पंकज मिश्रा-
वो आंदोलन करने कमरा लेकर नही रह रहे थे | वो तैयारी करने गए थे , अपने अच्छे दिनों के लिये जो आप नही दे सके | जो बरसों बरस तैयारी करते बच्चो का दुःख नही समझ सकता उससे ज्यादा क्रूर कोई नही हो सकता | इन्हें कभी इस बात के लिए मत कोसिये कि यह किसे वोट देते थे या कैसे व्हट्सएप फॉरवर्ड करते थे | इस महाझूठ की सुनामी से बिरले ही बच पाएं है | यह भी उंस हवा में उड़ गए तो क्या हुआ …. बचे तो आपके बाप चचा और ताऊ भी नही , आपकी मम्मी और मामी भी नही ….
लेकिन एक सच तो है कि बाप से पैसा मंगवाने से पहले ये सौ बार सोचते है | किसी परीक्षा का pre या mains नही निकलता तो यह उसी तरह दुखी होते है कि जैसे कोई घर मे मर गया हो .. ये हीटर पर जब दाल में दो आलू उबाल कर दाल भात चोखा बना कर खाते है तो इन्हें भी मां के हाथ में खाने की खूब याद आती होगी |
एक सिनेमा देख लेते है तो भीतर साथ ही एक गिल्ट में भी जीने लगते है कि अब आगे कहाँ कटौती करनी है |एक प्रिंट आउट का पैसा छाती पर बोझ की तरह लगता है | यह जेब से जब रुपया मीस कर निकालने के बाद बन मक्खन खाते है तो कमरे पर जाकर फिर से गिनते है कि कितना बचा | मकान मालिक से आंखें चुराते , मां बाप , गांव जंवार के लोगो से आंखें चुरास्ते ये बडी मजबूरी में सर उठाते है …..
और जब सर उठा के नौकरी के लिए आवाज़ उठाते है तो उस आवाज़ के साथ इस कथित लोकतंत्र में कैसा सुलूक होता है ये पटना से प्रयागराज तक की सड़कों हॉस्टल की दीवारों पर छपा हुआ है | दीवार पर लिखी इबारतों को पढिये , ये झूठ नही बोलती , ये सच दिखाती है | इस मुल्क को सच का सामना करना आज नही तो कल सीखना ही होगा | यह जितनी जल्दी हो जाये उतना अच्छा है |