मतगणना की अगली सुबह यानी 24 मई-2019 को फेसबुक वाल पर लिखी गई एक पोस्ट है यह। कई लोगों ने ज़ोर दिया कि फेसबुक के बाहर वाले कुछ और सोचने-विचारने वाले लोगों के पास भी इसे पहुँचाया जाना चाहिए। फिलहाल, जिनके ईमेल उपलब्ध हो सके, उन्हें भेज रहा हूँ। मुद्दा राजनीति का है, इसलिए कोई विचार किसी का विरोध या समर्थन भी करता हुआ लगे तो आश्चर्य नहीं। जो भी हो, किसी का दिल दुखाने का इरादा क़तई नहीं है।
-सन्त समीर
प्रगतिशीलता की प्रतिक्रिया में जो दक्षिणपंथ पनपा है वह हास्यास्पद और फूहड़ है!
Sant Sameer : उम्मीद है कि आधा-अधूरा पढ़कर ही निष्कर्ष नहीं निकालेंगे। बुद्धिजीवियों और मेरे मित्रों में भी, एक बड़ा तबक़ा है, जिसे लग रहा था कि भाजपा सत्ता में फिर से आ गई तो लोकतन्त्र समाप्त हो जाएगा और देश बरबाद हो जाएगा। अगर वे बिना किसी पूर्वग्रह के और ईमानदारी से ऐसा महसूस कर रहे थे, तो मुझे लगता है कि अब उन्हें उतनी ही ईमानदारी से यह भी महसूस करने के लिए तैयार रहना चाहिए कि देश बरबाद होने क़तई नहीं जा रहा और लोकतन्त्र भी अन्ततः और मज़बूत होकर उभरेगा। बीते पाँच साल का हाल यह था कि नए मुल्ले ने प्याज़ ज़्यादा खा ली थी, पर अब उम्मीद रखिए कि कामधाम में परिपक्वता दिखाई देगी। अल्पसङ्ख्यकों को भी फ़िज़ूल में ही डराया जा रहा था, जबकि मुझे लगता है अब वे ज़्यादा सुरक्षित रहने वाले हैं। हिन्दू राष्ट्र का सपना देखने वालों को ज़रूर मुँह की खानी पड़ेगी, पर धर्म-कर्म की सहूलियत भरपूर रहेगी।
मोदी जी (भाजपा को भूल जाइए) पर एक बार फिर लोगों ने बड़ी उम्मीद के साथ भरोसा जताया है। अगर वे अपने अगल-बगल के अपढ़ और कुपढ़ चङ्गू-मङ्गुओं के स्थान पर देश-समाज, इतिहास-भूगोल की समझ रखने वालों की ढङ्ग की टीम बना पाए तो इस देश के इतिहास में कुछ स्वर्णिम अध्याय जुड़ सकते हैं। उम्मीदों के केन्द्र में मोदी ही हैं, पर यह भ्रम पालने की ज़रूरत नहीं है कि यह मोदी लहर है। मोदी जी को दुबारा मौक़ा मिलना कुछ-कुछ वैसा ही है, जैसे कि केजरीवाल को लोगों ने दुबारा मौक़ा दिया था। अन्ना आन्दोलन के बाद राजनीति के इतर सार्थक परिवर्तन की एक उम्मीद उभरी थी। अरविन्द केजरीवाल, अखिलेश यादव और नरेन्द्र मोदी में लोगों ने वही उम्मीद देखी थी और भरपूर समर्थन दिया था। लोगों का समर्थन पार्टी नहीं, व्यक्ति केन्द्रित था। इन व्यक्तित्वों में देश की जनता ने राजनीतिज्ञ से ज़्यादा क्रान्तिकारी बदलावों की अगुआई वाला चेहरा देखा था। यह देश का दुर्भाग्य है कि जिन लोगों से लोग क्रान्ति की उम्मीद करते हैं, वे भी अन्ततः राजनीति की ही सड़ान्ध मारते नज़र आते हैं। इस भ्रम में भी मत रहिए कि इस देश के लोग मोदी के बड़े मुरीद हैं। मोदी के मुरीद लोग बने ज़रूर थे, पर हाल के दिनों में उनके प्रति नाराज़गी भी कम नहीं थी; बात बस इतनी है कि सामने एक बोगस विपक्ष है।
अब बात यह है कि इस सरकार से हमारी उम्मीद क्या होनी चाहिए? मैं जितना समझ सका हूँ, उस हिसाब से वाम और दक्षिण ने अब तक इस देश को दो ध्रुवों में बाँटकर देखने और चलाने की कोशिश की है। देश के इतिहास और विरासत को दोनों ने अपने-अपने हिसाब से नुक़सान पहुँचाया। आज़ादी के बाद ज़्यादा समय तक सत्ता प्रतिष्ठान तथाकथित प्रगतिशील इशारों पर चलती रही है। इस प्रगतिशीलता ने विरासत के चिह्नों को सीधे तौर पर नष्ट तो नहीं किया, पर उस पर यथासम्भव परदा डालने का काम ख़ूब किया, ताकि लोग भूल जाएँ कि इस देश का अतीत कभी गौरवशाली भी रहा है। वाम प्रेरित प्रगतिशीलता ने इतिहास की कई सच्चाइयों को निहित स्वार्थों के हिसाब से तोड़ने-मरोड़ने की कोशिश की। मेरे मित्र माफ़ करेंगे, पर इसे मैं छद्म तालिबानी चरित्र के रूप में देखता हूँ। जब आप बीते कई दशकों की सरकारों के बरअक्स महज़ पाँच साल की एक सरकार पर देश बरबाद कर देने, लोकतन्त्र ख़त्म कर देने, या कि ‘मोदी दुबारा सत्ता में आ गए तो मैं देश छोड़ दूँगा’ अथवा ‘सोशल मीडिया का अकाउण्ट बन्द कर दूँगा’—जैसी भाषा में बात करने लगते हैं, तो इससे साफ़ महसूस किया जा सकता है कि अपने ही जैसे हाड़-मांस वाले एक शख़्स के प्रति सिर्फ़ विचारधारा की वजह से आप अपने दिल में कितनी नफ़रत भरी प्रतिक्रिया रखते हैं।
दूसरी तरफ़, इस प्रगतिशीलता की प्रतिक्रिया में दक्षिणपन्थ का जो चेहरा उभरता है, वह विरासत को याद करने के नाम पर उसे हास्यास्पद और फूहड़ बना देता है। विज्ञान, गणित, सङ्गीत, आयुर्वेद, योग वग़ैरह के वास्तविक गौरव की शिनाख़्त वह नहीं कर पाता। मेहरौली का लौह स्तम्भ और देश भर में बचे-खुचे बिखरे पड़े वास्तु के नमूनों को देखकर भी वह भारत की तकनीकी उपलब्धियों के सूत्र तलाश और जोड़ नहीं पाता। संस्कृत का रट्टा वह पोंगापन्थी तरीक़े से लगाता है, पर स्पष्ट होते हुए भी यह स्थापित नहीं कर पाता कि संस्कृत की देवनागरी लिपि तक में अद्भुत विज्ञान और भारतीयता की सांस्कृतिक विरासत की छाया मौजूद है, और कि मानवी अभिव्यक्ति के सर्वाधिक अनुकूल प्रकृति की ध्वनियों को पहचानने की इस कला में वैज्ञानिकता का चरम देखा जा सकता है और इस पर कई-कई नोबेल न्योछावर किए जा सकते हैं। दक्षिणपन्थ की मुश्किल यह है कि वह ‘वादे वादे जायते तत्त्वबोधः’ की धारणा वाले इस देश में आस्था के प्रश्न को तर्कबहिः मानता है।
वह नहीं समझ पाता कि ‘आस्था’, ‘श्रद्धा’, ‘ईश्वर’ और ‘धर्म’ की स्थापनाएँ इस देश में अन्धविश्वास नहीं, बल्कि प्रकृति के विज्ञान को समझने के चलते एक तार्किक परिणति के तौर पर अस्तित्व में आईं। समझ में न आ सकने वाली हर अजब और अजीब घटना को चमत्कार भाव से देखने की रूढ़बद्ध हो चुकी मानसिकता के चलते ‘तर्काणाम् ऋषिः’ के रहस्य पर वह ध्यान नहीं दे पाता। धर्म के विज्ञान को अन्धविश्वासों के हवाले कर देने की इस नासमझी के नाते ही दक्षिणपन्थ का रूढ़िवादी मानस भारतीयता की विरासत और उसके सांस्कृतिक चिह्नों की नक़ली पहचान में ज़्यादा दिलचस्पी रखता है; आदमी की गर्दन पर हाथी का सिर लगाकर प्रसन्न हो जाता है और इसकी प्रतीकात्मकता को दरकिनार कर इसे आज की तरह की वैज्ञानिक उपलब्धि गिनाता है। लट्ठमार तरीक़े से इतिहास को सुधारने का पुरुषार्थ दिखाते हुए यह उसे भद्दे तरीक़े से बिगाड़ता है।
याद रखिए, जब मैं यह सब कह रहा हूँ तो न तो समूचे वाम को ‘सब धान बाईस पसेरी’ के भाव से देख रहा हूँ और न ही समूचे दक्षिण को। अजब-ग़ज़ब के निष्पक्ष विमर्श-प्रेमी प्यारे लोग किसी भी धारा में मिल जाएँगे। जीवन की हलचल नदी के मीठे पानी में मिलेगी तो समन्दर के खारे पानी में भी। बहरहाल, नफ़रतों और प्रतिक्रियाओं का दौर मेरे ख़याल से अब ख़त्म किया जाना चाहिए। दो-चार बचकानी हरकतों के बावजूद मोदी जी ने ‘सबका साथ..सबका विकास..सबका विश्वास’ की समझदारी दिखाई है। जब आपके पास अहङ्कारपूर्ण तरीक़े से पेश आने के भरपूर मौक़े हों, तब ऐसी बात कहना कोई छोटी बात नहीं है। हमारे जैसे लोग यही उम्मीद कर सकते हैं कि दो अतिवादी ध्रुवों में बाँटे जा रहे इस देश में मोदी जी अब समन्वय का कोई मज़बूत सेतु बनाएँगे। यह सामर्थ्य उनमें है। एक नहीं कई-कई कड़क फ़ैसले लेने का दम उन्होंने दिखाया है। देश के गौरव के उस वास्तविक चेहरे को सामने लाने और उसे नया आकार देने का काम मोदी जी वास्तव में कर सकते हैं, जिस पर अब तक लगातार धूल पड़ती रही थी।
यदि देश को दुबारा सोने की चिड़िया बनाने या रामराज्य लाने के जुमले को जुमलेबाज़ी के पार जाकर वास्तविक अनुभूति के तौर पर हमारे आज के ये रहनुमा देखना-दिखाना चाहते हैं, तो उन्हें यह भी समझना पड़ेगा कि किस वातावरण का निर्माण करके उस दौर में भारत उस मुकाम पर पहुँचा रहा होगा। उस वातावरण की पहचान करने की कोशिश किसी भी छोर से करें तो यक़ीनन वहाँ एक सौहार्द्रपूर्ण, समन्वयकारी समाज मिलेगा, जिसके सामूहिक चरित्र में नफ़रत के लिए कोई जगह नहीं थी, भले ही सामने कोई विरोधी खड़ा हो। दुश्मन भी दरवाज़े पर आ जाय तो देवता था। महज़ वैचारिक विरोध दुश्मनी का कोई चिह्न नहीं बन सकता था, यह हम रामायण-महाभारत की क़िस्सागोई और शास्त्रार्थ की अनगिन कहानियों से भी समझ सकते हैं। आज़ादी मिलने के बाद आमजन के मन में भारतीयता के सांस्कृतिक विरासत वाले कुछ उसी तरह के समाज-निर्माण की आकाङ्क्षा हिलोरें ले रही थी, पर हमारे सत्ताधीशों ने कुर्सी की लालच में राष्ट्रनिर्माण के महान् काम को पीछे छोड़ दिया और आमजन के मन में एक-दूसरे के प्रति नफ़रतों का ज़हर घोलने का काम ही लगातार किया।
आज के इस दौर में अब इसी ज़हर को ख़त्म करने की ज़रूरत है। इस चुनाव ने मोदी जी को उस मुकाम पर पहुँचा दिया है, जहाँ से वे चाहें तो नफ़रतों के बरअक्स मुहब्बत की राजनीति शुरू कर सकते हैं। ऐसी उम्मीद रखना इस नाते भी बेमानी नहीं है, क्योंकि जाने-अनजाने जब-तब ऐसे सङ्केत वे देते ही रहे हैं।
फेसबुक पोस्ट (24 मई, 2019)
पत्रकार और चिंतक संत समीर की एफबी वॉल से. संपर्क : [email protected] , मो.–8010802052–8010402052