एक मीडिया हाउस के प्रधान संपादक की चलाचली की बेला आ गई जान पड़ती है. दिल्ली को खाली किया जा रहा है. उनके खास सिपहसालार को दिल्ली से रवाना कर दिया गया, नई जगह. शीर्ष पर बैठे उनके खास चेलों को हर कहीं से निकाला जा रहा है. यूपी से लेकर बिहार तक में खलबली है. कोहराम है. कहीं मन मुरझा गया है तो कहीं गीत बंद हो चुका है.
इन प्रधान संपादक महोदय की उम्र भी हो गई है. इनका दौर भी खत्म हो गया. कोरोना काल ने कागज पर छपने वाले अखबारों को पीडीएफ फाइल में समेट दिया. सारा कुछ डिजिटल होता जा रहा है. ऐसे में कागज वाले मीडिया के बाहुबली रहे प्रधान संपादक महोदय के पास करने के लिए कागजों के सिवा कुछ बचा नहीं है.
अवसरवादिता, झूठ, मक्कारी से लबरेज इन प्रधान संपादक को जीवन में चापलूस किस्म के कर्मचारी ज्यादा पसंद आए. किसी को अपना उत्तराधिकारी नहीं बनाया. जो थोड़ा मजबूत होने लगता, उसके पर ये कतर देते. गाली देना इनका प्रिय शगल है. ये वैसे तो न्यूज रूम में बकबक करने के दौरान किसी की भी मां-बहिन करने में तनिक भी चूक नहीं करते लेकिन जब ये राजनेताओं से रूबरू/मुकाबिल होते हैं तो चापलूसी के चरम पर पहुंच जाते हैं. तब इनकी शकल व इनकी वाणी देखने लायक होती है. इनके सिर पर हजारों जेनुइन मीडियाकर्मियों का करियर तबाह करने का मुकुट है. पर वक्त ने क्या सितम ढाया है कि खुद का राजपाट भरभरा रहा है और ये बेचारे कुछ न कर पा रहे हैं.
कई लोग इनकी हालत पर दूर से कोरस में गा रहे हैं- वक्त ने किया क्या हसीं सितम….
कंटेंट से लेकर धंधा-पानी तक के ये उस्ताद हैं. इसीलिए घपले-घोटाले भी इनके नाम खूब हैं. खनन से लेकर फार्म हाउस तक, कामर्शियल कांप्लेक्स से लेकर कई कई प्लाट तक… हर तरफ इनके नाम का जलवा है. सब कुछ बना डाला है… यहां तक कि जिस अखबार में ये प्रधान संपादक हैं, वहां अपने बेटे को भी मार्केटिंग में घुसा लिया है… सरकारी विज्ञापन हैंडल करता है इनका बेटा.. वंशवाद के खिलाफ लंबे लंबे आर्टकिल लिखने वाले प्रधान संपादक महोदय से कौन पूछे कि ये वंशवाद नहीं तो क्या है… आपकी जब इतनी धाक साख है तो किसी दूसरे अखबार में बेटे को लगवाते.. अपने ही अखबार में अपने ही बेटे को जबरन नौकरी पर रखकर आपने किसी एक काबिल आदमी की नौकरी खा ली है… सड़क पर पहुंचाए गए काबिलों की आह लगता है समवेत श्राप में तब्दील है.
जबसे देश में मोदी जी की सरकार आई, प्रधान संपादक महोदय नागपुर कनेक्शन तलाशने के लिए पागल हो गए… वैसे तो ये न्यूज रूम में संघ के नेताओं को खुलेआम गरियाते दिखते हैं… मोदी और योगी को देश नाशक बताते हैं लेकिन जब अखबार की बात आती है तो हर जगह मलाई मक्खन ही छपता है… खासकर दिल्ली एडिशन मोदी के नाम, गोरखपुर व लखनऊ संस्करण योगी के नाम समर्पित है… सत्ताकारिता इनके मालिकों का प्रिय शगल है… इसलिए ये चार हाथ आगे बढ़कर तेल-पानी लगाते छापते हैं…
प्रधान संपादक महोदय के सिर पर एक मार्केटिंग का ग्लोबल बंदा लाकर बिठा दिया गया है. वह दिन रात तबला बजा रहा है. तबले की आवाज हर तरफ गूंज रही है. उसी की तूती बोल रही है. वह एक मल्टीनेशनल ब्रांड का एशिया हेड हुआ करता था. अब उसे अखबार की कमान दी गई है.. वह धड़ाधड़ आदेश पारित कर रहा है… ऐसा लगता है कि जैसे इस अखबार की पूर्व प्रधान संपादिका की छुट्टी करने से पहले प्रबंधन ने उनके खास लोगों को बलि ली, भारी मात्रा में छंटनी को अंजाम दिलाया, वही इतिहास इन प्रधान संपादक महोदय के उत्तर काल में दुहराया जा रहा है… वे लाचार होकर बस टुकुर टुकुर देख रहे हैं… कुछ न कर पाने की पीड़ा से ग्रस्त हैं… हस्तिनापुर में सरगर्मियां तेज हैं. ताउम्र तरह तरह के करतब दिखाने वाला मदारी अब उम्र और काल के बंधन में जकड़ा लाचार है. ये दुख सहा ना जाए…. हाए… याद पिया की आए…
बताया जाता है कि इन प्रधान संपादक महोदय की अकूत कमाई के बारे में बिजनेस टीम के लोगों को एक के बाद एक जानकारी मिलने लगी तो उसे प्रबंधन के पास पहुंचाया गया… उसके बाद आंतरिक जांच शुरू हुई. प्रधान संपादक को निपटाने की तभी से तैयारी होने लगी… कोरोना काल इस प्रक्रिया में टर्निंग प्वाइंट साबित हो रहा है….
फिलहाल तो पूरा देश इस बड़े अखबार में चल रही गतिविधियों की तरफ टकटकी लगाए देख रहा है… साथ ही ये देख रहा है कि बुजुर्ग संपादक महोदय कब खुद इस्तीफा देते हैं या स्मूथ एक्जिट का इंतजार करते हैं… हालांकि इस अखबार में कारपोरेट परंपरा का निर्वहन बखूबी किया जाता है इसलिए संभव है कि एक रोज प्रधान संपादक महोदय सबकी मीटिंग बुलाएं और अपनी पारी पूरी होने की घोषणा कर दें.
एक मीडियाकर्मी द्वारा भेजे गए पत्र पर आधारित.