहले किसी ने अमेरिका और ब्रिटेन के अगियाबैताल मीडिया हाउसों की स्नोडन को लेकर अपनायी सायास चुप्पी की अच्छी खबर ली थी।
दुनिया को चलाने वाली अदृश्य सत्ता (डीप स्टेट) के धागे को तलाशना शुरू कीजिए तो सचमुच यथार्थ अलग ही नजर आता है। वैश्विक व्यवस्था बहुत तेजी से बदल रही है। आज दुनिया की शतरंज पर जो मोहरे जहाँ दिख रहे हैं, अगले दो-तीन दशकों में वह वहाँ नहीं होंगे और पूरी बिसात अलग नजर आएगी।
आज ही एक और आलेख पढ़ा जिसमें विश्लेषक ने दावा किया कि चीन किस तरह अमेरिका के बढ़ावे के दम पर आज उसके बराबर आ खड़ा हुआ है और इसकी वजह से अमेरिका इत्यादि के पास क्वालिफाइड लेबर सप्लाई के लिए एकमात्र बाजार भारत बचा है और वो नहीं चाहते कि भारत भी चीन की तरह उनकी बराबरी में खड़ा हो जाए।
अमीर देश, कम अमीर या गरीब देशों को जो अवधारणाएँ बेचते हैं या दान में देते हैं उनपर वो खुद अमल करते नजर नहीं आते। प्रेस की आजादी का इंडेक्स बनाने वाले और उसके लिए बड़े इनाम बाँटने वाले निर्णायक मौकों पर गांधी जी के बन्दर बन जाते हैं।