मार्कण्डेय पांडे-
सुप्रीम कोर्ट में बाबा रामदेव के माफी मांगने को लेकर चर्चा हर तरफ है। मामला भ्रामक विज्ञापन को लेकर है। रामदेव के पक्ष में यह भी कहा जा सकता है कि क्या एक कंपनी का कोल्ड ड्रिंक पीने के बाद एक आदमी पहाड़ से कूद जाता है? दूध सी सफेदी एक वाशिंग पाउडर के प्रयोग करने से आ जाता है? अथवा एक क्रीम लगाने से काला आदमी गोरा हो जाता है? ऐसे सैकड़ों विज्ञापन नियमित देखे और दिखाए जाते हैं। लेकिन मामला सौंदर्य से अधिक लोगों के स्वास्थ्य और आयुर्वेद से जुड़ा है, तो इसे गंभीर माना जाना चाहिए। इसी विषय को लेकर चर्चा करते हैं।
आयुर्वेद की उत्पत्ति अथर्ववेद से है। अब हमारे वेदों में जो लिखा है, वह अवैदिक लोग क्यों माने? बड़ी मुश्किल से तो योग, प्राणायाम को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृति मिली है और अंतरराष्ट्रीय योग दिवस आरंभ हुआ है। लेकिन आयुर्वेद के साथ समस्याएं हैं। समस्या उसके विज्ञान सम्मत होने को लेकर है। यदि आयुर्वेद के अनुसार मान लें कि तुलसी के प्रयोग से रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। तो आयुर्वेद की बात वह क्यों माने जिनका वेदों को नहीं मानते, यकीन नहीं करते। उनका धर्म अलग है, धर्मग्रंथ अलग है वे तो नहीं मानेंगे। जो नास्तिक हैं अथवा विज्ञान से प्रमाणित बातों को ही सत्य मानते हैं वह भी क्यों मानेंगे। यह समस्या घरेलू स्तर पर ही नहीं, विश्व स्तर पर भी थी जिसके कारण आयुर्वेद की स्वीकार्यता को लेकर संकट था। भारतीय आयुर्वेदिक औषधियों, उत्पादों के निर्यात को लेकर भी समस्या थी।
अब एक दूसरी बात लगभग सभी देशों में खासकर यूरोप में वहां पैदा होने वाली औषधियों, नए शोध, नई दवाओं के विकास आदि को लेकर एक फार्माकोपिया होती है। यह फार्माकोपिया क्या है। इसे आप एक मेडिकल रजिस्टर मान सकते हैं, जिसमें उस देश के दवाओं का वर्णन किया जाता है। यूरोप समेत दुनिया के अधिकांश देशों में एक ही फार्माकोपिया है। प्रत्येक देश का एक फार्माकोपिया है। लेकिन भारत में यह एक से अधिक हुआ करता था।
तुलसी की जो प्रापर्टी (गुणधर्म) आयुर्वेद बता रहा है, उसकी एक फार्माकोपिया है। तो यूनानी का अलग है, होम्योपैथ का अलग, एलोपैथ का अलग सबके अलग-अलग फार्माकोपिया हैं। अब मान लें कि अश्वगंधा से कमजोरी दूर होती है यह बात आयुर्वेद कह रहा है तो एलोपैथ कोई दूसरा फायदा बता रहा है। छोटी हरड़ या गिलोय के गुणधर्म और लाभ आयुर्वेद कुछ बता रहा है, तो होम्योपैथी कुछ, एलोपैथी कुछ बता रहा है। ऐसी स्थिति में वैश्विक स्तर पर विश्वसनीयता का संकट खड़ा हो जाता है। आपकी सारी पैथी ही अलग-अलग राय रखती है। आप खुद एकमत नहीं है तो हम आपके प्रोडक्ट क्यों खरीदें। हम आपके आयुर्वेद और वेद की बात क्यों माने?
इस समस्या के कारण भारत के आयुष प्रोडक्ट का निर्यात प्रभावित हो रहा था। जिससे अरबों डॉलर का भारतीय कंपनियों की आमदनी प्रभावित हो रही थी। इस समस्या से मुक्त होने के लिए साल 2021 में भारत सरकार ने आयुष मंत्रालय के सभी पांचों अंगों आयुर्वेद- योग, यूनानी, होम्योपैथी, प्राकृतिक चिकित्सा और सोवा रिग्पा चिकित्सा पद्धतियों समेत केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की बैठक बुलाई। तय हुआ कि अब हमारा फार्माकोपिया भी अलग-अलग नहीं होगा। हम अपने शोध, दवाओं और नई खोजों को एक दूसरे के साथ शेयर करेंगे। आपस में विमर्श करके एक आम राय पर पहुंचेगें उसके बाद फार्माकोपिया में दर्ज किया जाएगा। इसे लेकर भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्तर पर फार्माकोपिया आयोग का गठन भी किया और अंतरराष्ट्रीय फार्माकोपिया को सूचित भी किया। विश्व स्वास्थ्य संगठन को भी इस पूरी प्रक्रिया से अवगत कराया गया।
लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समस्या का असली समाधान तो तब होता जब आपके तुलसी, गिलोय, अश्वगंधा, आंवला आदि के गुणधर्म को विज्ञान भी स्वीकार कर लेता। आपके वेद जो कह रहे हैं, वह विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरता है तो ठीक, नहीं तो हम क्यों खरीदें। इस समस्या से निपटने के लिए आयुष मंत्रालय के नेतृत्व में केंद्रीय अनुसंधान परिषद का गठन किया गया। सिर्फ आयुर्वेद के ही नहीं, आयुष के सभी अंगों के लिए अनुसंधान परिषद का गठन किया गया। जिसमें सीसीआरए अर्थात सेंट्रल काउंसिल ऑफ रिसर्च इन आयुर्वेद, सीसीआरएच सेंट्रल काउंसिल ऑफ रिसर्च इन होम्योपैथ। इसी प्रकार यूनानी, प्राकृतिक चिकित्सा, पहाड़ी क्षेत्रों खासकर तिब्बत में प्रचलित चिकित्सा सोवा रिग्पा को लेकर शोध संस्थानों का निर्माण किया गया है। यह संस्थान विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के हिसाब से अंतरराष्ट्रीय गुणवत्ता को समाहित करते हुए बनाए गए हैं।
इसका सुखद परिणाम यह हुआ कि जिन औषधियों को लेकर आयुर्वेद दावा करता था कि इनसे यह फायदा है। वह विज्ञान के शोध में निकल कर आया कि आयुर्वेद ने कम बताया बल्कि इसके कई गुणा अधिक फायदे नए शोध में सामने आ रहे हैं। वह चाहे गिलोय हो, तुलसी हो, अश्वगंधा हो या भारत में पैदा होने वाली ऐसी सैकड़ों औषधियां जिनके गुणधर्म आयुर्वेद बताता है, उससे कई गुणा अधिक फायदे आधुनिक विज्ञान की प्रयोगशाला में निकल कर सामने आने लगे हैं। इससे अंतरराष्ट्रीय एलोपैथिक दवाओं के कारोबारियों की नींद उड़ गई है। उनका अरबों डॉलर का बाजार प्रभावित हो रहा है। भारत आबादी के हिसाब से दुनिया का दूसरा बड़ा देश है और दुनिया का बड़ा खरीदार देश भी रहा है। इसी के साथ भारतीय लोगों में हर्बल के प्रति जागरुकता भी आ रही है और तेजी से मेडिसीन कारोबार में हर्बल प्रोडक्ट की मांग बढ़ी है।
बाबा रामदेव या आचार्य बालकिशन परंपरागत वैद्य हैं। परंपरागत शैली के वैद्य आयुर्वेद और परंपरा के आधार पर ही चिकित्सा करते रहे हैं। उसी से हजारों वर्षो से भारत में चिकित्सा होती रही है। एलोपैथी का आगमन भारत में मुश्किल से डेढ़ सौ साल पहले हुआ है। जिसका सकारात्मक प्रभाव है, तो नकारात्मक असर भी देखने को मिला है। अब जिस तेजी से दुनिया योग, प्राणायाम, आयुर्वेद की तरफ जा रही है। भारतीय कंपनियां अपने प्रोडक्ट की मार्केटिंग, पैकेजिंग से लेकर उसके वैज्ञानिक गुणवत्ता और अंतरराष्ट्रीय बाजार की जरूरतों को लेकर पेशेवर हुए हैं उससे भारत समेत इंटरनैशनल एलोपैथिक मेडिसिन लॉबी की नींद उड़ी हुई है। बाबा रामदेव की कमी सिर्फ इतनी है कि वह परंपरागत आयुर्वेदिक प्रमाणों पर चल रहे हैं जिससे विज्ञान की आड़ में उन्हें आसानी से दवा कंपनियां और उनके पैरोकार जो मोटा फंड पाते हैं, आसान शिकार बना लेते हैं। हालांकि अब मामला बाबा रामदेव से आगे बढ़ चुका है। स्वास्थ्य चेतना से लेकर आयुर्वेद और स्वदेशी को लेकर लोगों में चेतना आ चुकी है, आप एक पतंजलि को रोकेंगे, लेकिन यह चेतना अनेक पतंजलि सामने ला देगी।
लेखक, गत डेढ़ दशक से विभिन्न समाचार पत्रों में कार्यरत हैं. एनसीआर में रीयल एस्टेट, उद्योग और पर्यावरण संबंधित विषयों पर रिपोर्टिंग करता रहे हैं. वर्तमान में लखनऊ में डिजिटल पत्रकारिता के क्षेत्र कार्यरत.