न खुद दलाली कीजिए और न दलालों को अपने आसपास फटकने दीजिए
लखनऊ : चाहे वह सीवान का काण्ड हो या फिर चतरा का, पत्रकारों की मौत के असल कारणों का खुलासा तो बाद में ही हो पायेगा, लेकिन अब तक इतिहास बताता है कि ऐसे मामलों में उन लोगों की खास भूमिका रहती है, जो खुद को पत्रकार कहलाते हैं और असल पत्रकार जाने-अनजाने उनके पाले में पहुंच कर अपनी बरबादी का सामान जुटा लेता है। कम से कम, चालीस साल का जिन्दा इतिहास तो मुझे खूब याद है, जिसमें किसी पत्रकार की मौत के कारणों में से एक रहे हैं जो ऐसे पत्रकारों के करीबी बन कर असल वारदात को अंजाम दिला देते हैं।
चाहे वह सन-77 में दैनिक स्वतंत्र भारत के मुख्य उप सम्पासदक जिया सिद्दीकी रहे हों या फिर बीस साल पहले लखनऊ में मारा गया पारितोष पाण्डेय। शाहजहांपुर का जागेंद्र सिंह भी ऐसे लोगों की साजिशों के चलते मौत के घाट उतारा गया था। सिद्दीकी हत्याकांड में एक वकील का नाम आया था जो बाद में अपनी वकालत छोड़कर एक चौपतिया अखबार निकालने लगा। उस हत्या में असली हत्यारे के तौर पर नाम आया था एमपी सिंह। बाद में उसने अपने लाल अखबार को नवरात्र साप्ताहिक के तौर पर प्रकाशित करना शुरू किया, और उसकी प्रतियां केवल बड़े पुलिस अफसरों तक पहुंचने लगी। एमपी सिंह का धंधा आज भी बदस्तूबर चल रहा है।
पारितोष एक तेज-तर्रार पत्रकार था, लेकिन उसकी हत्य के बाद पता चला कि उसकी संगत ही बुरी थी। इस का पूरा प्रकरण तो बाद में आपको अगले अंक में बताऊंगा, लेकिन इतना जरूर है कि अपने तथाकथित पत्रकार-साथियों की साजिशों के चलते पारितोष की मौत हुई थी। जागेंद्र सिंह तो अभी एक साल पुराना मामला है। शाहजहांपुर का वह जोशीला पत्रकार था। कई अखबारों में उसने काम किया, लेकिन हर जगह उसका शोषण ही हुआ। नतीजा उसने अपनी नयी तर्ज की पत्रकारिता फेसबुक पर शुरू की। नाम रखा शाहजहांपुर समाचार। बहुत मेहनती आदमी था जागेंद्र सिंह। लेकिन खबरों को लेकर एक बार उसकी यूपी सरकार के मौजूदा मंत्री रामसिंह वर्मा से ठन गयी। जागेंद्र सिंह ने ऐलानिया कर दिया था कि रामसिंह वर्मा और उसका करीबी कोतवाल प्रकाश राय उनकी हत्या पर आमादा है।
जागेंद्र लगातार आर्तनाद करता रहा। चिल्लाता रहा कि उसकी हत्या हो जाएगी। लेकिन न जिलाधिकारी शुभ्र सक्सेना की कान में जूं रेंगी, न पुलिस का। अधिकांश पत्रकार तो सिरे से ही बिके हुए थे। आखिरकार भांड़ पत्रकारों को अपनी ओर मिला कर हत्यारों ने जागेंद्र सिंह की हत्या कर डाली। उसमें सबसे प्रमुख हत्यारा-षडयंत्रकर्ता था, उसका नाम था अमितेश सिंह। हत्या के बाद उसने अपने कई मित्रों और खुद मुझे भी फोन करके इस बारे में पूरी बात बता दी। अभी तीन महीना पहले ही उस युवक की हत्या उरई में हो गयी है।
अब जरा देखिये, जागेंद्र सिंह की हत्या को लेकर भी खूब खरीद-फरोख्त हुई। खुद को बडा पत्रकार कहलाने वाले हेमन्त तिवारी ने इस मामले में प्रशासन की ओर से खूब पैरवी की। ऐसा लगा कि जैसे हेमन्त पत्रकार नहीं, बल्कि कोई धाकड़ दलाल है, जो पूरी मामले में दांव लगा रहा था। इसके पहले भी रवि वर्मा आदि दो अन्य पत्रकारों की मौत के बाद जब मैंने 187 पत्रकारों के हस्ताक्षर से यूपी सरकार को एक पत्रकार तैयार किया कि उनके परिजनों को आर्थिक राहत मिल जाए, उस पत्र को हेमन्त तिवारी ने मुझ से लेकर फाड़ दिया। यह तर्क देते हुए कि हिसाम सिद्दीकी जैसो लोग इस पत्र को बेच लेंगे, और हिसाम के हटने के बाद मैं खुद अफसरों से मिल कर उन पत्रकारों को राहत पहुंचा दूंगा। लेकिन हेमन्त ने ऐसा कभी भी नहीं किया।
इतना ही नहीं, हेमन्त तिवारी ने तो दलाल, बलात्कारियों, चोरों, धोखेबाजों और घटिया लोगों को वरिष्ठ पत्रकार का ओहदा दिलाने की फैक्ट्री ही खुलवा दी थी। जौनपुर के रतनलाल शर्मा को अपने साथ हेमन्त तिवारी ने वरिष्ठ पत्रकार के तौर पर पोस्टर छपवा दिया था। इसके बाद ही शर्मा को पुलिस ने पांच लाख रूपया और एक महिला के साथ लखनऊ में बलात्कार का आरोप लग गया। शराब के नशे में अक्सर पिट जाने वाले हेमन्त तिवारी ने उस रतनलाल शर्मा को बचाने के लिए हरचंद कोशिशें कीं। यह हालत है पत्रकारों और पत्रकारिता का। जाहिर है कि जब तक हेमन्त तिवारी जैसे लोग पत्रकारिता में मौजूद हैं, पत्रकारों और पत्रकारिता पर हमेशा ही खतरनाक हमले होते ही रहेंगे।
लेखक कुमार सौवीर लखनऊ के वरिष्ठ और बेबाक पत्रकार हैं.
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