अविनाश दास-
सबसे अच्छी कहानी वो है, जो कहानी न लगे जीवन लगे। सच्ची लगे। सबसे अच्छा अभिनय वो है, जो अभिनय न लगे। आंख सबसे अच्छी वो, जो बिना किसी फिल्टर के साफ़ साफ़ दृश्य दिखा सके। मुझे याद नहीं कि कब मैंने अपनी भाषा की कोई फ़िल्म देख कर ये सब सोचा होगा। हां, बहुत पहले “तिथि” देखी थी और कुछ महीनों पहले “द चार्लीज़ कंट्री”। मट्टो की साइकिल ऐसी ही फ़िल्मों की क़तार का सिनेमा है।

M. Gani की यह फ़िल्म हिंदी सिनेमा के मौजूदा दौर पर एक तरह का उपकार है कि ऐसी फ़िल्में बनाना हमने छोड़ दिया है। डे सीका की बाइसाइकल थिव्स का एक बेहद ही उम्दा और मौलिक रूपांतरण। हालांकि हमने जब गनी साहब से अपनी पिछली मुलाक़ात में इस फ़िल्म की प्रेरणा के बारे में पूछा था, तो उन्होंने बताया था कि उनके पिता की कहानी ही मट्टो की कहानी है।
मट्टो की साइकिल बिमल रॉय की फ़िल्म दो बीघा ज़मीन की सिनेमाई परंपरा का सीना चौड़ा करने वाली फ़िल्म है। इस फ़िल्म में शहर भी किरदार है और मथुरा की लोकल ज़बान भी किरदार है। सब कुछ इतना खिला खिला और खुला खुला है, फिर भी जब हम सिनेमा में घुसते हैं तो हर वक़्त जैसे सांस अटकी हुई लगती है। हिंदी सिनेमा को ऐसी ऊंचाई पर जाने के लिए महानगरीय भव्यता की लीक से उतर कर छोटे शहरों-कस्बों की लीक पर चलना होगा। पिछले कुछ सालों में हमने देखा है कि ऐसी जगहों की कहानियों का कनेक्ट ज़्यादा समझा और सराहा गया है।
अचंभित तो किया है प्रकाश झा ने। ऐसा लगता है जैसे उनमें एक दिहाड़ी मज़दूर की आत्मा सचमुच में घुस गयी हो। किरदार में जैसे पूरी तरह रच-बस गये हों। फ़िल्म में तमाम दूसरे किरदार भी अभिनेता नहीं, शहर-मोहल्ले के मामूली नागरिक जैसे लगते हैं।
मट्टो की साइकिल एक कमाल का सिनेमा, एक बहुत ज़रूरी सिनेमा है। इसे ज़रूर देखिए। देखिए और इस पर बात कीजिए। बात कीजिए कि ऐसी फ़िल्में और और और और बनाने की प्रेरणा मिले।