अभिषेक कांत पाण्डेय भड्डरी
आजादी का मतलब जब तक देश के असहाय, गरीब व हर तबके के लाोगों को उनका हक नहीं मिलेगा तब तक हमारी आजादी अधूरी है। भ्रष्ट राजनीति, सरकारी अस्पतालों की जमीनों पर कहराते मरीज, जर्जर स्कूल की छत की से टपकने वाली बूंदों के नीचे पढ़नेवाले गरीबों के बच्चे, रोजगार की तलाश में महानगरों की खाक छानता हुआ युवा, बाहर काम करनेवाली महिलाओं की सुरक्षा न कर पाने वाले सरकारों के मंत्री का आपत्तिजनक बयान, जातिवाद के आधार पर वोट मांगते नेता, धर्म के नाम पर वोटों का ध्रुवीकरण करने वाले नेता तो वहीं देश के टुकड़े करने की बात करनेवाले देश के गद्दारों से अभी आजादी पाना बाकी है।
15 अगस्त, 1947 को भारत को आजादी मिली। आज हमारा देश 71 साल का हो गया है। हर साल हम यह दिन हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। देश के वीर सपूतों की कुरबानी यादकर हमारी आंखें नम हो जाती हैं। आजादी इतनी आसानी से नहीं मिली, हजारों लोगों के त्याग और बलिदान ने आज हमें इस आजाद हवा में सांस लेने की आजादी दी है। इन 70 सालों में देश ने बहुत तेजी से तरक्की किया है। एक समय था कि सुई जैसी छोटी चीज को भी बाहर से मंगवाना पड़ता था लेकिन समय का चक्र ऐसा घूमा कि भारत ने मंगलयान बनाकर साबित कर दिया कि अगर देश के लोग हर मोर्चे पर एक हो जाए तो, हमारी तरक्की को कोई नहीं रोक सकता है। आज हम आत्मनिर्भर हैं, हर तरह के साजो सामान बनाने की क्षमता रखते हैं। हमने तरक्की की है पर क्या तरक्की का फायदा सभी भारतवासी को मिल पाया है? यह जटिल सवाल आज हर भारतीयों के मन में है।
कहां है हमारा हक
आइये इन सवालों को जाने कि हमने विकास के पायेदान पर कदम तो रखा है, क्या मंजिल पायी है। वहीं इन रास्तों पर आज भी करोडों़ भारतवासी गरीबी से छुटाकारा पाने के लिए रोजी-रोटी के लिए भटक रहें। वहीं सामान्य बीमारियों से लड़ने के लिए सरकारी अस्पताल से निराश होकर प्राइवेट चिकित्सा के चुंगल में फंसकर महंगे इलाज कराने के खर्च के लिए अपनी जमा पूंजी डाॅक्टरों के हवाले कर रहे हैं। मेरा मानना है कि किसी देश की राजनीति ही उस देश के लोगों का भविष्य तय करती है लेकिन जागरूक जनता अपने वोटों का सही तरह से इस्तेमाल करना सीख ले तो राजनीति के चाल चेहरे का बदल सकती है। उन भ्रष्ट नेताओं को सही रास्ता दिखा सकती है जो पद का गलत इस्तेमाल करते हैं। सवाल उठता भारत में ऐसा क्यों नहीं होता है कि हमेशा राजनीति ही क्यों हावी रहती है, जनता के सुख दुख को वोट बैंक की राजनीति से ही क्यों तौला जाता है। इसका सीधा सा जावाब नागरिकों के पास है, नागरिक जाति व धर्म की राजनीति में बंधे, जब वे इससे खुद को बाहर नहीं निकाल सकते हैं तो नेता इसी का फायदा उठाते हैं।
सरकारें आती और चली जाती हैं। मुद्दा हमेशा वहीं रहता है गरीबी, बेरोजगारी, बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य इत्यादि। सत्ता पाने के बाद भी बदलाव के नाम पर केवल राजनीति होती है तब तक फिर अगला चुनाव, फिर वही मुद्दे, तब सवाल उठता है कि राजनैतिक पार्टियों ने सत्ता संभालने के बाद किया क्या? नेहरू से लेकर मोदी तक के युग में बेरोजगारी व गरीबी वही मुद्दा है। आनेवाले समय में भी यही स्थिति रहीे तो इन मुद्दों का मर्म दिखाकर बेरोजगारों और गरीबों को फिर गुमराह कर उनके वोटों को मांगा जाएगा। फिर एक नई सरकार इन्हीं मुद्दों पर खड़ी हो जाएगी। क्या लोकतंत्र की यही परिभाषा है। रेलवे, चिकित्सा शिक्षा, बिजली, जल, सड़क जैसे मुद्दों जस के तस बने हैं।
रेलवे है देश का बैक बोन
रेलवे हमारे देश का बैक बोन है। लाखों गरीब व मध्यमवर्गीय लोगों के लिए रेलवे ही वह साधन है जो उनके सपनों को पंख लगाने के लिए एक शहर से दूसरे शहर का सफर कराता है ताकि वे अपनी रोजी रोटी तलाश बड़े शहरों में कर सके। मुंबई जानेवाली हर ट्रेन में जनरल डिब्बे में भीड़ किसी गांव के आधा किलोमीटर के दायरे मेें लगने वाले मेले से भी अधिक होती है। उत्तर प्रदेश, बिहार के राज्यों के बेरोजगार हर दिन मुंबई में काम की तलाश के लिए पहुंचते हैं। सूरत, लुधियाना, दिल्ली जैसे शहरों का रूख करते हैं। भारतीय रेलवे इन्हें उन शहरों में छोड़ आती है काम की तालाश के लिए। उत्तर प्रदेश व बिहार में हर पांच साल में चुनावी वादे होते हैं, वहां कि सरकारें करोड़ों बेरोजगारों को रोजगार देने की बात अपनी मेन्यूफेस्टों में करती है। लेकिन रोजगार की संभावानओं पर सरकारें कुछ नहीं कर पाती हैं। कारण इन प्रदेशों की सड़क, बिजली और जल वितरण की स्थिति दुरूस्त नहीं हैं। बड़ी-बड़ी कंपनियां यहां पर उत्पादन कार्य नहीं करना चाहती हैं। इन मुद्दों से इतर चुनावी वादों में केवल बेराजगारी दूर करने की बात बेइमानी ही साबित हो रही है।
भारत सरकार रेलवे के लिए बजट देती है लेकिन इसके बाद भी रेलवे के खस्ताहाल के लिए रेल प्रबंधन के साथ रेलवे मंत्री भी जिम्मेदार हैं, जो रेलवे में हो रहे भ्रष्टाचार पर मौन रहते हैं। रेलवे कर्मचारियों की भर्ती से लेकर यात्रियों को सुविधा देने के नाम पर रेलवे में भ्रष्टाचार का बोलबाला है, करोड़ो रूपये की भ्रष्टाचार की कमायी का जरिया है रेलवे। हाल ही में केग की रिपोर्ट में इस बात का खुलासा हुआ कि रेलवे के कैंटीन से बेचा जाने वाला खाना स्वास्थ के लिए हानिकारक है। रेलवे जनता के साथ खिलवाड़ कर रहा है। इस पर लगाम कसना जरूरी है। आजादी के बाद रेलवे ने जिस तरह से तरक्की की, नई तकनीक को अपनाया, रेलवे से सफर करना पहले से अधिक सुविधाजनक हुआ, लेकिन यात्रियों की बढ़ती संख्या आज सबसे बड़ी चुनौती है, जिससे निपटने के लिए रेले मंत्रालय को अपने कर्मचारियों के कार्यप्रणाली व उनकी नियुक्ति से लेकर ठेके देने में सतर्कता बरतनी होगी। रेलवे में भ्रष्टाचार देश की जनता के जीवन के साथ धोखा है।
अच्छी शिक्षा का अधिकार कब
राइट टू एजुकेशन यानी 14 साल तक के बच्चों को कक्षा आठ तक मुफ्त में शिक्षा देने की बात कहता है लेकिन यूपी में ही ऐसे हजारों प्राइवेट प्राइमरी लेवल के स्कूल हैं, जो मान्यता प्राप्त नहीं है। अंग्रेजी माध्यम के नाम से बच्चों को महंगी फीस के बदले खराब शिक्षा दी जा रही है। वहीं सरकारी स्कूल के शिक्षकों हर महीने 40 हजार वेतन भी देकर बच्चों को अच्छी शिक्षा सरकार नहीं दे पा रही है। वास्तव मां बाप अपने बच्चों सरकारी प्राइमरी स्कूल में पढ़ाना ही नहीं चाहते हैं। वहीं कुकुरमुत्ते की तरह खुल गए प्राइवेट स्कूल में पढ़ाना उनकी मजबूरी है। भले नाम का ही राइट टू एजुकेशन एक्ट लागू हो गया हो लेकिन उनके बच्चों का उनका हक नहीं मिल पा रहा है।
आजादी के 70 साल बाद भी गरीब लोगों के बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने में सरकार अभी तरह पूरी तरह से सफल नहीं हो पाई, हां प्राइमरी में अच्छी शिक्षा के नाम पर हर साल वोट जरूर मांगे जाते हैं। यानी वादे वहीं लेकिन जो कभी पूरे होते नहीं। क्योंकि सरकारी स्कूल के प्रबंधन से लेकर शिक्षा तक पढ़ाई के नाम पर खानापूर्ति होती है।
गांव में रहनेवाले बुजुर्ग बताते हैं कि हमारे जमाने में सरकारी स्कूलों में पढ़ाई बहुत अच्छी होती थी लेकिन आज के बारे में पूछने पर कहते हैं कि शिक्षा की नीति वोटबैंक के रूप में बदल गई है, जब शिक्षक की नियुक्ति ही नियमों को ताक पर रखकर होगी तो ऐसे अयोग्य लोग कैसे शिक्षा दे पाएंगे। जाहिर उनका इशारा सुप्रीम कोर्ट से बाहर हुए शिक्षामित्रों से, जिन्हें समय समय पर सपा बसपा और उसके बाद भाजपा सरकार ने वोटबैंक के तौर पर देखा। वहीं सपा सरकार ने अपने शासनकाल में शिक्षामित्रों को सहायक अध्यापक के पद पर नियुक्त नियमों को बदलकर की, जिससे राइट टू एजुकेशन कानून का उल्लंघन हुआ। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने इन्हें बाहर कर ओपेन काॅॅम्पटीशन के माध्यम से नियुक्त करने को सरकार से कहा। जबकि सपा सरकार ने वोटबैंक के लालच में शिक्षामित्रों को कानूनी दायरे के अंदर नियुक्त नहीं किया, जिसका खामियाजा आज सरकारी स्कूल में पढ़नेवाले बच्चे भुगत रहे हैं, 10 साल या उससे अधिक समय में उत्तर प्रदेश में इंटर पास अप्रशिक्षित शिक्षामित्र पढ़ा रहे थे, यानी इन 10 सालों में सरकारों ने सरकारी स्कूल के बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ किया है और अपनी वोट बैंक की प्रयोगशाला चला रहे थे।
यही हाल माध्यमिक शिक्षा बोर्ड का है। यूपी में नकलमाफियाओं बोलबाला है। धड़ल्ले से स्कूल काॅलेज नियमों को ताक में रखकर खुल रहे हैं। राजनैतिक दलों से जुड़े प्रभुत्वशाली लोग नियमों को ताक में रखकर अपने स्कूल काॅलेजों की मान्यता ले ली है। स्कूल काॅलेजों कोय बना लिया है धन कमाने का अड्डा। इन काॅलेजों में पढ़नेवाले छात्रों के अभिभावक फीस के बोझ के तले तबे रहते हंै। गली मुहल्ले में कोचिंग व ट्यूशन पढानेवाले की शरण में जाते हैं। इस लचर सरकारी व्यवस्था के चलते शिक्षा मुफ्त व गुणवत्तावाली न होकर बाजार में बिकनेवाली हो गई है। जिसकी खरीदने की ताकत है वह अपने बच्चों जिले के टाॅप प्राइवेट स्कूल में पढ़ाकर अपने बच्चों का भविष्य उज्ज्वल बना रहा है। ठगे जा रहे है आम जनता जो ईमानदारी से दो रोटी कमाकर किसी तरह अपने बच्चों को शिक्षा दिला रहा है। शिक्षा के स्तर पर अभी आम लोगों को उनको अधूरी आजादी मिली है, अमीरों की शिक्षा और गरीबों की शिक्षा। इस दोहरी शिक्षानीति से हमें आजादी कब मिलेगी?
सबकी जड़ भ्रष्टाचार
भ्रष्टाचार के कीचड़ में नहाने के बाद भी नेताओं व अधिकारियों का कुछ नहीं बिगड़ता। देश को खोखला बनाने वाले व कई जिंदगियों के साथ खिलवाड़ करनेवाले को कड़ी सजा नहीं मिलती है। कुछ साल की सजा के बाद भ्रष्ट कमाई से ऐश की जिंदगी जीते हैं। भ्रष्टाचार करने के बावजूद जो कानूनी दांव पेच के कारण आसानी से बच जाते हैं, वे सम्मान से जीवन जीते हैं। भ्रष्टाचार कुसंस्कृति की तरह जन्म ले रहा है। सरकार भ्रष्टमुक्त शासन की बात करती है और सत्ता सुख भोगने के लिए उनके मंत्री, नाते रिश्तेदार संसाधनों का बंदर बांट करते है। इन सब में साथ देते प्रशासन के अधिकारी। अधिकरियों का हिस्सा तय रहता है।
पुलिस महकमा हो या स्वास्थ्य विभाग नियुक्ति से टेंडर तक के पैसों में सभी का हिस्सा होता है। कचहरी में कोई सर्टिफिकेट बनवाने के लिए जाए तो सरकारी फीस से अधिक आपको पैसा खर्च करना पड़ेगा, वहां बैठे दलाल सीधे आपका काम बाबू व अधिकारी से मिलकर करा देगा।
यातायात विभाग में ड्राइविंग लासेंस आसानी से बनता है, अधिकारी ये भी नहीं देखेंगे कि वाहन चलाना आता है कि नहीं। यातायात नियमों की जानकारी है कि नहीं। इस नाम पर होने वाली परीक्षा में पैसे के बल पर पास कर दिया जाता है। जो सरकारी शुल्क अदा करके ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने जाता है तो उसे ट्रक की पहिये की तरह घूमाया जाता है ताकि वह परेशान होकर जेब से पैसे निकालकर दलाल को दे दे। दलाल ऊपर तक हिस्सा पहुंचा देता है, तब आसानी से लाइसेंस तैयार हो जाता है। कोर्ट कचहरी, नगर निगम, स्वास्थ्य विभाग, पुलिस विभाग इन सभी जगहो पर कामाने का इसी तरीका दलालों के माध्यम से होता है। पुलिस की ड्यूटी कमाऊ जगह पर लगाने के लिए दलाल के जरिये अधिकारियों तक पैसा पहुंचता है, ये बात किसी से छिपी नहीं है। जमीन माफिया, पानी माफिया, शिक्षा माफिया, बालू माफिया इन सभी पर लगाम लगाने के लिए भ्रष्टाचार की लड़ाई के लिए सरकारों को ईमानदार बनना होगा। क्या भ्रष्टाचार से हमें आजादी मिल पायेगी? आखिर हमें पूरी आजादी कब मिलेगी?
अभिषेक कांत पाण्डेय भड्डरी
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