हिन्द स्वराज्य नामक किताब में गांधी ने मार्क्सवादी विचारधारा का समर्थन करते हुए लिखा ‘‘गरीब हिन्दुस्तान तो गुलामी से आजाद हो सकेगा, लेकिन अनीति से पैसे वाला बना हुआ हिन्दुस्तान कभी गुलामी से नहीं छुटेगा‘‘, हम चाहें तो आजादी के असलीपन और नकलीपन से सहमत या असहमत हो सकते हैं। लेकिन हिन्दुस्तान अनीति से भर गया है।
इससे असहमति मुश्किल है। हम शेयर के सूचकांको और ग्रोथ रेट की तालिकाओं से भ्रमित हो सकते हैं लेकिन रेलवे स्टेशनों, फुटपाथों, बाजारों की दुकानों पर हाथ पसारे गिडगिडाते बच्चों, बूढों और औरतों, आत्महत्या करते किसानों, नगरों में बुनियादी सुविधाओं के अभाव में जीवनयापन कर रहे नागरिकों और करोडो बेरोजगार युवाओं को नहीं भूल सकते। हम नहीं भूल सकते कि संसदीय राजनीति में कैसे-कैसे चक्र-कुचक्र रचे जाते हैं, कि नौकरशाही किस तरह से देश-लूट में संलग्न है, कि न्यायपालिका के दरवाजे पर आम लोगों को न्याय नहीं मिलता। सब मदमस्त हैं, सभी क्षेत्रों में गैरबराबरी है, हिंसा का ताण्डव, भय और नफरत का माहौल है। ऐसी आजादी क्या सचमुच में आजादी है?
जहां सरकारे पूंजीपतियों का जोर-शोर से स्वागत कर रही हैं, पूंजी निवेश के नाम पर देशी-विदेशी कम्पनियों को देश के संसाधनों के दोहन के लिए न्यौता दे रही हैं और सबसे बडी बात कि देश के पास न इसके लिए अपना कोई स्वतंत्र नियम है, न कानून। सरकारी तंत्र अब तंत्र न रहकर अव्यवस्था बन गया है। सरकार के विकास के दावे झूठे साबित हो रहे हैं क्योंकि नई-नई विकासोन्मुखी परियोजनाओं का क्रियान्वयन इस भ्रष्टाचारी व्यवस्था में कागजों पर अधिक और जमीन पर कम किया जाता है। वर्ष 2014 में भारतीय राजनीति चुनाव के दौर से गुजरी, राजनीतिक पार्टियों ने तरह-तरह की कवायद करी। चुनावी दंगल में कहीं सभाएं, रैलियां, धरने, सम्मेलन और नेताओं के वादों से पूते हुए पोस्टर, पार्टी के झण्डों से लदे हुए चैराहे नजर आए। इस देश का लोकतंत्र त्यौहार मना रहा था, लेकिन यह लोकतंत्र केवल चुनाव तक ही सिमट कर रह गया है। आज का जनमत केवल नेताओं को कुर्सी तक पहुंचाने का काम कर रहा है। नेता हर काम करने की बात करते हैं कोई ‘भारत उदय‘ की बात करता है तो कोई देश को शंघाई और सिंगापुर बनाने की बात करता है। इसके विकास की योजनाएं और नीतियां भी बनाई जाती है खरबों रुपया इस विकास के नाम पर खर्च किया जाता है और इससे दुगुना पैसा जनता से वसूला भी जाता है। कानून से अपने नेताओं को बचाने के लिए संविधान को संशोधित और पूर्ण रूप से शर्मसार करने वाली हमारी सरकार मौजूदा राजनीति में केवल सत्ता में काबिज होने के लिए जमकर झूठ और आडम्बर का प्रचार कर रही है, विश्वासमत के लिए वोटों की खरीद-फरोख्त करने वाली कांग्रेस के अंदर मनमोहन सिंह की हालत चालीस चोरों में अलीबाबा जैसी रही। ठीक है कि अलीबाबा की छवि चालीस चोरों से अच्छी है, पर कांग्रेस में तो सत्ता और नैतिकता का तो कोई मेल ही नही है। कांग्रेस ने नैतिकता तभी त्याग दी थी जब उसने आजादी के पहले गांधी को छोडकर सत्ता का दामन थाम लिया था वरना जीवन के अंतिम वर्षों में गांधी अपनी मृत्यु की मांग नही करते। कांग्रेस के लिए गांधी का सुझाव था कि आजादी मिल जाने पर कांग्रेस का उद्देश्य पूरा हुआ, लिहाजा नई परिस्थितियों में नए दलों का गठन किया जाना चाहिए, इस कथन को कांग्रेस ने सठियाए बुढे का विचार मानकर कूडे में डाल दिया। तब से कांग्रेस का चरित्र एक गिरोह का है। यह सत्ता में काबिज होने के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार है, परमाणु समझौता करके लोकतंत्र को अमेरिकी हितों के आगे गिरवी रखा जा रहा है।
यह ठीक है कि भारत एक लोकतांत्रिक, धर्म निरपेक्ष गणराज्य है। लेकिन यह भी उतना ही सही है कि इसके निवासियों में अनेक ऐसे हैं जो इस विचार से सहमत नहीं हैं। एक अच्छे खासे तबके की यह समझ रही हैं कि इसे हिन्दू राष्ट्र होना चाहिए उनका संगठनात्मक प्रतिनिधित्व राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और पहले जनसंघ और अब भारतीय जनता पार्टी करती है। खुद को जायज और भारतीय राष्ट्र के अनुकूल मानने वाले बी.जे.पी के नेता जिस तर्क पर सिमी जैसे संगठन को प्रतिबंधित करने की मांग करते हैं, उन्हें यह याद रखना चाहिए कि उस सिद्धांत पर उनका बने रहना भी असंभव हो जायेगा। सिमी नामक संगठन जिस जीवन मूल्य और राज्य के सिद्धांत की वकालत कर रहा है, उसका जवाब वह नहीं है जो भारतीय सरकार उस पर प्रतिबंध लगाकर दे रही हैं। हिन्दू राष्ट्र के सिद्धांत का प्रचार क्यों भारत में सही है और इस्लामी गणतंत्र का क्यों नहीं? संसदीय लोकतंत्र की बुनियादी शर्त हैं साधारण जन की बुद्धि पर यकीन करना और उसे उसकी आजादी देना कि वह विचारों के लोक मे बेरोक-टोक विचरण कर सके। खैर ये तो हुई सैद्धांतिक बात जो वास्तविकता से परे है।
हम पर यह संसदीय लोकतंत्र सत्ता विचार को थोपने का काम करती हैं और आज का अपना चरित्र खो चुका मीडिया, उस विचार का प्रचार-प्रसार करता है और मूल सवालों को खडे ही नहीं होने देता। जिस मीडिया को लोकतंत्र का चैथा स्तम्भ बनाने की बात होती हैं। वह पहले या दूसरे स्तम्भ का पिछलग्गू होकर अपनी सुविधा टटोल रहा है? या फिर उस पूंजी के मुनाफे में मीडिया की हिस्सेदारी है जिस पर संसदीय राजनीति आश्रित होती जा रही है। सब कुछ तो सत्ता के कब्जे में है अब जनता किसको जाकर गुहार लगाए?
गौरतलब है एक बात अक्सर सरकार के गले नहीं उतरती, वो यह कि चुनाव के समय अधिकतर मतदाता अनुपस्थित रहने की बजाय मतदान केन्द्र पर आकर कोरा मतपत्र क्यों बक्से में डालते हैं? और चुनाव का कोई परिणाम न निकलने पर सरकार पुनः मतदान करवाती है जिसका नतीजा और अधिक कोरे मतदानों के रूप में सामने आता है। आज भी सरकार के लिए यह एक रहस्य है। मतदाता आखिर क्यों किसी भी राजनीतिक दल को अपनाता नही? मतदाता हर दल को नकारता है उसका तिरस्कार करता है। इसका अर्थ तो यह हुआ कि जनता बहरी नहीं है उसमें राजनैतिक चेतना तो है। देश में राजनीतिक-आर्थिक परिस्थितियों के पकने के साथ-साथ आवाम की यही चेतना बगावत के रूप में उभरेगी और व्यवस्था परिवर्तन की लहर इसी लोकतंत्र से निकलेगी और अन्ततः यही लोकतंत्र 21वीं सदी के समाजवाद की स्थापना करेगा। इसके लिए अवाम को खुद ही अपने जनतांत्रिक अधिकारों को चुनाव से आगे बढकर समझना होगा और इन सफेदपोश भेडियों को भी नाकों चने चबवाना होगा। इस बारे में शहीदे आजम भगतसिंह के विचार आज भी सामायिक लगते है – ‘‘क्रांति का मतलब है जनता के लिए जनता का राजनीतिक शक्ति हासिल करना। वास्तव में यही क्रांति है बाकी सभी विद्रोह तो सिर्फ मालिकों के परिवर्तन द्वारा पूंजीवादी सडांध को ही आगे बढाते है।‘‘