मधुलिका चौधरी-
कल से लखनऊ यूनिवर्सिटी के आंदोलन की एक बच्ची की फोटो फेसबुक पर घूम रही है, मेरी हिम्मत नही है कि मै फोटो लगाकर अपनी बात कहूँ.
उसे देखकर दिमाग जैसे सुन्न सा हो गया है.
22 साल की उम्र में ही जॉब में आ जाने के बाद एक सीनियर टीचर जो मेरे ताऊ जी की उम्र और वैसी ही कद काठी के थे तो वे मुझे ताऊ जैसे ही लगते थे. कई घटिया तरीकों से बातचीत के बावजूद जब मै उनकी कुत्सित मानसिकता नही समझ पाई तो उन्होंने सीधे ही मेरी ओर हाथ बढ़ाकर मुझे छूने की कोशिश की.. मैं छोटी थी और शारीरिक रूप से ज्यादा मजबूत कभी नही रही.ख़ैर..शब्दों से जितने प्रहार हो सकते थे, मैंने किए लेकिन घर आकर मैं फूट फूट कर रोई,वह मुझे हाथ नही लगा पाया था फिर भी मुझे लगता रहा कि कुछ गन्दा से है जो मेरे बदन से छूट नही रहा, बहुत देर तक मल मल के नहाती रही और रोती रही.
उसी वक्त उनको तमाचा न जड़ देने का अपराधबोध आज भी सालता है.
उस बच्ची के बारे में तो सोच ही नही पा रही, मैं उस हरामजादे पुलिसवाले के चेहरे के कुत्सित भाव देख पा रही हूँ..नही..वह ड्यूटी नही कर रहा था.
इस देश मे प्रचलित सर्वमान्य तरीके से वह एक मादा को उसकी औकात बताने की कोशिश कर रहा था. इसके बाद ये अपनी बेटी को गोद मे कैसे उठाता होगा..पढ़ने वाली लड़कियों का खुलेआम बलात्कार करने वाले अपनी बच्ची को स्कूल भेजने की हिम्मत कैसे जुटाते होंगे..
मैं बस उस बच्ची को गले से लगाकर उसे समझाना चाहती हूँ कि उसकी कोई गलती नही है.17 साल पहले मेरी भी कोई गलती नही थी..मैं 17 साल से खुद को यही समझा रही हूँ..
और ये पुलिसकर्मी…मैं चाहती हूँ कि ये जब घर जाए तो इसके घर की औरतें इसके मुँह पर थूक दें.
(इस तस्वीर को देखकर ही मुझे रुलाई आ रही..मैं चाहती हूँ उस बच्ची को हिम्मत मिले.. वह इस हादसे से जल्द बाहर आ सके.)