
बिहार का कोई न्यू जेनरेशन पत्रकार अगर चाहें कि राजधानी पटना की मीडिया में नौकरी करके EMI पर चप्पल खरीद लें, तो पता चले कि EMI वाले क़िस्त ना चुका पाने के कारण चप्पल के साथ-साथ घर में पड़े जूते भी ले गए…
अब खबर विस्तार से….बॉलीवुड अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत के सुसाइड के बहाने डिप्रेशन और भाई-भतीजावाद पर जमकर चर्चा हो रही है। दिवगंत सुशांत सिंह राजपूत बिहार से थे, एक यह भी बड़ा कारण है कि बिहार के लोगों की संवेदनाएं उनके प्रति अत्यधिक उमड़ी है। स्वाभाविक है… जो हुआ, अच्छा नहीं हुआ।
लेकिन, इसे स्वीकार करते हुए इसी कड़ी में बिहार के उन न्यू जेनरेशन युवा पत्रकारों के बारे में भी सच्चाई सामने लाने की आवश्यकता है, जिनका मानसिक, शारीरिक हर तरह का शोषण यहां हो रहा है और शायद यह उचित समय भी है। क्योंकि पटना के मीडिया हाउस में शोषण के शिकार सैकड़ों ‘सुशांत’ मीडिया की मजदूरी कर रहे हैं। इनका डिप्रेशन लेवल शायद सुशांत से थोड़ा कम है, यही वजह है कि किसी ने खुद को अभी तक फंदे से लटकाया नहीं है।
बिहार की राजधानी पटना में गिने चुने मीडिया हाउस हैं, बमुश्किल 25-30 ऐसे डिजिटल मीडिया हाउस हैं जो टीम वर्क कर रहे हैं। जिनके पास ऑफिस है 15-20 एम्प्लॉय का स्ट्रेंथ है। इनमें न्यूज़ 18 बिहार, ज़ी बिहार झारखंड को छोड़कर शायद ही कोई ऐसा मीडिया संस्थान हो, जिनमें भविष्य का ‘सुशांत’ काम ना कर रहा हो।
बिहार के मीडिया हाउस की सच्चाई यही है कि यहां भविष्य का ‘सुशांत’ शांत होकर मजबूरन महीने की 15 से 20 तारीख का इंतज़ार करता है ताकि पिछले महीने की सैलरी उसे अगले महीने की तीसरे सप्ताह यानी 20 तारीख आते-आते मेहरबानी करके मिल जाए। कोरोना के समय में ड्यूटी के बावजूद कोरोना क्राइसिस के बहाने 10% से 20% और 30% सैलरी कटवाने के बाद अपनी बची खुची सैलरी से वह मकान भाड़ा, बिजली बिल, पानी बिल, दुकानदार की उधारी, वाई फाई का रिचार्ज, मोबाइल का रिचार्ज, गाड़ी का पेट्रोल इत्यादि की कीमत चुकाता है। इतना कुछ करने के बाद जब तक वह सुकून महसूस करने की सोचता ही है कि महीना खत्म हो जाता है और अगले महीने की एक तारीख को फिर मकान मालिक गेट के बाहर खड़ा मिल जाता है। यह एक अलग लेवल का डिप्रेशन हैं जहां कहने के लिए नौकरी भी है, वो भी मीडिया की नौकरी। वाबजूद उसे महीने के शुरुआती 30 दिन में 1 से 20 तारीख तक मकान मालिक का किचकिच, मकान खाली करने की धमकी, दुकानदार का एहसान लेना पड़ता है।
यह कुछ भी नहीं है… सिर्फ इतना सोचिए कि कोई 15 हज़ार की नौकरी कर रहा है और उसे 3 महीने से सैलरी नहीं मिली है। वाबजूद वह ऑफिस में 9 घन्टे की ड्यूटी करने पर मजबूर है… क्योंकि वह नौकरी छोड़ेगा तो कुछ नहीं मिलने वाला है। इसी उम्मीद में वह ड्यूटी कर रहा है… ऐसे में उसकी हालत क्या होगी ? वह ऐसे चक्रव्यूह में फंसा है कि अपने मीडिया हाउस से लड़ झगड़ के नई जगह नौकरी पकड़ ले तो उसकी पिछले 3 महीने की होल्ड की हुई सैलरी रोक दी जाएगी जो कि वैसे भी नहीं मिलने वाली है। लेकिन इसी लोभ में वह 5 से 6 महीने तक बिता रहा है और मजे मार रहे हैं मीडिया हाउस। जो काम करवाकर मीडियाकर्मियों को इतना प्रताड़ित करते हैं कि सामने वाला खुद 2-4 महीने की सैलरी छोड़कर निकल ले। यह प्रॉफिट मेकिंग ट्रिक है पटना की मीडिया का, जहां एक ही लक्ष्य है… काम करवा लो फिर इतना प्रताड़ित करो कि वह खुद बॉस को गाली देने लगे। बाद में उस पर अभद्रता, हंगामा का चार्ज लगाकर उसकी सैलरी होल्ड कर दी जाय और सारे पैसे बचा लिए जाय।
डिप्रेशन इतना ही नहीं है। डिप्रेशन का नेक्स्ट लेवल यह है कि अगर कोई न्यू जेनरेशन पटना ब्रांड पत्रकार यह चाहे कि पटना की मीडिया में नौकरी करके EMI पर चप्पल खरीद लें, तो पता चले कि EMI वाले क़िस्त ना चुका पाने की स्थिति में चप्पल के साथ-साथ घर में पड़े जूते भी ले गए। क्योंकि पटना के मीडिया हाउस के महीने की शुरुआत 11 तारीख से होती है जहां आपको 20 तक सैलरी मिलनी है।
यहां तक कि आप यह सोचें कि किसी मीडिया संस्थान में महीने की अंतिम 30 तारीख तक काम करते हुए सैलरी लेकर 1 तारीख से दूसरे मीडिया संस्थान में काम कर लें, तो यह कतई सम्भव नहीं है। पहली बात आपको कभी भी 15 तारीख से पहले सैलरी मिलनी नहीं है, अगर 15 से लेकर 20 तक सैलरी मिली और आप यह नौकरी छोड़कर दूसरे जगह जॉइन कर लें तो वैसे भी 15 से 20 दिन जहां आप पहले काम कर रहे थे, वहां उतने दिन का पैसा आपको नहीं दिया जाएगा। जवाब तलब करने पर कहा जायेगा कि आप नोटिस नहीं दिए थे, इसीलिए 15-20 दिन का सैलरी नहीं मिलेगा। दूसरी बात अगर आप ईमानदारी दिखाएं और नोटिस देकर जाएंगे तो आपको एक महीने (30 दिन) नोटिस पीरियड में काम करवाने के बाद यह कहा जायेगा कि आपनें इस्तीफा दिया है, आपका फ़ाइल सेटलमेंट में डेढ़ महीने का वक्त लगेगा। उपरांत आपको सूचित कर दिया जाएगा, आप घर जा सकते हैं। भले वह कंपनी डेढ़ महीने बाद अपने पुराने पते पर मिले ना मिले, लेकिन आपको जवाब ठीक यही मिलेगा।
अब आप अपने पुराने संस्थान से 30 दिन काम करने के बाद बिना सैलरी लिए अगले कंपनी में जॉइन करते हैं, लेकिन जहां आप नई जगह जॉइन करते हैं वहां भी महीने की 15 तारीख के बाद ही सैलरी मिलनी है। ऐसे में आप जहां काम शुरू किए हैं वहां 1 तारीख से जॉइन करने के बाद अगले महीने के 15 तारीख यानी अगले 45 दिन काम करने के बाद आपके हाथों में पैसा आएगा। जबकि आप पहले ही 30 दिन निल बट्टे सन्नाटा होकर पिछली कंपनी में नोटिस पीरियड में काम करके लौटे हैं, यानी 75 दिन बाद आपको अगली सैलरी मिलेगी। ये 75 दिन वाली परिस्थिति 20 से 30 साल के पटना ब्रांड पत्रकारों के जीवन में एक साल में कम से कम एक बार और अधिकतम 2-3 बार आनी ही है। जिसका मुख्य वजह है कि पटना के डिजिटल मीडिया हाउस में 18 से 30 साल तक के 95 फीसदी मीडियाकर्मियों की सैलरी न्यूनतम 2 हज़ार है और अधिकतम 20 हज़ार है। और बदले में इनसे एंकरिंग, रिपोर्टिंग, स्क्रिप्टिंग, वॉइस ओवर यानी झाड़ू, पोछा और कैमरा चलाना छोड़के सब कुछ में निपुणता की उम्मीद के साथ काम लेने को कोशिश की जाती है। इन सबके परे आप डटकर क्यों ना पटना के किसी संस्थान में काम करें इंक्रीमेंट होना पटना के डिजिटल संस्थान के संविधान में नहीं हैं। पटना के न्यू जेनरेशन मीडियाकर्मी का सैलरी इंक्रीमेंट तभी होता है जब आप जॉब स्विच करते हैं। और आप सैलरी लेने के बाद यानी 15 से 20 तारीख के बाद ही जॉब स्विच करेंगे ऐसे में या तो आपका 15 से 20 दिन की मेहनत के बदले मिलने वाली वेतन बर्बाद होगी या 30 दिन नोटिस पीरियड की सैलरी बर्बाद होनी है।
अगर एक साल में अगर एक बार भी कोई मध्यम वर्गीय मीडियाकर्मी उपरोक्त सिचुएशन को झेल ले तो उसका पूरा साल का बजट असंतुलित हो जाएगा। कर्ज में डूबेगा अलग… अगर इन हालातों को झेलने के बाद कोई सुशांत बन जाये तो फिर सभी कहेंगे वह कायर था, हार गया।
अरे मित्रों हालात यहां पर ऐसे ही हैं, खबर तो यह भी है कि पटना के कई डिजिटल चैनल वालों ने आगामी विधानसभा चुनाव को देखेते हुए न्यू जेनरेशन मीडियाकर्मियों के शोषण का नया प्लान बनाया है और बैठक करके आपस में निर्णय लिया है कि मेरे यहां काम करने वाला कोई मीडियाकर्मी अपने मन से नौकरी छोड़ दूसरे डिजिटल चैनल में जाएगा तो उसे नौकरी भी नहीं दी जाएगी, भले वह अपने पुराने संस्थान में शोषण का शिकार हो रहा हो. खैर यह इतना आसान नहीं है और संभव भी नहीं है, फिर भी इन मठाधीशों की सोच को समझने की आवश्यकता है। इसके परे बिहार की राजधानी पटना के अधिकांश मीडिया हाउस की वास्तविक औकात और सच्चाई यही है कि न्यू जेनरेशन युवा पत्रकार अगर दुर्घटना में भी मर जाएं तो उसका वाजिब बकाया सैलरी भुगतान करने के लिए मीडिया संस्थान उस पत्रकार के जिंदा होने की डिमांड करेगा, तभी बकाया भुगतान करेगा।
सुशांत सिंह राजपूत की सुसाइड के बाद डिप्रेशन को लेकर ज्ञान बांटना जायज है, लेकिन दिए तले अंधेरा वाली बात पटना के मीडिया के कथित मठाधीशों द्वारा पटना में चरितार्थ की जा रही है, इस पर भी विचार करना जरूरी है। अगर हालिया घटनाओं को देखते हुए अब भी हालात नहीं बदले तो वह दिन दूर नहीं, जब यह खबर पढ़ने के लिए मिले कि राजधानी पटना के फलां मीडिया हाउस में चाकरी कर रहा/प्लास्टिक पीट रहा शांत युवा पत्रकार ‘सुशांत’ बन गया और साथ में सुसाइड लेटर छोड़ गया है, जिसमें मीडिया संस्थान के सीईओ/एडिटर/एचआर को मुख्य आरोपी बनाया गया है। साथ में पुलिस को कमरे से बरामद पेन ड्राइव में जोइनिंग लेटर, संस्थान के वेबसाइट का URL, यूट्यूब चैनल का लिंक, व्हाट्सएप ग्रुप का स्क्रीनशॉट, एचआर का कीच कीच वाले ऑडियो मिले हैं।
नोट – उपरोक्त बातें पटना के अधिकांश डिजिटल मीडिया हाउस की सच्चाई और भविष्य है। व्यक्तिगत रूप से यह मेरी कहानी नहीं है, बल्कि यह राजधानी पटना के उन तमाम युवा मीडियाकर्मियों की संघर्ष की कहानी है, जिसे या तो वो जी चुके हैं या वो इस संघर्ष को अभी भी जी रहे हैं। बांकी जो मीडिया के कथित गिने चुने मठाधीश हैं वो पटना के न्यू जेनरेशन युवा मीडियाकर्मियों को ‘सुशांत’ बनाने का कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं, लेकिन हर ‘सुशांत’ हालात से हारकर ‘शांत’ ही हो जाए यह जरूरी नहीं है, कोई ‘सुशांत’ हालात से लड़ने का जज्बा ले दूसरे को ‘अशांत’ भी कर सकता है। आज ना कल वक्त इनका भी हिसाब करेगा… तरीके से।
लेखक Bj Bikash युवा पत्रकार हैं और आजकल पटना में पत्रकारिता कर रहे हैं.