केपी सिंह-
एक समय था जब राजनीति के लिये दो एम महापाप घोषित किये जा रहे थे- मनी और मसल्स। रचनात्मक राजनीति के उस दौर में धनबल और बाहुबल की छाया से राजनीति को मुक्त करने की जबरदस्त कशिश दिखाई जाती थी। एक समय था जब कांग्रेस को इन बुराइयों की जड़ समझा जाता था। डा. लोहिया और जय प्रकाश जी ने यह मान्यता स्थापित की कि कांग्रेस को सत्ता से दूर करने के बाद ही राजनीति इन बुराइयों के प्रभाव से मुक्त होकर शुचितामय बन सकेगी। लेकिन यह स्वप्न देखने वाले नौजवान जब खुद सत्ता में पहुंचे तो उन्होंने राजनीति को पापमुक्त करने का संकल्प भुला दिया। फिर चाहे बात पहली बार असम में बनी छात्रों की सरकार की हो या जयप्रकाश जी की ख्याति पर चढ़कर सत्ता में पहुंची जनता पार्टी के नौजवानों की।
जार्ज फर्नाडीज जब पहली बार केन्द्र में उद्योगमंत्री बने थे तो एक संघर्षशील राजनीतिक योद्धा के रूप में उनकी छवि कितनी मोहक थी। लेकिन वे काजल की कोठरी से साफ सुथरे नहीं निकल पाये। उन पर पहली बार में ही केरल के रबड़ उद्योगपतियों से 15 करोड़ रूपये की रिश्वत लेने का आरोप लगा था। फिर भी दरिद्रता का पुट लिये अपने पहनावे उड़ावे और रूप विन्यास से वे आरोपों की गर्द से अपने व्यक्तित्व को काफी हद तक सुरक्षित रहने में सफल रहे। यहां तक कि रक्षामंत्री रहते हुये किस तरह उनके सरकारी बंगले पर ही उनकी सबसे अंतरंग मित्र जया जेटली दलाली की रकम तय करतीं थीं भारत के पहले कोबरा डाॅट काॅम के स्टिंग आॅपरेशन में यह बात खुल जाने के बावजूद मीडिया की आसक्ति चन्द्रशेखर की तरह ही उनके प्रति भी इतनी अधिक थी कि उनकी बहुत छीछालेदर नहीं हो पायी।
इस बीच नरसिंहाराव सरकार द्वारा आर्थिक उदारीकरण के दौर का प्रवर्तन किया जा चुका था जिसमें नैतिकता के मायने बदल गये थे। बाजार के विकास को एक अनिवार्य नैतिक कर्तव्य के रूप में सरकारों के मत्थे मढ़ा जाने लगा था जिसके लिये परंपरागत नैतिकता के हर मूल्य की बलि मंजूर थी। जीवन स्तर बढ़ाने के नाम पर हर व्यक्ति के लिये उपभोग को प्रोत्साहन देने की सर्वमान्य हो चुकी नीति के अंधड़ में सादगी और ईमानदारी का जीवन आप्रासंगिक होकर बेगाना बनकर रह जाने वाला था। इसी दौर के कारण नरसिंहाराव ने अपनी अल्पमत सरकार को पूरे कार्यकाल तक कैसे चलाया इसके पीछे न कोई चमत्कार था न रहस्य। जो रहस्य था वह सभी जानते है और जो लोग न जानते रहे होंगे वे अजीत सिंह, झारखंड मुक्ति मोर्चा से जुड़े सांसदों आदी के पैसे लेकर संसद में वोट देने के सुप्रीम कोर्ट में चले मुकदमे से जान चुके थे।
सुप्रीम कोर्ट भी तब तक नये जमाने की नयी हवा की सांस की सुखानुभूति में मग्न हो चुकी थी जिसकी वजह से उक्त मुकदमे को उसने तकनीकि आधार पर रफा दफा कर दिया। कहा कि सदन के अंदर का सदस्य या सदस्यों का कृत्य सुप्रीम कोर्ट में प्रश्नगत नहीं किया जा सकता। फिर तो अल्पसंख्यक सरकारों के लिये यह ईजाद पैटर्न बन गयी। मुलायम सिंह यादव जैसे सौदेबाज राजनीतिज्ञों की इस दौर में खूब बन निकली। ऐसे राजनीतिज्ञ खूब सम्पन्न भी हुये और खूब समादृत भी। क्षेत्रीय क्षत्रपों की राजनीति के राष्ट्रीय स्तर तक पनपने के पीछे यही प्रवृत्तियां जिम्मेदार रहीं। लेकिन ऐसा नहीं है कि इस बीच में राजनीति को शुचितापूर्ण बनाने का स्वप्न देखने की आदत भले राजनीतिज्ञों में बंद हो गयी हो। भारतीय जनता पार्टी के अटल युग में एक ओर जहां युग धर्म के चलते प्रमोद महाजन जैसे लोग शिखर तक पहंुच गये तो दूसरी ओर पार्टी विद ए डिफरेंस के नारे के प्रति भाजपा नेतृत्व की ललक भी तीव्रता से दिखती रही।
वीपी सिंह ने तो अपने प्रधानमंत्री कार्यकाल से लेकर बाद तक जिस मोर्चे को उन्होंने आशीर्वाद दिया उसके माध्यम से राजनीति में बाहुबल के अलावा धनबल के वर्चस्व को खत्म करने की मुहिम छेड रखी। उन्होंने चुनाव लड़ने के लिये सरकारी कोष बनाने और उसके माध्यम से राजनीतिक दलों को सहायता देने का कानून बनाने की भी आवाज उठायी जिसे सैद्धांतिक तौर पर प्रचुर समर्थन मिला था। लोग अदालतों में भी इन प्रभावों के विरूद्ध मुहिम छेड़े रहे। अदालतों ने भी ऐेसे याचिका कर्ताओं की समय समय पर हौंसला आफजाही की जिसके चलते चुनावों में उम्मीदवारों के लिये अपने क्रिमिनल रिकाॅर्ड व आर्थिक हैसियत की जानकारी देना अनिवार्य किया गया जिसका सार्वजनिक प्रकाशन भी कराया जा रहा है। इसके अलावा दो वर्ष या इससे अधिक की सजा होने पर चुनाव निरस्त किये जाने और चुनाव लड़ने के अधिकार से वंचित किये जाने के प्रावधान भी सामने आये। पर धनबल के प्रभाव को घटाने की दिशा में बहुत काम नहीं हो सका।
इन कुरीतियों का दलदल बहुत बढ़ जाने की ही परिणति 2014 में कीचड़ से कमल खिल जाने के रूप में सामने आयी क्योंकि तब भाजपा ने अपनी नैया का खेवनहार नरेन्द्र मोदी को घोषित किया था जो देश के लिये नया चेहरा थे। उनकी सादगी से रहने वाले त्यागी और कर्मठ नेता की बहुत ही मुतास्सिर करने वाली छवि लोगों के सामने प्रस्तुत की गयी। जिसमें एक जबरदस्त योद्धा का तड़का भी डाला गया था ऐसा योद्धा जो बहादुरी के साथ काले धन का साम्राज्य खड़े करने वालों को ललकार रहा हो, जो विदेशों में अवैध रूप से जमा धन को तिजोड़ी तोड़कर लाने की हुंकार भर रहा हो, जो भ्रष्ट तत्वों को खदेड़ खदेड़ कर घसीटता हुआ सीखचों के अंदर कर देने की दिलेरी रखता है। इस छवि के कारण लोगों ने उन्हें मसीहा के रूप में हाथों हाथ लिया।
शुरू में उनकी दिशा भी उनसे सदभावना रखने वाले बुद्धिमान लोगों की अपेक्षा के अनुरूप थी। वे अराजकता का कोई बटवारा नहीं करते थे और किसी भी पक्ष की अराजकता उन्हें चुभ जाती थी। इसीलिये क्षोभ में उनके मुंह से निकल गया था कि गोभक्ति के नाम पर उपद्रव करने वाले गोसेवक नहीं गुंडे हैं। अपनी ही सांसद के गांधी के लिये अपशब्दों पर वे भड़क गये थे।
संसद के अंदर अपने भाषण में उन्होंने बहुत बड़प्पन के साथ कहा था कि जितने भी प्रधानमंत्री आजाद भारत में हुये हैं सबने अपने अपने मन से देश की बेहतरी के लिये प्रयास किया। यह दूसरी बात है कि कुछ इसमें बहुत सफल हुये और कुछ के प्रयासों का सुफल उल्टा निकला। तब उन्हें अपनी गरिमा का एहसास था इसलिये किसी के प्रति कटू नहीं होते थे। देश के सर्वमान्य महापुरूषों का जिनमें से कुछ के साथ भले ही उनकी असहमति भी हो तो उनका निरादर गवारा नहीं करते थे।
उस समय पार्टी को सदस्य संख्या बढ़ाकर शक्तिशाली करने का इरादा वे ठाने हुये थे। इसलिये भाजपा को उनके निर्देशन में अध्यक्ष के रूप में कार्य करते हुये अमित शाह दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बना सके थे। उम्मीद थी कि इसके बाद भाजपा पैसे से चुनाव जीतने के लिये मजबूर नहीं रहेगी। सादगी से सदस्य संख्या के बल पर चुनाव जीतने का नया प्रतिमान स्थापित किया जायेगा। अपनी लोकप्रियता और अपने एजेंडे के प्रति जन समर्थन बढ़ाकर वे सर्वत्र भाजपा का परचम लहराकर दिखायेंगे। लेकिन आज राजनीति के जिस महापाप की चर्चा हमने ऊपर की है जो मनी पावर है भाजपा उसके बिना एक इंच भी आगे बढ़ने में मुश्किल महसूस होने लगा है।
ऐसा लगने लगा है कि उसे न मोदी के चेहरे पर बहुत भरोसा रह गया है और न अपने सदस्य बल पर। हर चुनाव में उम्मीदवार को चुनाव में दी जाने वाली सहायता राशि वह बढ़ाती जा रही है। अगला चुनाव जो उसके लिये वाटर लू कहा जा रहा है में तो प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र के लिये वह कितने रूपये की व्यवस्था करेगी यह अनुमान से परे हो सकता है।
उम्मीदवार को मंहगे चुनाव प्रचार से लेकर उपहार और नगदी बांटने तक में बहुत सक्षम बनाने का उसका इरादा है। इतने बड़े खर्च के लिये संसाधनों की व्यवस्था करना वह भी दो नंबर में करना क्योंकि नंबर एक में तो चुनाव खर्च की सीमा तय है बिना हेरफेर के कैसे संभव है। ऐसे में कालेधन को बाहर निकालने और भ्रष्ट तत्वों को सीखचों के अंदर डालने का दम भरने से बड़ा फरेब कोई नहीं हो सकता। उस पर राज्यों में प्रतिपक्षी सरकारों को उखाड़ फेंकने के लिये विधायकों की खरीद फरोख्त को भी उसने अनिवार्य कर्तव्य जैसा बना लिया है। इस तरह भाजपा पार्टी बल में दुनिया का सबसे बड़ा दल होने के साथ साथ खर्चीली राजनीति में भी दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बन गयी हो तो आश्चर्य नहीं है। इसलिये हर स्तर पर पार्टी के लिये निहित स्वार्थों के हितों से समझौता करना पड़ रहा है।
चुने हुये कारपोरेट पर मोदी सरकार की मेहरबानी इसी कारण जमकर बरस रही है क्योंकि वे पार्टी के लिये संसाधनों की व्यवस्था करने में सहायक हैं। उसे पार्टी के जन प्रतिनिधियों को ईमानदारी की नसीहत देने के शौक पर भी एतबार नहीं रहा। भाजपा का नेतृत्व खुद चाहता है कि पार्टी के जन प्रतिनिधि अपने आप में भी पैसे से इतने मजबूत हों कि उनके सामने कोई दूसरा खड़ा न हो पाये। जब भ्रष्टाचार विरोधी चेतना को उसने अपने अंदर पूरी तरह मार लिया है तो उसे अधिकारियों और कर्मचारियों के भ्रष्टाचार को रोकने की भी क्या पड़ी भले ही लोगों का इस से कितना भी शोषण उत्पीड़न होता रहे।
आखिर लोग भी तो ग्लैमर के गुलाम हैं। जो पार्टी जितनी खर्चीली होगी उसका ग्लैमर भी उतना ही ज्यादा होगा यह सच है। सकारात्मक राजनीति का भूत भी उस पर सवार नहीं रह गया। उसे अपने एजेंडे पर समर्थन जुटने का बहुत भरोसा नहीं है। आत्मविश्वास की इस कमी के कारण नकारात्मक राजनीति उसकी नियति बनकर रह गयी है जिसके लिये सीबीआई, ईडी जैसी संस्थायें स्वायत्त न रहकर भाजपा की राजनीतिक टूल बन गयीं हैं। उनके माध्यम से प्रतिपक्ष के निरस्त्रीकरण का अभियान चलाया जा रहा है।
चुनाव के समय विपक्ष के नेताओं और उनके समर्थकों के यहां छापेमारी शुरू करके उनके संसाधनों के सारे श्रोत बंद करने की चाल चली जाती है ताकि चुनाव लड़ने के मामले में दूसरी पार्टियां मोहताज होकर रह जायें। ऐसे घटाटोप में भी अगर विपक्ष को पर्याप्त सीटें मिल जाती हैं तो यह उसकी बहुत बड़ी शाबाशी होगी। बहरहाल मूल बात यह है कि चुनाव कोई भी जीते, कोई पार्टी सत्ता में आये लेकिन जब तक राजनीति धनबल से मुक्त होकर जनबल पर विश्वास करने वाली नहीं बनेगी तब तक लोगों की सही मामले में भलाई होना संभव नहीं है जिसके बिना आज लोग दरिद्र हो रहे हैं और देश की सारी पूंजी चंद हाथों में सिमट कर रह जा रही है।