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सियासत

अमरीका-वियतनाम युद्ध को कवर करने वाले एकमात्र भारतीय पत्रकार थे हरिश्चन्द्र चंदोला

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हरिश्चन्द्र चंदोला ने वर्ष 1950 में दिल्ली से प्रकाशित हिन्दुस्तान टाइम्स से अपने पत्रकारिता कैरियर की शुरूआत की। यह वह समय था, जब देश को आजाद हुऐ ज्यादा समय नहीं हुआ था। भारत में संचार माध्यमों का खास विकास नहीं हुआ था। मुद्रित माध्यमों में भी ज्यादातर अंग्रेजी अखबार ही प्रचलन में थे। उसमें भी टाइम्स ऑफ इंडिया, हिन्दुस्तान टाइम्स व इंडियन एक्सप्रेस ही प्रमुख अखबारों में थे। ऐसे में देश के प्रमुख समाचार पत्र में नौकरी मिलना हरिश्चन्द्र जी के लिए अच्छा मौका था। हरिश्चन्द्र जी की पारिवारिक पृष्ठभूमि पत्रकारिता से जुड़ी रही। यही कारण रहा कि उन्होंने देश के नहीं बल्कि विदेशी समाचार पत्रों में भी लेख लिखे। चंदोला विश्व के प्रमुख युद्ध पत्रकारों में पहचाने जाते हैं। उन्होंने सन् 1968 से लेकर 1993 तक के सभी महत्वपूर्ण युद्धों व क्रांतियों के बारे में घटना स्थल पर जाकर लिखा।

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हरिश्चन्द्र चंदोला ने वर्ष 1950 में दिल्ली से प्रकाशित हिन्दुस्तान टाइम्स से अपने पत्रकारिता कैरियर की शुरूआत की। यह वह समय था, जब देश को आजाद हुऐ ज्यादा समय नहीं हुआ था। भारत में संचार माध्यमों का खास विकास नहीं हुआ था। मुद्रित माध्यमों में भी ज्यादातर अंग्रेजी अखबार ही प्रचलन में थे। उसमें भी टाइम्स ऑफ इंडिया, हिन्दुस्तान टाइम्स व इंडियन एक्सप्रेस ही प्रमुख अखबारों में थे। ऐसे में देश के प्रमुख समाचार पत्र में नौकरी मिलना हरिश्चन्द्र जी के लिए अच्छा मौका था। हरिश्चन्द्र जी की पारिवारिक पृष्ठभूमि पत्रकारिता से जुड़ी रही। यही कारण रहा कि उन्होंने देश के नहीं बल्कि विदेशी समाचार पत्रों में भी लेख लिखे। चंदोला विश्व के प्रमुख युद्ध पत्रकारों में पहचाने जाते हैं। उन्होंने सन् 1968 से लेकर 1993 तक के सभी महत्वपूर्ण युद्धों व क्रांतियों के बारे में घटना स्थल पर जाकर लिखा।

हरिश्चन्द्र ने अपनी पत्रकारिता के अधिकतम समय तक देश व देश के बाहर कई युद्धों व क्रांतियों को देखा और उस पर लिखा। उन्होंने युद्ध पत्रकारिता उस दौर में की जब जनसंचार माध्यमों का विकास ऐसा नही था जैसा वर्तमान में है। आज जनसंचार माध्यम अत्याधुनिक सुविधाओं से जुड गये हैं। विश्व के किसी भी कोने में यदि कोई घटना होती है तो पलभर में इसकी पूरी जानकारी लोगों को हो जाती है। लेकिन जब हरिश्चन्द्र ने पत्रकारिता में कदम रखा तो उस समय सीमित संसाधन थे और समाचारों के संप्रेषण में काफी दिक्कतें आती थी। अब यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि हरिश्चन्द्र ने किन और कैसी परिस्थितियों में पत्रकारिता की होगी। रणभूमि में जाकर जान की परवाह किये बगैर रिर्पोटिंग करना, इस बात की तस्दीक करता है कि पत्रकारिता के प्रति वो कितना संजीदा रहे हैं। चंदोला ने नागा समस्या को भी भूमिगत नागाओं के बीच में जाकर लिखा। 1979 में जब चीन ने वियतनाम पर हमला किया तो हरिश्चन्द्र चंदोला विश्व के दो पत्रकारों में एक थे, जो घटना की कवरेज के लिए सरहद पर पहुंचे। इसके एक साल बाद वो मिडिल ईस्ट में ईरान व ईराक युद्ध को कवर करने गये।

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1- अमेरिका – वियतनाम युद्ध

यह युद्ध काफी लम्बे समय तक चला। हरिश्चन्द्र चंदोला ने इसका विवरण अपने समाचार पत्र जिसके वो प्रतिनिधि थे इंडियन एक्सप्रेस के अलावा भारत व विदेश के अन्य समाचार पत्रों के लिए भी लिखा। युद्ध भूमि में जाकर कवरेज करने वाले विश्व के गिने चुने पत्रकारों में वो भी एक थे। इस दौरान उन्होंने कई महत्वपूर्ण खबरें लिखी। कई बार उन्होंने अमेरिकन सैनिकों के साथ बखतरबंद गाड़ियों व हैलिकाप्टर में बैठकर रिपोंटिग की। दो तीन बार ऐसे मौके भी आये जब मौत उनके करीब से होकर गुजरी। अमेरिका वियतनाम युद्ध की लगातार कवरेज करने वाले वो एकमात्र भारतीय पत्रकार थे। इस दौरान हरिश्चन्द्र ने कई युद्ध प्रभावित वियतनामी क्षेत्रों का भी दौरा किया। इस युद्ध में अमेरिकी सेना द्वारा युद्ध पत्रकारों को पास दिये गये थे। लेकिन इसके लिए कुछ शर्तें भी थीं। इस युद्ध में पत्रकारों के लिए अमेरिकी सेना ने काफी सुविधाएं उपलब्ध कराई थी। सैनिक छावनी में ठहरने की व्यवस्था थी। सैनिक कैंटीन से रियायती दरों पर पत्रकार को दिये गये पास दिखाकर सामान खरीद सकते थे। जो पत्रकार कवरेज के लिए युद्ध स्थल में जाना चाहता था, उसके लिए हैलीकाप्टर की सुविधा हर समय उपलब्ध थी।

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2- ईरान ईराक युद्ध

ईरान-ईराक युद्व 1980 में छिड़ गया था। यहां सबसे पहले हरिश्चन्द्र ने कुवैत में भारतीय मजूदरों की व्यथा पर इंडियन एक्सप्रेस में लिखा। इसका असर यह हुआ कि इससे भारत का विदेश मंत्रालय हरकत में आया। 8 साल तक चली इस लड़ाई का हाल हरिश्चन्द्र ने दोनों देशों में जाकर लिखा। युद्ध पत्रकार के रूप में उनका यह दूसरा महत्वपूर्ण महत्वपूर्ण युद्ध था। कई सालों तक चले इस युद्ध की उन्होंने रणभूमि में जाकर रिपोंटिग की। उस समय ईराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के खिलाफ लिखने वाले पत्रकारों को ईराक में आने पर पाबंदी थी। लेकिन हरिश्चन्द्र ने सद्दाम के खिलाफ खबर लिखने के बावजूद उनके क्षेत्र में गये और बेबाकी से लेखनी चलाई। हजबजा नरसंहार तथा मृत्युलोक की इंडियन एक्सप्रेस में लिखी उनकी रिर्पोट ने काफी हलचल मचाई। इस युद्ध की समाप्ति के बाद विश्व के सभी युद्ध पत्रकार अपने अपने देशों में लौटकर जब आने देश के समाचार पत्रों में बड़ी-बड़ी खबरें लिख रहे थे, तब हरिश्चन्द्र ने मानवीय संवदेना व एक कुशल पत्रकार का धर्म निभाते हुए ईरान के युद्ध प्रभावितों के कैंप में गये और प्रभावितों की समस्यओं की ओर पूरे विश्व का ध्यान खींचा। उन्होनें अपनी खबरों में लिखा कि कैसे प्रभावित लोग सूखे ब्रेड व खजूर के सहारे दिन काट रहे हैं। उनकी इस रिपोंटिग को पत्रकारिता जगत द्वारा काफी सराहा गया।

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3- कुवैत पर ईराकी हमला

1 अगस्त 1990  की रात 2 बजे ईराक की रिपब्लिकन गार्ड की छह डिविजन सरहद पार कर कुवैत में दाखिल हो गई। उस घटना की जानकारी मिलते ही हरिश् ने इसका विवरण समाचार पत्रों में भेजा। चूंकि खाड़ी युद्ध के समय हरिश्चन्द्र इस क्षेत्र में लम्बे समय तक रहे थे इसलिए उन्हें कवरेज में ज्यादा दिक्कतें नहीं आई। पत्रकार हरिश्चन्द्र चंदोला ने भारतीय दूतावास के गायब हो जाने की खबर लिखी। दूसरे दिन दिल्ली में इस खबर के छपने के बाद विदेश मंत्रालय पता लगाने लगा कि आखिर दूतावास कहां गया। इस युद्ध की खबरें भी कई समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई।

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4- फ्रांस-अल्जीरिया संघर्ष

फ्रांस और अल्जीरिया के बीच लम्बे समय तक संघर्ष चला। हरिश्चन्द्र ने इस पूरे संघर्ष का ब्यौरा भारत के अलावा चिश्व के कई अन्य प्रमुख समाचार पत्रों में भेजा। एक बार जब वो खबर भेज रहे थे कि तभी फ्रांसिसी सैनिकों ने अल्जीरियनों पर आक्रमण कर दिया। कुछ पलों में सडकें खून से लाल हो गई। किसी तरह हरिश्चन्द्र इस घटना में बचे।

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इसके अलावा हरिश्चन्द्र ने एक युद्ध पत्रकार के तौर पर कई जनक्रांतियों, संघर्षो व युद्धों को युद्ध भूमि व घटना स्थल पर जाकर लिखा। हरिश्चन्द्र जिम्बाबबें से अल्जीरिया गये। यहां फ्रांसासी साम्राज्य के खिलाफ वहां के लोगों का हथियारबंद युद्ध चल रहा था। हरिश्चन्द्र फ्रांस और अल्जीरिया लड़ाकुओं के 18 मार्च 1962 के युद्ध विराम से पहले वहां पहुंचे और यहां के हालात पर उन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया के लिए खबर लिखी। उस समय यहां का माहौल काफी संवेदनशील था। सड़कों पर चलने वाले अल्जीरियनों पर अपने घरों से फ्रांसिसी गोलियां चला उन्हें मार रहे थे। शहर में कई दिनों तक कर्फ्यू लगा रहा। ऐसे में खबर करना जान जोखिम में डालने से कम नहीं था, लेकिन हरिश्चन्द्र निरंतर इससे संबधित समाचार भेजते रहे।

एक दिन फरवरी की ठंडी सुबह जब वो पास के पहाड़ी के डारघर में खबर भेजने गये थे कि तभी नीचे से अल्जीरियनों का एक जलूस नारे लगाते आ रहा था। तारघर के पास बड़ी संख्या में फ्रांसिसी सशस्त्र पुलिस खड़ी थी, जिसका काम जलूस को आगे आने से रोकना था। वो तारघर से बाहर निकल ही रहे थे कि तभी गोलीबारी शुरू हो गई। कुछ ही देर में सड़क खून से लाल हो गई। कई अल्जीरियन सड़क पर मरे पड़े थे। हरिश्चन्द्र ने आंखों देखी इस घटना की खबर कई समाचार पत्रों को भेजी।
 
उपरोक्त के अतिरिक्त हरिश्चन्द्र ने इजरायल से अरबों की लडाई, फिलीस्तीनी क्रांति को भी कवर किया।

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नागा भूमि का संघर्ष

हरिश्चन्द्र ने 1954 से 1960 के बीच चार सालों तक द टाइम्स ऑफ इंडिया के उत्तरपूर्व संवाददाता के तौर पर काम किया। इस दौरान उन्होंने उत्तरपूर्व की कई महत्वपूर्ण समस्याओं और घटनाओं को समाचार पत्र के माध्यम से लोगों के सामने लाया। इसमें नागाओं की लडाई महत्वपूर्ण थी।

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नागालिम या नागा भूमि की लड़ाई विश्व की सबसे लंबी चली गुरूल्ला लड़ाईयों में एक है। सन् 1955 से प्रांरभ हुई लड़ाई के आज 56 साल हो चुके हैं। यह आने सामने में लड़ाई नहीं रही। बल्कि छिट-पुट गुरिल्ला युद्ध रहा। वर्ष 1997 से यहां युद्ध विराम है।
 
शुरूआत में नागाओं की लड़ाई राजनीतिक ही रही। सन् 1947 में भारत के अधिकार में आने के बाद नागाओं ने आंरभ के दशकों में आजादी अलावा कुछ नहीं मांगा। उल्लेखनीय है भारत सरकार व नागाओं के बीच कई दौर की वार्ताएं चली लेकिन इसका कोई समाधान नहीं निकल पाया। पत्रकार हरिश्चन्द्र चंदोला ने चार साल तक टाइम्स आफ इंडिया के लिए यहां से खबर लिखी। उन्होंने नागा गुरूल्लाओं के क्षेत्र में जाकर कई विवरण लिखे। वर्ष 1964 से 1968 तक वो भारत सरकार व नागाओं के बीच शांति वार्ता के सदस्य भी रहे। पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी के अनुरोध पर हरिश्चन्द्र इस वार्तादल के सदस्य बने थे।

 

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बृजेश सती

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0 Comments

  1. purushottam asnora

    October 15, 2014 at 3:09 pm

    आधी सदी से अधिक की सक्रीय और विशेषज्ञ पत्रकार हरीश चन्द्र चंदोला सादगी और सहृदयता की मिसाल हैं। वियतनाम, रोडेशिया, ईरान-इराक सहित अर्द्धशती के बडे युद्धों को कवरेज करने वाले दिग्गज पत्रकार श्री चंदोला किस सादगी से उत्तराखण्ड के एक छोर जोशीमठ में निवास करते हैं यह उन्हीं के बूते है। आज छोटा-बडा कोई भी व्यक्ति देहरादून या दूसरे नगरों-महानगरों की दौड में शामिल है वही लेखनी, प्रतिष्ठा और प्रभाव के धनी हरीश चन्द्र चंदोला उत्तराखण्ड की समस्याओं से जूझते, समाधान तलाशते अपनी दृढ इच्छा शक्ति का परिचय दे रहे हैं।
    नेता-नौकरशाहों की परिक्रमा करने वाली आज की पत्रकार विरादरी के लिए वे ऐसी साख हैं जिनकी पहुंच तत्कालीन प्रधानमत्री लालबहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी तक सीधे थी और पूर्वोत्तर विशेषरुप से नागा समस्या के समाधान के लिए शास्त्री जी ने लंदन से बुलाया उस समय वे टाइम्स अखवार के लिए काम कर रहे थे। ऐसा कोई पत्रकार देश दुनिया का है जिसे पुलिस के चंगुल से छुडाने के लिए नागा महिला अपना बेटा करार देती है और कबाईली रस्म के अनुसार खेत उनके नाम कर सचमुच बेटा बना देती है। ये है पत्रकार के सरोकारों से जुडने का एकमात्र उदाहरण।
    श्री चंदोला की यह उदारता और सादगी है कि वे उत्तराखण्ड के हर उस छोटे- बडे पत्र- पत्रिकाओं में अनवरत लिख रहे हैं जो उनकी प्रतिष्ठा के शतांश भी नही हैं, उनका बडप्पन देखें उनके लेखों में देश- दुनियां के युद्धों को कवर करने का पाडित्य नही होता, हर समस्या, शासन-प्रशासन की नीति-कुनीति, जनता की समस्याऐं और समाधान उनकी चिन्ता के विषय होते हैं। न केवल उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन बल्कि हर छोटे-बडे आन्दोलन में वे यथा शक्ति सहयोग व समर्थन करते रहे हैं। ऐसे दिग्गज पत्रकार, जागरुक नागरिक और अभिभावक का स्नेह हमें और हमारी पत्रिका रीजनल रिपार्टर को मिलता है, हमारा सौभाग्य है। देश की पत्रकारिता और पत्रकार उनसे कुछ ग्रहण कर सकें तो पत्रकारिता और मानवता के लिए भी शुभ होगा। ईश्वर उन्हें लम्बी उम्र दें।

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