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उत्तर प्रदेश

डकैतों का मीडिया इंटरव्यू : मलखान से निर्भय तक

आज बदनामशुदा अपराधियों के इंटरव्यू छापने से भी मीडिया को परहेज नहीं है क्योंकि भले ही उनके महिमा मंडित होने की वजह से समाज का भीषण अहित होता हो लेकिन उनका इंटरव्यू सेलेबिल होता है और व्यावसायिक पत्रकारिता के दौर में खबर को प्रमुखता देने का मानक यही है कि उसमें ग्राहक को आकर्षित करने की क्षमता कितनी है लेकिन जब पंजाब और जम्मू कश्मीर का आतंकवाद नहीं आया था जिसकी धमक अपने-अपने राज्यों तक सीमित नहीं रही बल्कि देश की राजधानी और शीर्ष सत्ता केंद्रों को भी इस आतंकवाद ने अपनी चपेट में लेने का दुस्साहस किया, तब तक क्राइम की इवेंट के रूप में राष्ट्रीय स्तर तक चंबल के डकैतों से जुड़ी समाचार कथाओं की न्यूज वैल्यू सबसे ज्यादा मानी जाती थी। 

<p>आज बदनामशुदा अपराधियों के इंटरव्यू छापने से भी मीडिया को परहेज नहीं है क्योंकि भले ही उनके महिमा मंडित होने की वजह से समाज का भीषण अहित होता हो लेकिन उनका इंटरव्यू सेलेबिल होता है और व्यावसायिक पत्रकारिता के दौर में खबर को प्रमुखता देने का मानक यही है कि उसमें ग्राहक को आकर्षित करने की क्षमता कितनी है लेकिन जब पंजाब और जम्मू कश्मीर का आतंकवाद नहीं आया था जिसकी धमक अपने-अपने राज्यों तक सीमित नहीं रही बल्कि देश की राजधानी और शीर्ष सत्ता केंद्रों को भी इस आतंकवाद ने अपनी चपेट में लेने का दुस्साहस किया, तब तक क्राइम की इवेंट के रूप में राष्ट्रीय स्तर तक चंबल के डकैतों से जुड़ी समाचार कथाओं की न्यूज वैल्यू सबसे ज्यादा मानी जाती थी। </p>

आज बदनामशुदा अपराधियों के इंटरव्यू छापने से भी मीडिया को परहेज नहीं है क्योंकि भले ही उनके महिमा मंडित होने की वजह से समाज का भीषण अहित होता हो लेकिन उनका इंटरव्यू सेलेबिल होता है और व्यावसायिक पत्रकारिता के दौर में खबर को प्रमुखता देने का मानक यही है कि उसमें ग्राहक को आकर्षित करने की क्षमता कितनी है लेकिन जब पंजाब और जम्मू कश्मीर का आतंकवाद नहीं आया था जिसकी धमक अपने-अपने राज्यों तक सीमित नहीं रही बल्कि देश की राजधानी और शीर्ष सत्ता केंद्रों को भी इस आतंकवाद ने अपनी चपेट में लेने का दुस्साहस किया, तब तक क्राइम की इवेंट के रूप में राष्ट्रीय स्तर तक चंबल के डकैतों से जुड़ी समाचार कथाओं की न्यूज वैल्यू सबसे ज्यादा मानी जाती थी। 

इसके बावजूद उस समय डकैतों के इंटरव्यू करने का फैसला लेना किसी पत्रकार के लिए इतना आसान नहीं था। इस फैसले पर पहुंचने के पहले उसे धर्मसंकट और ऊहापोह की घाटी से होकर गुजरना पड़ता था। कानून के मुजरिमों को नायक के रूप में पेश करने की तोहमत अपने ऊपर मढ़ी जाने का खतरा पत्रकारों के नैतिक साहस को डिगा देता था। इसके बावजूद चंबल के डकैतों पर मुझे जीने दो जैसी हृदय स्पर्शी फिल्म बनी और मूल तौर पर सुदूर पंजाब के रूमानी लेखक होते हुए भी कृश्न चंदर ने चंबल की पहली महिला डकैत पुतली बाई पर चंबल की चमेली के नाम से बहुत ही मार्मिक उपन्यास लिखा था यानी साहित्य में भी चंबल के डकैत पूरी सहानुभूति के साथ उपस्थित थे। वजह यह थी कि कानून की निगाह में भले ही वे मुजरिम हों पर समाज जानता था कि उत्पीडऩ और अन्याय के भुक्तभोगी वे लोग डकैत बनते हैं जो नेकी में समाज के किसी भी इंसान से बहुत ऊपर हैं लेकिन जिन्हें हथियार उठाने के लिए मजबूर किया गया है। अपने बारे में लोगों का यह विश्वास न टूटे। खुद को बागी कहने वाले चंबल के डकैत इसे लेकर अपनी करनी में पूरी तरह सतर्क भी रहते थे। इसी वजह से पुराने दौर में चंबल के किसी डकैत ने कभी किसी महिला, बच्चे और गरीब को नहीं सताया।

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इसी कारण यह माना जाता था कि डकैतों के मामले में वे नहीं असल अपराधी वह व्यवस्था है जो उत्पीड़कों के आगे नतमस्तक हो जाती है। नतीजतन डकैतों के इंटरव्यू छापना दूसरे पहलू से पत्रकारों को नैतिक कर्तव्य की पूर्ति के लिए आवश्यक भी लगता था। वैचारिक और भावनात्मक जद्दोजहद के उस दौर को इस पंक्ति के लेखक ने किशोर अवस्था से शुरू की गई अपनी पत्रकारिता की शुरूआत में काफी शिद्दत से महसूस किया। चंबल के डकैतों में मैंने पहला साक्षात्कार मलखान सिंह से लिया जो कि छविराम के समकालीन सक्रिय थे। मलखान सिंह आज भी जिंदा हैं और समर्पण के बाद वे अच्छे खासे नेता भी बन गए हैं लेकिन उस समय वे चंबल के पुलिस के लिए मोस्ट वांटेड डकैत सरगना थे जिन पर एक लाख रुपए का इनाम घोषित था। उस समय की मार्केट वैल्यू के हिसाब से वह इनाम आज के एक करोड़ रुपए से भी अधिक का माना जा सकता है। जाहिर है कि ऐसे डकैत से मुलाकात हो पाना आसान बात नहीं थी। करंट के संवाददाता के रूप में आलोक तोमर और ग्वालियर में पदस्थ एक एजेंसी के बड़े पत्रकार के साथ मलखान सिंह के गांव बिलाव के पास बीहड़ों में जब हमने उससे भेंट की तो यह बेहद रोमांचक तर्जुबा था। हालांकि हमारी मुलाकात की जानकारी उस समय भिंड के एसपी रहे विजय रमन को पहले से थी। उन दिनों छविराम के समर्पण की भूमिका बन रही थी जो बाद में हुआ नहीं। वे चाहते थे कि उसी तर्ज पर मलखान को भी समर्पण के लिए रजामंद करने को कुछ सूत्र मिल जाएं इसलिए वे हमारे अंजाने में हम लोगों का इस्तेमाल इसके लिए करने का विचार बनाए हुए थे। उन दिनों मेरी और आलोक की शिक्षा पूरी नहीं हुई थी। यह भी था कि देश के अग्र गन्य पत्रकारों में शुमार हुए स्व. आलोक तोमर उन दिनों सिर्फ कविताएं लिखते थे और बेहद कम उम्र होते हुए भी उन्होंने उस समय तक हरिवंश राय बच्चन से लेकर धर्मवीर भारती तक को अपना प्रशंसक बना लिया था। बहरहाल आलोक तोमर उन दिनों मेरी वजह से पत्रकारिता की ओर आकर्षित हो रहे थे और किसी को पता नहीं था कि आगे चलकर वे कितनी चोटियों को पत्रकारिता के क्षेत्र में छुएंगे।

इस भेंट के बाद जहां एक ओर डकैतों के मानवीय पक्ष को गहनता से देखने की दृष्टि हम लोगों में मजबूत हुई वहीं एक दूसरा पक्ष भी हम लोगों ने जाना जो असल डकैत था। डकैतों को खाना मुहैया कराने से लेकर उनके हथियार और गोला बारूद तक की व्यवस्था करने वाला शरणदाता के नाम से अपराध शास्त्र में परिभाषित किया जाने वाला यह तबका डकैत समस्या में ऐसी अमरबेल बन गया था कि जब तक यह अमरबेल समूल नष्ट न होती तब तक इस समस्या का अंत संभव नहीं था। कई सफेदपोश लोग इसमें शामिल थे जो बेहद खूंखार भी थे और जिनका रहस्योद्घाटन करना अपने को जान जोखिम में डालने का काम था लेकिन पत्रकारिता उन दिनों सरफरोशी की तमन्ना का ही दूसरा नाम कहा जाता था इसलिए मलखान सिंह मिलने के बाद जहां मुझे बहुत मासूम लगे वहीं मैंने इस जरूरत को महसूस किया कि शरणदाताओं की इस शैतान नस्ल की नाक में नकेल डालने के लिए किसी भी सीमा तक जाना होगा। इसी के बाद फीचर एजेंसी संवाद परिक्रमा के माध्यम से 1981 में चंडीगढ़ के मशहूर दैनिक ट्रिब्यून में डकैतों को हथियार कौन देता है शीर्षक से मेरी एक समाचार कथा प्रकाशित हुई जिसे लगभग छह महीने बाद हिंदुस्तान टाइम्स ने अपनी संडे मैगजीन के लिए कवर स्टोरी बनाया। इस समाचार कथा ने तहलका मचा दिया क्योंकि इसमें मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में हथियारों की दुकान चलाने वाले प्रभावशाली सिंडीकेट की डकैतों को गोला बारूद की सप्लाई करने की करतूत सप्रमाण उजागर हुई। इस सिंडीकेट की जड़ें सत्ता में बहुत गहरी थीं। साथ ही मध्य प्रदेश के कई बड़े पुलिस अफसर भी इसमें शामिल थे। मेरी स्टोरी छपने के बाद विजय रमन ने मुख्यमंत्री आवास तक के निर्देशों की परवाह न करते हुए सिंडीकेट के सरगना की न केवल भिंड जिले की दुकानें सीज कर दीं बल्कि कानपुर और इटावा आदि शहरों में भी उसकी दुकानों पर उन्होंने ताबड़तोड़ छापे डाले। इस सिंडीकेट ने मुझे सबक सिखाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी लेकिन मेरी उक्त कथा इतनी प्रभावी साबित हुई कि उसी के कारण 1982 और 1983 के ऐतिहासिक दस्यु समर्पण की भूमिका तैयार हुई। साथ ही विजय रमन को उक्त कार्रवाइयों की वजह से मध्य प्रदेश के उत्तरी छोर से सीधे दक्षिणी छोर पर स्थानांतरित कर दिया गया और उनके अन्यायपूर्ण तबादले का मामला मध्य प्रदेश विधान सभा से लेकर दिल्ली तक में जमकर गूंजा।

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1983 के बाद चंबल के डकैतों के बारे में धारणाएं काफी हद तक बदलीं। इसके बाद के दौर के ज्यादातर डकैत आपराधिक मानसिकता के लोग थे नतीजतन उनकी वारदातों में भी गुणात्मक अंतर आया। उन्होंने महिलाओं बच्चों किसी को भी न बख्शने का ट्रेंड अपना लिया। समाज भी इन खलनायकों से त्राहि त्राहि कर उठा। ऐसे में सरकार का दबाव पुलिस पर इनके सफाए के लिए बढ़ा तो पुलिस बेहद सक्रिय हो गई। इस दौर में भी रामआसरे उर्फ फक्कड़ ऐसे डकैत सरगना थे जिनको लोग अलग नजरों से देखते थे। 1991 तक बीहड़ में रहते हुए भी एक तरह से उन्होंने साधु जैसा व्रत ले लिया था। उनसे कई दंत कथाएं जुड़ गई थीं इसलिए मैंने फक्कड़ से सीधी मुलाकात का तानाबाना बुनना शुरू किया। रामपुरा थाने के मिर्जापुरा गांव के पास बरसाती रात में मेरी फक्कड़ से मुलाकात होनी थी। उसी समय सामने मध्य प्रदेश के एक गांव में किसी का कत्ल हो गया और मध्य प्रदेश पुलिस व एसएएïफ का भारी दस्ता उस गांव पर धावा बोलने पहुंच गया। फक्कड़ गिरोह समेत यह देखकर खिसक गए लेकिन रात बारह बजे से सुबह पांच बजे तक का वह समय किस तरह निविड़ बीहड़ों में इन पंक्तियों के लेखक ने काटा यह अनिर्वचनीय है। दूसरी बार इस दुर्लभ माने जाने वाले डकैत से सीधे साक्षात्कार का प्रयास 1994 में मैंने फिर किया और इस बार कामयाब रहा। कुछ ही समय पहले उत्तर प्रदेश के एडीजी कानून व्यवस्था रहे मुकुल गोयल उस समय जालौन के एसएसपी थे। इटावा जिले की सरहद में फक्कड़ से मेरी भेंट हुई और दिलचस्प बात यह रही कि फक्कड़ ने उस समय मुझे बताया कि मेरा हृदय परिवर्तन हो चुका है। मैं खूनखराबे की इस जिंदगी को नमस्कार करके समर्पण करना चाहता हूं ताकि शांति से भगवान का भजन कर सकूं। मुझे उत्तर प्रदेश पुलिस पर अभी तक कोई भरोसा नहीं था लेकिन डीआईजी बीएल यादव व जालौन के एसएसपी मुकुल गोयल के बारे में मैंने जो सुना है उससे मैं समझता हूं कि अगर मैं इनके सामने हथियार डालूं तो मुझसे कोई दगा नहीं होगा। फक्कड़ के इस मंतव्य को मैंने बीहड़ से लौटकर दोनों पुलिस अफसरों को बताया लेकिन दोनों पुलिस अफसरों ने साफ कह दिया कि समर्पण कराने वे खुद फक्कड़ के सामने नहीं जाएंगे। हां अगर उसे समर्पण करना है तो वह उनके क्षेत्र के किसी थाने में कर दे। उसका एनकाउंटर नहीं होगा और न ही कोई उत्पीडऩ किया जाएगा। यह वायदा हम लोग करते हैं। 

जाहिर है कि इसके बाद समर्पण की बात आगे नहीं बढ़ी। उत्तर प्रदेश में दूसरे जो पुलिस अफसर आए उन पर फक्कड़ ने यकीन नहीं किया और सन् 2004 में उसने मध्य प्रदेश में जाकर समर्पण कर दिया। डकैतों से तीसरा मेरा इंटरव्यू निर्भय गुर्जर से हुआ। सन् 2004 में दो बार मैंने अपने इलेक्ट्रानिक चैनल के मित्रों के साथ उससे मुलाकात की। निर्भय गुर्जर ने भी समर्पण की इच्छा व्यक्त की थी लेकिन वह चाहता था कि इसके लिए उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव की उपस्थिति में समारोह हो। उस समय संयोग से दस्यु उन्मूलन के उत्तर प्रदेश के प्रभारी आईजी फिर बीएल यादव थे। एक बार बीएल यादव ने अपना पुराना रुख दोहराया। अगर निर्भय गुर्जर मुख्यमंत्री को बुलाने की जिद पर न अड़ा होता तो आज उसकी जिंदगी सलामत होती। फक्कड़ की तरह ही निर्भय गुर्जर के संदर्भ में भी बीएल यादव ने कहा था कि उसे जानी नुकसान नहीं होने दिया जाएगा लेकिन उसको समर्पण किसी थाने में ही करना होगा लेकिन असली मुद्दा यही है कि डकैतों, माफियाओं व इसी तरह के अन्य बड़े अपराधियों का साक्षात्कार लेकर मीडिया को उन्हें हीरो बनने का अवसर देना कितना उचित है और कितना अनुचित है। मैं सिर्फ यही कहूंगा कि जब पहली बार मलखान सिंह का इंटरव्यू हम लोगों ने किया था तब हम लोग जितने निष्पाप थे निर्भय गुर्जर के इंटरव्यू तक आते आते हमारी स्थिति वह नहीं रही। हम भी कहीं न कहीं व्यवसायिक पत्रकारिता की गुमराह गलियों में भटकने से अपने को नहीं रोक पाए।

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केपी सिंह से ई-मेल संपर्क : [email protected]

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