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भास्कर समूह के खिलाफ आयकर छापे पर पत्रकार बिरादरी दो खेमे में!

अनिल भास्कर-

भास्कर समूह के खिलाफ आयकर छापे पर भी पत्रकार बिरादरी दो खेमे में नज़र आ रही है। कम से कम सोशल मीडिया पर उनकी पोस्ट्स से तो ऐसा ही झलक रहा। एक धड़ा दावा कर रहा कि यह कोरोना से लेकर पेगासस तक सरकार के खिलाफ खबरें छापने की सजा है, तो दूसरा सैद्धांतिक तर्कों के साथ यह नसीहत दे रहा कि पत्रकारिता और आर्थिक अपराध दो अलग मुद्दे हैं। लिहाज़ा इसे जोड़कर देखना औचित्यहीन है। और अगर अखबार समूह ने कोई गड़बड़ी नहीं की है तो फिर ऐसी कार्रवाई से डरना क्यों? वे इस कार्रवाई को समूह के रियल एस्टेट कारोबार से जोड़कर देखने की सलाह दे रहे हैं।

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अब भास्कर समूह के खिलाफ छापे का सच क्या है, यह तो जांच के नतीजे ही तय करेंगे, लेकिन समूह ने इसके लिए सरकार के पूर्वाग्रह को जिम्मेदार ठहराते हुए अपनी दलीलों के साथ विभिन्न मुद्दों से जुड़ी खबरों के प्रस्तुतिकरण में आक्रामकता और जनपक्षधरता के सबूतों वाली जो कटिंग्स नत्थी की है, वे वाकई काबिले-तारीफ हैं। वे इस धरणा को बल देती हैं कि यह कार्रवाई वाकई बदले की नीयत से की जा रही है। कार्रवाई का समय भी महज संजोग की बजाय सुनियोजित कदम की तरफ साफ तौर पर इशारे कर रहा है।

यह सही है कि तमाम मीडिया घरानों ने हाल के दशकों में पत्रकारिता से इतर कई धंधों में हाथ आजमाना शुरू कर दिया है। इस बदलाव ने उनकी साख पर सवाल भी खड़े किए हैं। उनमें सरकारी फायदे जुटाने की होड़ सी लगी है। चुनाव में सकारात्मक भूमिका के लिए सम्मानित होने वाले अखबार चुनावी विज्ञापन के लिए क्या क्या हथकंडे नहीं अपनाते? वे खुद प्रत्याशियों को बताते फिरते हैं कि कैसे आप चुनाव आयोग की शर्तों को धता बताकर बड़े बड़े विज्ञापन छपवा सकते हैं। सरकारी और राजनीतिक विज्ञापनों के लिए खुलेआम सम्पादकीय सहयोगियों की जिम्मेदारी तय की जा रही है।

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एक बड़े मीडिया घराने ने तो कई राज्यों में अपनी इकाइयां या तो विवादित जमीन पर खड़ी कर रखी हैं या सरकारी संपत्ति पर। इन सबके विपरीत जब बात कर्मचारियों के कल्याण की आती है तो यही घराने सरकार के बनाये वेतन आयोग की सिफारिशों को मुंह चिढ़ाते हैं। ये मीडिया संस्थान खुद को कायदे-कानून से ऊपर समझने की ऐसी बदगुमानी पाले बैठे हैं जिसकी कोई हद नहीं। वे भूल रहे कि ऐसी बदगुमानियाँ चिरस्थायी नहीं हो सकती। शासन-प्रशासन उन्हीं के बताए आदर्श पर चल पड़े तो सबसे पहले उन्हीं की शामत आ सकती है।

पर फिलहाल बड़ा सवाल यह कि क्या इस क्रांतिक घड़ी में तमाम मीडिया घरानों को एकजुटता नहीं दिखानी चाहिए? व्यावसायिक प्रतिद्वंद्विता को किनारे रखकर उन्हें साझा आवाज़ बुलंद नहीं करनी चाहिए? और अगर वे ऐसा नहीं करते तो क्या इससे यह पुष्ट नहीं होगा कि वे सभी अपने व्यावसायिक हितों की चिंता में निष्पक्ष, निर्भीक और जनपक्षधर पत्रकारिता के सिद्धातों से डिगे हुए हैं? क्या उनकी यह बेपरवाही भास्कर समूह के दावों, उसकी दलीलों को कमजोर नहीं करेगी? उन्हें यह समझना ही होगा कि अगर वे आज चुप रहे तो देर-सबेर इसकी बड़ी कीमत पूरी मीडिया इंडस्ट्री को चुकानी पड़ सकती है। पत्रकार और प्रकाशन संगठनों को भी सामने आना चाहिए ताकि सच को जिंदा रखने की कोशिश जिंदा रहे।

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1 Comment

1 Comment

  1. rajesh

    July 23, 2021 at 12:14 pm

    bhaskar wale anek business kar rahe hein.income tax walo ke pas kuch hoga tbhi to red dali hei.coal mamle bhi bhaskar ka nam aaya tha.yeh media per atteck keise ho sakta hei.patrkaro ko dihadi majdoro ki tarah nikal dete hei tb kyo nahin kahte ki media per hamla hei.attendence register badal diye jate hei.news paper mein kae karne wale ko pata hi nahin hota ki wo newspaper mein hei ya tel ki ghani mein karamchari hei.lalchi log hein.

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