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सुख-दुख

योगी सरकार के मीडिया मैनेजरों ने इस पत्रकार को नवभारतटाइम्स डाट कॉम से हटवा दिया!

Nirendra Nagar-

‘पत्रकारिता करने आया था, दलाली नहीं करूँगा’

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वह राम का भक्त है मगर राम को वह ईश्वर नहीं, महापुरुष मानता है। वह हिंदू धर्म और संस्कृति का प्रेमी है मगर उसकी कमियों से आँखें नहीं चुराता। वह हिंदूवादी है मगर मुस्लिम-द्वेषी नहीं है। मेरे मन में भक्तों और राष्ट्रवादियों की जो छवि थी, वह उससे थोड़ा अलग है।

पाँच-छह साल पहले जब पहली बार मेरा उसका सामना हुआ तो मैं संपादक-नियोक्ता की कुर्सी पर बैठा हुआ था और वह उम्मीदवार की कुर्सी पर। जहाँ तक मुझे याद है, उसने अपने माथे पर टीका लगाया हुआ था। इंटरव्यू में भी वह मुझे घोर परंपरावादी लगा। पहली नज़र में उसने मुझे विकर्षित ही किया। लेकिन जिन 50-60 उम्मीदवारों की कॉपियाँ मैंने और मेरे साथी ने देखी थी, उनमें इसकी कॉपी सबसे अच्छी थी। मैं किसी योग्य उम्मीदवार को केवल इसलिए नहीं छाँट सकता था कि उसकी विचारधारा मुझसे नहीं मिलती थी। अगर ऐसा होता तो मैं भी 1985 में नवभारत टाइम्स में नहीं आ पाता क्योंकि मेरी और तत्कालीन प्रधान संपादक राजेंद्र माथुर की विचारधारा बहुत अलग थी।

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वह हमारी टीम में शामिल हुआ। मेरी टीम में कई लड़के-लड़कियाँ आधुनिक और सेक्युलर विचारधारा के थे। उसका उनसे अकसर वैचारिक टकराव होता लेकिन उस टकराव ने कभी कोई भद्दी शक्ल नहीं ली। हाँ, कई बार वह इस बात से दुखी हो जाता कि कुछ साथी उसका मज़ाक उड़ाते हैं।

उसके लिखे किसी लेख पर मैं आपत्ति करता तो वह कहता, आपको जो ग़लत लगे, वह निकाल दें। मुझे यह सही नहीं लगता। लगता जैसे मैं सेंसरशिप कर रहा हूँ। मैं चाहता था कि वह समझे कि मैं क्यों और किस बात पर एतराज़ कर रहा हूँ। हम दोनों में लंबी चर्चा होती, कुछ तो घंटे से भी ज़्यादा लंबी चलतीं। वह चुपचाप सुनता रहता और अंत में हम एक निष्कर्ष पर पहुँचते और उसका लेख हलके-फुलके परिवर्तन के साथ स्वीकार हो जाता।

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कई बार मुझे संदेह होता कि उसकी यह विनयशीलता स्वाभाविक है या ओढ़ी हुई। कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं संपादक हूँ, इसीलिए वह इस तरह पेश आता है। लेकिन जब मैं रिटायर हो गया, उसके बाद भी उसके फ़ोन बराबर आते रहे। जब वह कोई भंडाफोड़ करने वाली स्टोरी करता तो मुझे बताता। मुझे ख़ुशी होती और हैरानी भी कि एबीवीपी का सदस्य रह चुकने और बीजेपी का समर्थक होने के बाद भी वह राज्य की योगी सरकार की कलई खोलने में ज़रा भी पीछे नहीं रहता।

लेकिन उसकी यह ईमानदार पत्रकारिता लंबे समय तक नहीं चल पाई। यूपी सरकार उसके पीछे पड़ गई। संपादक को लगातार फ़ोन आने लगे और अपनी निष्ठा के कारण या सरकारी दबाव के चलते संपादक ने इसे रिपोर्टिंग करने से रोक दिया। कल पता चला, उसकी नवभारतटाइम्स.कॉम से विदाई कर दी गई।

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कल बातचीत के दौरान वह बहुत उदास था। परसों उसे कहा गया कि लखनऊ छोड़कर नोएडा आ जाए जो उसके लिए संभव नहीं था। वह अपने उन बूढ़े दादा-दादी को अकेला छोड़कर नहीं आ सकता था जिन्होंने उसे बचपन से पाला-पोसा और संस्कार दिए। नतीजतन उसके सामने इस्तीफ़ा देने के अलावा कोई चारा नहीं था। इस्तीफा चौबीस घंटों के अंदर ही मंज़ूर हो गया।

उसके दुश्मन केवल सरकार में नहीं थे, अख़बार में भी थे। कुछ दिन पहले उसने एक ठेकेदार को रंगे हाथों पकड़ा था जो अपनी गाड़ी पर नगर निगम का बोर्ड लगाकर घूम रहा था। जब इसने उसकी कार का विडियो लिया और उस बंदे से सवाल-जवाब किया तो उसने झूठ बोला कि वह नगर निगम का कर्मचारी है। साथ ही उसने अख़बार के संपादक का हवाला भी दिया कि वह उनके परिचित हैं। उनसे फ़ोन पर बात भी करवाई। संपादक जी ने इससे कहा कि यह व्यक्ति हमारा सोर्स है और इसपर स्टोरी नहीं करें।

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वह स्टोरी नहीं हुई लेकिन वह घटना संभवतः ताबूत की अंतिम कील साबित हुई।

मैंने उससे पूछा, आगे क्या करोगे? उसने कहा, कुछ सोचा नहीं है। लेकिन इतना तय है कि दलाली नहीं करेंगे। रूँधे गले से वह बोला, सर, पीसीएस की नौकरी छोड़कर पत्रकारिता करने आए थे। अगर ईमानदारी से पत्रकारिता नहीं कर पाए तो पत्रकारिता ही छोड़ देंगे।

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नीरेंद्र नागर नोएडा में लंबे समय तक नवभारत टाइम्स डिजिटल के हेड रहे हैं.

कुछ प्रमुख प्रतिक्रियाएं-

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Mukesh Kumar Singh उम्दा पोस्ट, लेकिन उस होनहार का नाम अब क्यों आपने सेंसर करना मुनासिब समझा, ये समझ नहीं आ रहा। अलबत्ता, उसूल पर जीने वालों के क़द्रदान अब बेहद दुर्लभ हैं।

Nirendra Nagar नाम इसलिए नहीं दिया कि मैंने उससे अनुमति लिए बिना यह सब लिखा है। नाम कुछेक दिनों में सामने आ ही जाएगा।

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Vijay Budholia अब ऐसे सिद्धांतवादी पत्रकार मिलना मुश्किल है।

Hemendra Tripathi नवभारत टाइम्स ऑनलाइन की अन्य संस्थानों से अलग छवि थी, क्योंकि वह सही को सही और गलत को गलत लिखता था। फिर वह सरकार के खिलाफ हो या प्रशासन के या फिर आम व्यक्ति के। लेकिन इस बीच हुई घटना से साबित कर दिया कि यह संस्थान भी अन्य की तरह है। कोई अंतर नहीं इनमें और औरों में… बहुत सुंदर लिखा आपने

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Yogesh Srivastav विगत सात वर्षों में, यह एक आम बात हो गई है। झुको नहीं तो, तोड़ दिया जाएगा

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