Sushil Mohapatra : अलग अलग संस्था के कई सारे पत्रकार अपने जान को जोखिम में डाल कर हिंसा कवर कर रहे हैं। किसी भी वक्त उनके ऊपर हमला हो सकता है। कल कई पत्रकारों पर हमला हुआ भी है, कुछ पत्रकार अस्पताल में भी हैं। आज अपना काम खत्म हो जाने के बाद पत्रकारों को अपने एडिटर से कमरे में चुपचाप पूछना चाहिए कि अगर हिंसा में उनकी जान चली जाती है तो उन के लिए संस्था के तरफ से उनके परिवार को क्या मदद मिलेगी?
क्या कोई इन्शुरन्स उनके नाम से संस्था के तरफ से किया गया है ? क्या संस्था ने कोई टर्म प्लान किया है कि ड्यूटी करने के दौरान कुछ हो जाती है तो कुछ पैसे मिल जाएंगे ? अगर किया होगा तो अच्छी बात है अगर नहीं किया होगा तो फिर अगले दिन रिपोर्टिंग के लिए एडिटर को भी साथ ले जाइए।
कम से कम एडिटर वहां आप का बचाव तो कर सकता है। आप सभी आप ने संस्था के लिए अच्छा काम कर रहे हैं लेकिन संस्था का भी आप के लिए कुछ जिम्मेदारियां हैं। यह नहीं होना चाहिए कि अगर आप के साथ कुछ हादसा हो जाती है तो दो मिनट साइलेंस प्रेयर रखकर बात को खत्म कर दिया जाए। सभी पत्रकारों को यह सवाल अपने एडिटर से करना चाहिए।
एनडीटीवी के वरिष्ठ पत्रकार सुशील मोहापात्रा के उपरोक्त एफबी स्टेटस पर आए ढेरों कमेंट्स में से कुछ प्रमुख यूं हैं-
Rakesh Kumar Malviya ‘किसी ने कहा था कि इस धंधे में आओ, ‘यही जवाब मिलेगा। सवाल करना मना है।
Hemant K Pandey लेकिन जो स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहे हैं, उनका क्या?
Virendra Yadav सवाल वाजिब है, लेकिन ठेका वाली नौकरियों के दौर में इन सवालों से कतराना प्रबंधन और मालिकों के लिये और आसान कर दिया है। नौकरी करने से लेकर हटाने संबंधी सारी शर्तें नियुक्त पत्र में दर्ज होती हैं। उदारीकरण सामाजिक सुरक्षा के दायरे को निष्प्रभावी करने का औजार था/ है। यह हर संस्थानों में लागू होता है। कायदे से पूंजीवाद का मनवीय चेहरा भारत में आया कहां बंधु? क्या ब्रिटेन या अमेरिका में भी यह होता है? मेरी जानकारी के मुताबिक वहां हर आदमी इंस्योर्ड होता है।
Dinesh Mansera खुद पत्रकार कराए होते है आजकल,और जान जोखिम में डाल कर ही पत्रकारिता होती है जनाब,
Jitendra Kishore आपकी बात से सहमत हैं सर… बीते 20 दिसंबर 2019 को हमने भी फ़िरोज़ाबाद में कुछ ऐसा ही मंजर देखा था। चारों तरफ से पत्थर, पेट्रोल बम, देशी बम व फायरिंग हो रही थी। उस समय हमने भी जान जोखिम में डालकर फ़िरोज़ाबाद में हुए बवाल की कवरेज की थी।
Jitendra Kishore और पहले भी कई आंदोलनों व दंगों में ये मंजर देख चुके हैं।