पंद्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी यदि सरकारी आयोजन न होते तो पब्लिक इन्हें कब का भुला चुकी होती। लेकिन कुछ ऐसी तिथियां हैं जिन्हें राजनीति तब तक भूलने नहीं देगी जब तक कि इस देश का अस्तित्व है। इन तारीखों में सबसे ऊपर है 25 जून 1975। इस दिन देश में आपातकाल घोषित किया गया था।
आपातकाल पर मेरे दो नजरिए हैं, एक- जो मैंने देखा, दूसरा जो मैंने पढ़ा और सुना। चलिए पहले से शुरू करते हैं। वो स्कूली छुट्टी के दिन थे, मैं गाँव की स्कूल से सातवीं पास कर आठवीं में जाने के लिए तैयार हो रहा था। 25 जून को गांव में खबर पहुँची कि मीसाबंदी हो गई। शाम को लोग चौगोला बनाकर रेडियो के पास बैठकर खबरें सुनते कि इंदिरा जी ने क्या कहा..। मुझे जहाँ तक याद है, इंदिरा जी ने कहा था कि देश आंतरिक संकट से जूझ रहा है, कुछ विघटनकारी शक्तियाँ देश को बरबाद करने के लिए तुली हैं इसलिए अब संयम और अनुशासन का समय आ गया है।
दूसरे दिन से खबरें आना शुरू हो गई कि पुलिस ने गुंडों की धरपकड़ शुरू कर दी है। हमारे इलाके के कई नामी गुंडे पकड़कर जेल भेज दिए गए। कई व्यापारियों, जमाखोरों के यहां भी छापे पड़े। पुलिस उन्हें पकड़कर थाने ले गई। इमरजेंसी की जिस तरह से शुरुआत हुई गांव-शहर के लोगों ने अमूमन स्वागत ही किया।
सरकारी मुलाजिम समय पर दफ्तर जाने लगे, मास्टर स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने लगे। अपने गांव के ही दो सरकारी मुलाजिम जो शहर में दफ्तर में बाबू थे, दस-दस रुपए की घूस लेते हुए पकड़े गए और मुअत्तल कर दिए गए। मीसा की दहशत का आलम यह था कि खेतों में काम करने वाले हरवाह भी पूरे वक्त मेहनत करते क्योंकि उनके किसान मालिक यह कहते हुए धमकाते थे कि कामचोरी करोगे तो पुलिस मीसा में बंद कर देगी। गांव से शहर जाने वाली बसें इतनी पाबंद हो गईं कि उनके आने-जाने पर आप घड़ी मिला लें।
कुलमिलाकर इमरजेंसी की जो पहली छाप पड़ी वह पटरी से उतरी व्यवस्थाओं को ठीक करने की थी। हां गांव में यह खबरें आ ही नहीं पाती थीं कि कहां से किस नेता को, किस गुनाह में गिरफ्तार किया गया। गांव के आसपास रहने वाले छुटभैया नेताओं के यहां जब पुलिस पूछताछ के लिए या गिरफ्तार करने पहुँचती तो जरूर चर्चा शुरू होती कि मीसा तो गुंडों को पकड़ने के लिए है लेकिन नेताओं को क्यों पकड़ा जा रहा है। गाँव की चौपालों में शुरू हुई फुसफुसाहट बाद में चर्चाओं में बदल गई कि इंदिरा जी अपने और अपनी पार्टी के विरोधियों को भी ठिकाने लगा रही हैं।
अपना विंध्य शुरू से ही समाजवादियों का गढ़ रहा है। डा.राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण का यहां बहुत प्रभाव था। आपातकाल के पहले इंदिरा जी के खिलाफ अभियान का नेतृत्व जेपी ही कर रहे थे लिहाजा पूरे मध्यप्रदेश में जेपी आंदोलन का सबसे ज्यादा असर इसी क्षेत्र में था। यहां के युवा और छात्र जेपी के आंदोलन से जुड़े। उन दिनों अखबारों में पहले से आखिरी पेज तक इंदिरा जी की तारीफ और एक ही जादू- कड़ी मेहनत, दूरदृष्टि, पक्का इरादा जैसे उपदेशक नारे छपते थे। संजयगांधी की फोटो और उनके भाषण इसी दौरान अखबारों में पढ़ा। यह भी जाना कि ये इंदिरा गांधी के बेटे हैं।
हमारे इलाके के दो बड़े नेता थे श्रीनिवास तिवारी और यमुनाप्रसाद शास्त्री। तिवारी जी 72 में सोशलिस्ट छोड़कर काँग्रेस में शामिल हो चुके थे। वे हमारे मनगँवा क्षेत्र से विधायक थे। वे क्षेत्र में काँग्रेस के लिए सभाएं कर जनता को अपने भाषणों में बता रहे थे कि देश के भीतर किस तरह विघटनकारी तत्व काम कर रहे हैं। वे सभाओं में जयप्रकाश नारायण के खिलाफ आग उगल रहे थे। यह बाद में जाना कि तिवारी जी सोशलिस्ट में जेपी के शिष्य रहे हैं।
74 में मध्यप्रदेश की विधानसभा में दिए गए उनके एक भाषण की प्रति भी हाथ लगी जिसमें उन्होंने जेपी को राष्ट्रद्रोही बताते हुए गिरफ्तार करने की माँग की थी। बाद में एक बार तिवारी जी से मैंने पूछा कि जिन जयप्रकाश नारायण ने जोशी-यमुना-श्रीनिवास का नारा दिया था उन्हें ही बाद में आपने राष्ट्रद्रोही बताया। इस पर तिवारीजी ने जवाब दिया था कि मैं राजनीति में दोहरी प्रतिबद्धता पर यकीन नहीं करता, तब सोशलिस्टी था अब काँग्रेसी हूँ। आपातकाल के सवाल पर अन्य समाजवादी पृष्ठभूमि के कांग्रेसी नेताओं के विपरीत तिवारीजी पूरी ताकत के साथ इंदिरा जी के फैसले के पक्ष में थे।
दूसरे नेता थे यमुनाप्रसाद शास्त्री। वे सिरमौर से अपने ही शिष्य काँग्रेसी युवा राजमणि पटेल के हाथों चुनाव गँवा चुके थे। शास्त्री जी की एक आँख गोवा में पुर्तगालियों के दमन में ही जा चुकी थी दूसरी आँख में भी तकलीफ शुरू हो चुकी थी, उसका इलाज चल रहा था, इसलिए वे गिरफ्तारी से बचे रहे। शास्त्रीजी बीमारी हालत में भी आपातकाल के खिलाफ सक्रिय थे। उनके गृहगाँव सूरा का घर अंडरग्राउंड फरारी काट रहे नेताओं की शरणस्थली रहा। कम लोगों को ही मालूम होगा कि 74-75 में नेपाल के प्रमुख नेता गिरजाप्रसाद कोयराला का पूरा परिवार सूरा में ही शरण लिए हुए था। नेपाल में भी भारत जैसे हालात थे।
इंदिरा सरकार द्वारा बडोदा डायनामाइट केस के मुजरिम बनाए गए जार्ज फर्नांडिस ने भी यमुनाप्रसाद शास्त्री के गांव वाले घर में महीनों फरारी काटी थी। बाकी जितने भी सोशलिस्टी और जनसंघी थे सब जेल में थे। एक दर्जन से ज्यादा युवा छात्र ऐसे भी थे जो कालेज में फर्स्ट इयर पढ़ रहे थे, जेल भेज दिए गए। कइयों के परिजनों को छह महीने बाद खबर लगी कि वे जेल में हैं।
आपातकाल की गिरफ्तारी में पूरा समाजवाद था, नेता, गुंडे, चोर-उचक्के, कालाबाजारिए सभी जेल में एक भाव थे। बाद में उनमें से कइयो में ऐसा ट्राँसफार्मेशन हुआ कि वे जेल तो गए गुंडे के रूप में निकले नेता बनकर। जिन्हें बाद में टिकट भी मिली और वे फिर नेता बन गए। आज उन सबों को केंद्र व राज्य सरकारें अच्छा खासा पेंशन दे रही हैं।
बहरहाल एक दिन गांव में खबर फैली की रीवा सेंट्रल जेल में गोली चली है और सबके सब मीसाबंदी मार डाले गए। खबर की पुष्टि का कोई आधार भी नहीं था। अखबार साफ-साफ कुछ नहीं लिखते थे। धीरे-धीरे खबर साफ हुई कि जेल में रीवा कलेक्टर धर्मेंद्रनाथ को मीसाबंदियों ने लात जूतों से जमकर पिटाई की। वजह यह कि कलेक्टर ने जेल में अव्यवस्थाओं को लेकर अनशन पर बैठे समाजवादी नेता कौशल प्रसाद मिश्र के साथ बदसलूकी कर दी जिससे गुस्सा कर उनके अनुयायियों ने कलेक्टर की पिटाई कर दी थी।
भला हो उस एसपी का जिसने गोली चलाने के कलेक्टर के आदेश को मानने से मना कर दिया वरना गांव में पहुँची कत्लेआम की वह खबर बिल्कुल ही सच साबित होती। बहरहाल लगभग सभी मीसाबंदियों को कड़ी यातनाएं दी गई। रात को कंबल परेड हुई, दूसरे दिन दुर्दांत अपराधियों की तरह आडा-बेडी लगाकर प्रदेश की दूसरी जेलों में शिफ्ट किया गया। इस घटना का पूरा ब्योरा 1978 में रीवा के ऐतिहासिक व्येंकटभवन में तब सुनने को मिला जब यहां इमरजेन्सी के जुल्मों की सुनवाई करने शाह कमीशन आया था।
सन् 76 में मैं नवमी पढ़ने गांव से शहर आ गया। रीवा के माडल स्कूल में दाखिला मिल गया। हम देहातियों के लिए यह किसी दून स्कूल से कम न थी। पहली बार जब स्कूल परिसर में घुसा तो उसकी सफेद दीवारों पर वो नारे लिखे पटे थे जो इमरजेंसी में संजयगांधी ब्रिगेड ने गढ़े थे। हर क्लास रूम के बाहर दूर दृष्टि पक्का इरादा.. दिख रहा था। स्कूल में नसबंदी वाले भी नारे लिखे थे। हम छात्र आपस में मजाक करते कि सरकार शादी करने में ही बैन लगा दे- रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी..।
अखबारों में रोज नसबंदी शिविरों की खबरें पढ़ते थे। बढचढकर आँकड़े आते थे कि संजय गांधी की प्रेरणा से गाँव के गाँव ने नसबंदी करा ली। पटवारी, कानूनों खसरा खतौनी छोड़कर नसबंदी का लक्ष्य हाँसिल करने में भिड़े थे। काँग्रेस के नेता लोग नसबंदी शिविरों का उद्घाटन करते थे और नसकटवाए लोगों के साथ मुसकराते फोटो खिंचवाकर छपवाते थे। अखबारों में पूरा रामराज चल रहा था। पर फुसफुसाहट के साथ ये खबरे आने लगीं कि जबरिया नसबंदी की जा रही है। जिले में ही कई कुँवारों की नसबंदी कर दी गई। मुझे याद है वो वाकया कि मेरे एक परिचित पटवारी के यहां पति-पत्नी बंटवारे की पुल्ली लेने आए। पटवारी साहब को कुछ रिश्वत देने लगे तो उन्होंने मना करते हुए कहा- पहिले कटवारा फेरि बँटवारा..। याने कि पहले दोनों नसबंदी करवा लो फिर बँटवारा की पुल्ली फोकट में दे देंगे।
संजय गाँधी के पाँच सूत्रीय कार्यक्रम कलेक्टरों के लिए ब्रह्मवाक्य की तरह थे। नसबंदी भी एक सूत्र था। इस सूत्र ने देशभर के हजारों, लाखों कुँवरों और बे औलादों की नसबंदी करवा दी। एक भय का माहौल पैदा हो गया कि किसी को पकड़कर कहीं भी नसबंदी की जा सकती है। इमरजेंसी को इस सूत्र ने आम जनता के बीच सबसे ज्यादा बदनाम किया। मेरा मानना है कि यदि नसबंदी कार्यक्रम को जनजागरण के साथ तरीके से व्यवहार में लाया जाता तो आम जनता तमाम स्थितियों के बाद भी इंदिरा जी के साथ खड़ी होती। उसे नेताओं की गिरफ्तारी और प्रेस सेंसरशिप से भला क्या लेना देना..। दफ्तर में घूस बंद थी, सब समय पर हो रहा था, रेल बसें टाइम से चलती थीं, गुंडों सरहंगों का भय खत्म था, बनिये लूटने और मिलावटखोरी से डरने लगे थे। प्रारंभ में आम जनमानस में इमरजेंसी ने कुलमिलाकर यही प्रभाव छोड़ा था।
शहरों में अवैध कब्जों के हटाने का अभियान चला। लक्ष्य था कि सार्वजनिक भूमि को सरहंगों और प्रभावशाली व्यक्तियों से मुक्त किया जाएगा। हमारे शहर में जब यह अभियान शुरू हुआ तो सबने प्रशासन के इस कदम को सिरमाथे पर लिया। पर कुछ दिन बाद ही लोग देखने लगे कि प्रभावशाली और काँग्रेस के लोगों के अवैध कब्जे छोड़े जा रहे हैं। गरीब-गुरवे जो ठेला-गुमटी लगाकर पेट पाल रहे थे म्युनिसिपैलिटी के लोग उन्हें उलटाने पलटाने तक सीमित हो गए तो इमरजेंसी का अर्थ कुछ-कुछ समझ में आने लगा। अपने शहर में सड़क को कब्जियाकर किए गए एक पक्का अतिक्रमण इसलिए नहीं तोड़ा जा सका क्योंकि वह प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल के रिश्तेदार का था। जनता को धीरे-धीरे ये बातें समझ में आने लगीं और वह व्यवस्था के खिलाफ मन मसोसने लगी।
ऊपर से लेकर नीचे तक काँग्रेस के नेता मस्त थे कि जनता उनके साथ है। अखबार उनकी पार्टी की सरकार की जयजयकार कर रही है। देवकांत बरुआ का नारा ‘इंदिरा इज इंडिया’ चौतरफा गूँज रहा था। कांग्रेस की बड़ी रैलियां और सभाएं होतीं। वही भीड़ अखबारों में छपती पर वो भीड़ कहाँ से जुटती थी नौवीं पढ़ते हुए यह मेरी अपनी आप बीती थी।
जब जेपी की हुंकार से सिंहासन हिल उठा
कांग्रेस के अध्यक्ष देवकांत बरुआ का नारा इंदिरा इज इंडिया गली कूँचों तक गूँजने लगा। इसी बीच मध्यप्रदेश में पीसी सेठी को हटाकर श्यामाचरण शुक्ल को मुख्यमंत्री बनाया गया। अखबारों की हालत यह कि पहले पन्ने से लेकर आखिरी तक इंदिरा गांधी, संजय गाँधी उनके चमचों की खबरों से पटे। हर हफ्ते कहीं न कहीं रैलियाँ, सभाएं। भीड़ जोड़ने का काम स्कूल के प्राचार्यों, हेडमास्टरों को दे दिया गया। शहर में कोई बड़ा नेता आता तो स्कूलों के सामने बसें लगवा दी जातीं और रैली सभाओं में हम बच्चे भीड़ बढ़ाने, नारे लगाने के लिए भेजे जाते।
जब नवमी पढ़ रहा था तभी श्यामाचरण शुक्ल का हमारे शहर दौरा बना। वे यहाँ हवाई जहाज से आने वाले थे। उनकी सभा के लिए यहाँ के सबसे बड़े खेल के मैदान में पंडाल लगाया गया। मेरी याद में इतना बड़ा पंडाल आज तक नहीं देखा। जिस दिन मुख्यमंत्री को आना था चार बसें स्कूल के दरवाजे पर लगवा दी गईं। कक्षाएं स्थगितकर बच्चों को बस में हवाई पट्टी भेज दिया गया। वहां पता चला कि श्यामाचरण शुक्ल आने वाले हैं, हम लोगों को उनका स्वागत करना है।
पहले तो अच्छा लगा कि जिंदगी में पहली बार नजदीक से हवाई जहाज और मुख्यमंत्री देखने को मिलेंगे। लेकिन घंटे भर इंतजार करते-करते मुट्ठियों में रखे गेंदे के फूल सूखने लगे जो हम बच्चों को मुख्यमंत्री के ऊपर बरसाना था। हम प्यास से बिलबिलाने लगे। भूख भी लग आई, ऊपर से क्वाँर-कार्तिक की तेज धूप। कुलमिलाकर कर पहली बार इमरजेंसी इतनी जालिम लगी।
नेता पर बरसाने के लिए दिए गए फूल ही चबाकर कर भूख शांत करने की जैसी ही चेष्ठा की वैसे ही नारा गूँज उठा ..श्यामा भैय्या आए हैं नई रोशनी लाए हैं। वस्तुस्थिति यह थी कि हम बच्चों के आँखों के सामने दिन-दोपहर ही भूख-प्यास के मारे अँधेरा छाने लगा था। सामने से खुली जीपपर बंद गले की नीली कोट पहने श्यामाचरण जी मुस्कराते निकल गए। हम लोग कैसे भी वापस शहर पहुंचे.. और शेष समय इमरजेंसी और उसके नेताओं को गरियाते हुए बिताया जिनकी वजह से भूखे-प्यासे मरना पड़ा।
शाम को कौतूहल देखने सभास्थल गए तो पता चला कि यहां भीड़ जोड़ने का जिम्मा दूसरे स्कूलों पर है। सभा में स्कूली बच्चों के झुंड थे उधर नेताओं के भाषण चल रहे थे। शाम की आकाशवाणी की न्यूज बुलेटिन में मुख्यमंत्री की रैली और सभा में उमड़ी भारी भीड़ का जिक्र था और स्थानीय अखबारों का पहला पन्ना उनकी तस्वीरों व भाषणों से भरा था। समूचे देश में यही चल रहा था। जमीन उत्तरोतर खिसक रही थी पर प्रायोजित भीड़ ऊपर के नेताओं को ऐसे ही चकमा देती रहती। 77 में भीड़ और रैलियों के ऐसे ही खुफिया फीडबैक की वजह से इंदिरा जी आम चुनाव के लिए राजी हुईं।
इमरजेन्सी हटी और नेता लोग जेल से छूटने लगे। फिर चुनाव हुआ जिसमें जेपी के संरक्षण में बनी जनता पार्टी की सरकार ने इंदिरा गांधी की कांग्रेस सरकार को हटा दिया। इस साल मैं दसवीं पढ़ रहा था। तबतक मैं यमुनाप्रसाद शास्त्री के परिवार में एक सदस्य के तौरपर शामिल हो चुका था। उनकी आभा की छाया में रहते हुए मोरारजीभाई देसाई, चंद्रशेखर, बाबू जगजीवन राम, मधु दंडवते, सुरेंद्र मोहन, राजनारायण आदि दिग्गजों को नजदीक से देखा। किसी नेता के यहां बड़े-बड़े हाकिम अफसर कैसे ड्यूटी बजाते हैं यह भी देखा। उन पुलिस वालों को भी देखा जिन्होंने इमरजेंसी में जिन नेताओं को हथकड़ियां पहनाईं थी अब वे उनकी चिरौरी कर रहे थे। किशोरवय स्कूली छात्र के लिए यह कौतुक भी जबरदस्त था जो मेरी जिंदगी के हिस्से लिखा था।
हम लोगों ने राजनीति का दुरुपयोग भी किया। स्कूल में हमारी क्लास में बड़े अफसरों के कई बिगडैल बेटे जो हम देहाती छात्रों का मजाक उड़ाते थे, उनके अफसर पिताओं के नाम की सूची बना ली। शास्त्रीजी के यहां जो भी मंत्री आते थे उन्हें वही सूची थमाकर कहते कि इनको रीवा से भगा दीजिए। वैसे भी जनता पार्टी की प्रदेश सरकार में शास्त्रीजी के कई पट्ठे थे जो पहली बार में ही कैबिनेट मंत्री बन गए। बहरहाल ग्यारवीं में जब उन छात्रों को क्लास में नहीं देखा तो अंदाज लगा लिया कि निश्चित ही इनके पिताओं को सरगुजा-बस्तर भेज दिया गया होगा। इमरजेन्सी में उन मुख्यमंत्री जी के स्वागत में जितने कष्ट झेले थे जनताराज के मजे ने उसे भुला दिया। स्कूली छात्र जीवन में इमरजेन्सी लगने और फिर उतरने की इतनी ही राम कहानी से अपन का वास्ता पड़ा।
जनता सरकार कैसे गिरी.. ऐसे विषयों की समझ तब बननी शुरू हुई जब 1983-84 में पत्रकारिता का छात्र था। खबरों की दुनिया के मुहाने पर बैठकर जल्द ही उन सभी जिग्यासाओं का समाधान तलाशता था, जो बेचैन किया करती थीं। अखबारों में व्यंग्य स्तंभों का चलन उन दिनों काफी लोकप्रिय था। इसी तरह के किसी स्तंभ में एक किस्सा पढ़ा जो कुछ यूँ था- दैवयोग से एक बार किन्नरों के घर एक बच्चा पैदा हुआ। दूसरों के बच्चों के जन्मने पर नाचने गाने वाले किन्नरों के ही घर जब यह सुअवसर आया तो फिर कैसा जश्न हुआ होगा समझ सकते हैं। नाचने गाने की खुशी के बाद इस बात पर बहस चल पड़ी कि बच्चे को नाम किसका दिया जाए। बहस गंभीर होती गई। एक बूढ़े किन्नर ने सुझाया कि वरिष्ठता के क्रम में सभी एक-एक करके उसका बाप होने का सुख लें। समझाइश काम कर गई। सब बारी-बारी से उसे लाडप्यार करने लगे। जब आखिरी किन्नर की बारी आई तो उसने देखा बच्चे की सांस थम गई है, नाड़ी भी नहीं चल रही। यानी कि लाडप्यार के चक्कर में इतना भी ख्याल नहीं रहा कि इसे दूध और घुट्टी वगैरह भी चाहिए। बच्चे की आसमयिक मौत हो गई। 77 की जनता पार्टी की सरकार 80 आते-आते इसी तरह गिर गई।
इमरजेंसी क्यों लगी? इस पर दर्जनों पुस्तकें आ चुकी हैं। हजारों से ज्यादा विश्लेषण और आलेख छप चुके। अब भी हर साल इसकी बरसी पर लेख आते हैं। इमरजेंसी को दूसरी गुलामी कहा जाता है। गिरफ्तार होने वाले अब लोकतंत्र के सेनानी हैं। कई सरकारों ने स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की भाँति पेंशन बाँध दी और भी कई सुविधाएं दी।
इमरजेन्सी को नागरिक अधिकारों पर सबसे बड़ा हमला माना गया। आज भी इसकी डरावनी तस्वीर पेश की जाती है। वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर ने अपनी आत्मकथा “बियांड द लाइन्स” में इमरजेन्सी के कारणों का तथ्यपरक ब्योरा दिया है। लेकिन इस ब्योरे के पूर्व की कथा संक्षेप में जाननी चाहिए।
सन् 71 में बांग्ला विजय ने इंदिरा जी के कद को लार्जर दैन लाइफ बना दिया। कांग्रेस के ओल्ड गार्ड्स (नेहरूकालीन नेता) जल्द ही ठिकाने लगा दिए गए। अटलबिहारी वाजपेयी जैसे नेता ने लोकसभा में इंदिरा जी को दुर्गा कहकर महिमामंडित किया। इंदिराजी के कद के सामने सब बौने थे। बैंकों और खदानों के राष्ट्रीय करण तथा राजाओं के प्रिवीपर्स को बंद करने के फैसले की वजह से दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां भी इंदिरा जी की भक्त हो गईं। जनसंघ का दायरा सिमटा हुआ था। सोशलिस्ट पार्टियों का सबसे प्रभावी धड़ा कांग्रेस में शामिल हो चुका था। शेष सोशलिस्टी आपस में लड़झगड़ रहे थे। विपक्ष में ऐसा कोई नहीं था जो इंदिरा जी की स्वेच्छाचरिता के खिलाफ कुछ कह सके।
इंदिरा जी अपने मुख्यमंत्रियों को ताश के पत्तों की तरह फेंट रहीं थी। इसी फेंटाफेंटी के बीच बिहार के समस्तीपुर में ललित नारायण मिश्र की हत्या हो गई। गुजरात में चिमनभाई पटेल सरकार के खिलाफ छात्र और युवाओं ने मोर्चा खोल लिया। ‘गली-गली में शोर है चिमनभाई चोर है’ का नारा इसी आंदोलन में गूंजा था जिसने बाद में अन्य नेताओं से जुड़कर विस्तार पाया। बिहार में अब्दुल गफूर के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी। यहां भी छात्र इस सरकार के खिलाफ आंदोलित थे।
इस बीच राजनीति से दूर सर्वोदय आंदोलन से जुड़े जयप्रकाश नारायण से सत्ता की स्वेच्छाचरिता देखी नहीं गई। उन्होंने इंदिरा गांधी को पत्र लिखा कि वे अपने मुख्यमंत्रियों के भ्रष्टाचार और सत्ता की स्वेच्छाचरिता पर लगाम लगाएं। एकछत्र साम्राग्यी बन चुकीं इंदिरा जी को जेपी की यह समझाइश नागवार लगी। जबकि जेपी ने यह पत्र साधिकार लिखा था क्योंकि कि वे इंदिरा जी को अपनी भतीजी मानते थे। यह इतिहास जानता है कि कमला नेहरू और जेपी के बीच सीता और लक्ष्मण जैसे रिश्ते रहे। जेपी नेहरू द्वारा प्रस्तावित किए गए उप प्रधानमंत्री का पद भी अस्वीकार कर चुके थे।
जेपी के पत्र के जवाब में इंदिरा जी ने अखबारों में यह तंज कसा कि “उद्योगपतियों के पैसे से पलने वाले कुछ लोग भ्रष्टाचार की बात करते हैं”। यह बयान पढ़कर जेपी ने अपना आर्थिक ब्योरा, आमदनी और खर्च, सबकुछ लौटती डाक से इंदिरा जी को भेज दिया। इंदिरा जी के इस बयान को उन्होंने एक चुनौती के मानिंद लिया और उसी दिन तय कर लिया कि इस स्वेच्छाचारी सरकार को जड़ से उखाड़ फेकेंगे।
विपक्ष लस्त-पस्त था। जेपी ने छात्रों और युवाओं में उम्मीद देखी। उन्होंने गुजरात जाकर छात्रों के “नवनिर्माण आंदोलन” को अपना समर्थन दिया। आंदोलन की चरम परणित चिमनभाई सरकार के इस्तीफे से हुई। इस सफलता की आँच पूरे देश ने महसूस की। बिहार में अब्दुल गफूर सरकार के खिलाफ मोर्चा खुल गया। जेपी ने ‘युवा छात्रसंघ’ की स्थापना करके देश भर के विद्रोही छात्रों और युवाओं को जोड़ लिया।
बिखरे समाजवादी, पुराने गांधीवादी उनसे जुड़ने लगे। आरएसएस भी अपना समर्थन देने आगे आया और इस अभियान में जनसंघ भी जुड़ गया। नानाजी देशमुख जेपी के सहयोगी व प्रमुख रणनीतिकार बनकर उभरे। देश भर में विपक्षी एकता की एक लहर सी चल पड़ी। सबके निशाने पर इंदिरा गांधी ही थी। जन आक्रोश को समझने की जगह उसे सख्ती से कुचला जाने लगा।
इसी बीच यानी कि 1974 में मध्यप्रदेश में दो बड़ी राजनीतिक घटनाएं हुईं। सेठ गोविंददास के निधन से जबलपुर लोकसभा सीट रिक्त हो गई। भोपाल दक्षिण विधानसभा सीट में भी कुछ ऐसी ही स्थितियों के चलते उप चुनाव की नौबत आ गई। जबलपुर से छात्र नेता शरद यादव और भोपाल दक्षिण से बाबूलाल गौर संयुक्त विपक्ष के प्रत्याशी घोषित हुए। दोनों ही चुनावों में काँग्रेस की बुरी गत हुई। इन परिणामों ने विपक्षी एकता के लिए फेवीकोल का काम किया।
बियांड द लाइंस में कुलदीप नैय्यर लिखते हैं- इंडियन एक्सप्रेस में नियुक्ति के कुछ दिन बाद ही गोयनका जी से यह सुनकर हैरान हो गया कि इंदिरा जी संविधान को भंगकर जेपी समेत तमाम विपक्षी नेताओं को जेल में ठूसना चाहती हैं मैंने तो यह खबर नहीं बनाई लेकिन जनसंघ के मुखपत्र मदरलैंड ने इसे मुखपृष्ठ पर छापा।” इंदिराजी ने जेपी आंदोलन को निजी चुनौती की तरह लिया।
कभी-कभी संयोग या दुर्योग स्वमेव जुड़ते जाते हैं। 12 जून 1975 का इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला कुछ इसी तरह का ही था। रायबरेली से इंदिरा गांधी के चुनावी प्रतिद्वंदी रहे सोशलिस्टी राजनारायण की याचिका पर फैसला देते हुए जज जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी को संवैधानिक पद के लिए अयोग्य घोषित कर दिया। इस फैसले की दो मामूली वजहें थीं। एक ओएसडी यशपाल कपूर ने पीएमओ से बिना इस्तीफा दिए चुनाव प्रचार में हाथ बँटाया, दूसरा इंदिरा जी की सभाओं के लिए यूपी सरकार के अफसरों ने इंतजामात किए। ऐसे आरोप प्रायः हर दूसरी चुनावी याचिका में लगते हैं पर इस फैसले से एक इतिहास रचा जाना बदा था। हाईकोर्ट ने अपील के लिए 15 दिन मुकर्रर किए थे। इसी बीच 15जून 1975 को जेपी ने पटना के गांधी मैदान में छात्रों युवाओं की विशाल जनसभा में संपूर्ण क्रांति का आह्वान कर दिया।
कुलदीप नैय्यर लिखते हैं- चुनाव से जुड़ा कानून कितना ही सख्त क्यों न हो, मेरा अपना ख्याल था कि यह फैसला एक चीटी को मारने के लिए हथौड़े के इस्तेमाल करने की तरह था” सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश कृष्णा अय्यर ने फैसले पर स्टे दे दिया और अपील के निपटारे तक के लिए व्यवस्था दी कि इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी रह सकती हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट से लेकर दिल्ली के सुप्रीमकोर्ट तक के फैसलों पर कालांतर में अंगुलियां उठीं।
कमाल की बात यह कि सुप्रीम कोर्ट में फैसले के खिलाफ अपील करने वाले वीएन खेर बाद में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस तक पहुंचे। जबकि यह अपील उन्होंने इंदिरा जी के निर्देश पर नहीं स्वतः ही उत्साहित होकर दायर की थी।
खैर इंदिरा जी इस्तीफा देने का मन बना चुकीं थी। उपचुनाव से चुनकर आने तक के लिए कमलापति त्रिपाठी को प्रधानमंत्री बनने की बात भी हो चुकी थी। यदि ऐसा होता तो लोकतंत्र में आपातकाल का कलंक टल जाता। पर जिन दो लोगों ने इसे टलने नहीं दिया उनमें से एक थे संजय गांधी और दूसरे पं.बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे। दून स्कूल से फेल और इंग्लैण्ड में रोल्स रायस में मैकेनिकी कर नककटाई करवा चुके संजय गांधी की महत्वाकांक्षा परवान पर थी और यह अच्छा मौका था जब सत्ता के सूत्र वे अपने हाँथों सँभाल लें।
परिणाम यह हुआ कि कैबिनेट की स्वीकृति लिए बगैर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से मिलकर 25 जून 1975 को इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। इसके बाद जो कुछ हुआ वह देश ने और समूची दुनिया ने देखा।
इमरजेन्सी के कंलक के काले धब्बे इतने गहरे हैं कि भारत में जबतक लोकतंत्र जिंदा बचा रहेगा तबतक वे बिजुरके की भाँति टँगे दिखाई देते रहेंगे”
चाटुकारों के झाँसे ने देश को तानाशाही से बचा लिया
चाटुकारिता भी कभी-कभी इतिहास में सम्मान योग्य बन जाती है। आपातकाल के उत्तरार्ध में यही हुआ। पूरे देश भर से चाटुकार काँग्रेसियों और गुलाम सरकारी मशीनरी ने इंदिरा गांधी को जब यह फीडबैक दिया कि आपकी लोकप्रियता चरम पर है, जनता आपको अपना भाग्यविधाता मानने लगी है तब इंदिरा गांधी का मानस बना कि क्यों न लगे हाथ आम चुनाव करवा लिए जाए.। वे संजय गांधी के हठ के बावजूद वे चुनाव करवाने के फैसले पर डटी रहीं। यदि वे संजयगांधी के चुनाव न करवाने व इमरजेन्सी जारी रखने की राय को मान लेतीं तो संभवतः आज भी हम हिटलरी युग में जी रहे होते। पत्रकार कुलदीप नैय्यर ने अपनी किताब “द जजमेंट” के लिए एक इंटरव्यू में संजय गांधी ने बेबाकी से ये बातें कहीं थी। यद्यपि नैय्यर उस इंटरव्यू के अंश “द जजमेंट” की बजाय “बियांड द लाइंस” में छापे हैं।
कुलदीप नैय्यर लिखते हैं- इमरजेंसी पर मैं एक किताब लिख रहा था, एक दिन कमलनाथ मुझसे मिले उन्होंने कहा कि संजय गांधी से मिले बिना इमरजेन्सी के बारे में कैसे लिख सकता था। कमलनाथ मुझे 1 सफदरजंग ले गए और संजय से अकेले में मुलाकात कराई। उन्होंने मुझसे पहले जनता पार्टी के भविष्य के बारे में बात की फिर इमरजेन्सी को लेकर बातें हुईं। नैय्यर की “बियांड द लाइंस” में इंटरव्यू का सार संक्षेप जस का तस कुछ यूँ है-
” मेरा पहला प्रश्न यह था कि उन्हें इतना भरोसा क्यों था कि उन्हें इमरजेन्सी, अधिकारवादी सत्ता और इनसे जुड़ी ज्यादतियों का फल नहीं भुगतना पड़ेगा?
संजय गांधी ने जवाब दिया- उन्हें कोई चुनौती दिखाई नहीं दे रही थी। वे 20-25 या इससे भी ज्यादा वर्षों तक इमरजेन्सी को जारी रख सकते थे, जब तक कि उन्हें भरोसा न हो जाता कि लोगों के सोचने का तरीका बदल गया है।
संजय ने मुझसे कहा- उनकी योजना के अनुसार कभी कोई चुनाव न होते और वे बंशीलाल जैसे क्षेत्रीय सरदारों और आग्याकारी प्रशासनिक अधिकारियों की मदद से दिल्ली से ही पूरा देश चलाते रहते। यह एक अलग तरह की सरकार होती और सबकुछ दिल्ली से ही नियंत्रित होता।
मुझे याद आया कि इमरजेंसी के दौरान कमलनाथ ने मुझे एक किताब की पांडुलिपि दी थी, जिसमें इसी तरह के विचारों को व्यक्त करते हुए इस शासनतंत्र का विस्तार से वर्णन किया गया था।
तो फिर आपने चुनाव क्यों करवाए? मैंने संजय गांधी से पूछा।
“मैंने नहीं करवाए” उन्होंने कहा। वे शुरू से इसके खिलाफ थे। लेकिन उनकी माँ नहीं मानी। “आप उन्हीं से पूछिए” उन्होंने कहा।
संविधान और मौलिक अधिकारों को देखते हुए इस तरह की व्यवस्था कैसे चल सकती थी? मैंने संजय से पूछा। उन्होंने कहा इमरजेन्सी हटाई ही न जाती और मौलिक अधिकार स्थगित ही रहते।”
इमरजेन्सी के दरम्यान ऐसा पहली बार हुआ जब इंदिराजी ने संजय गांधी के हठ के सामने सरेंडर नहीं किया। सुदीर्घ अनुभव से वे जानती थीं कि वे वास्तव में शेर की सवारी कर रही हैं और इसका कहीं न कहीं तो कोई मुकाम तय है। दूसरे संभवतः उन्हें संजय की मंडली से अग्यात भय भी लगने लगा था कि बेटे की ये चंडाल-चौकड़ी न जाने देश को कहां ले जाकर छोड़ेगी।
नैय्यर “बियांड द लाइंस” में लिखते हैं -इंदिरा गांधी इस आधिकारिक खुफिया रिपोर्ट से प्रभावित थीं कि उनकी लोकप्रियता अपने चरम पर है। संजय गांधी ने जब सुना कि वे चुनाव करवाने की सोच रहीं हैं तो वे आगबबूला हो गए। वे आने वाले कई वर्षों तक चुनाव नहीं चाहते थे। माँ बेटे के बीच इस विषय को लेकर काफी गरमागरमी भी हुई लेकिन इंदिरा तो इंदिरा थीं, जो ठान लिया सो किया। संजय गांधी ढीले पड़ गए। नैय्यर लिखते हैं -चुनाव कराने की जो भी बाध्यताएं रही हों, लेकिन इस बात की स्वीकृति थी कि कोई भी व्यवस्था लोगों की सहमति और प्रोत्साहन के बिना नहीं चल सकती थी।
संजय गांधी सत्ता के समानांतर केंद्र नहीं बल्कि धुरी बन चुके थे इसलिए वे समय-समय पर यह अहसास दिलाने से नहीं चूकते थे कि पीएमओ उनके इशारे पर चलता है। पीएन हस्कर पीएमओ में सचिव व एएन धर प्रमुख सचिव थे। ये दोनों ही जब संजय के प्रभाव में नहीं आए तो इन्हें सबक सिखाया गया। हस्कर को न सिर्फ पीएमओ से दफा करवा दिया अपितु उनके रिश्तेदारों के यहां छापे भी डलवाए।
दरअसल संजय ने इमरजेंसी घोषित होने के साथ ही लगाम अपने हाथों में ले ली थी। पहला सफल दाँव सूचना प्रसारण मंत्री इंद्रकुमार गुजराल पर आजमाया। इमरजेन्सी लागू होने के चौबीस घंटे के भीतर ही उन्हें “प्रेस को ठीक” करने का सबक दिया। गुजराल ने दो टूक जवाब देते हुए कहा कि वे उनकी माँ के सहकर्मी हैं न कि उनके गुलाम। गुजराल के इस जवाब के बाद उन्हें कैबिनेट से हटवाने में बारह घंटे भी नहीं लगे। 28 जून को विद्याचरण शुक्ल देश के सूचना प्रसारण मंत्री बन गए। फिर प्रेस संस्थाओं का जो हाल हुआ वह दुनिया ने देखा। संजय के दूसरे पट्ठे बंशीलाल थे जिन्हें हरियाणा से लाकर उनके मुँहमाँगा रक्षामंत्री पद दे दिया। साथ ही बनारसी दास को हरियाणा के मुख्यमंत्री बनाते हुए कहा कि वास्तविक निर्देश बंशीलाल के ही चलेंगे।
देश के गृहमंत्री थे ब्रह्मानंद रेड्डी पर चलती थी ओम मेहता की, जो इसी मंत्रालय में राज्यमंत्री थे। देश के बड़े प्रशासनिक अधिकारियों का इंटरव्यू आरके धवन और संजयगांधी खुद लेते थे तथा स्वामिभक्ति के संकल्प के अनुसार उन्हें प्रभावी पदों पर बैठाया जाता था।
राज्यों के मुख्यमंत्रियों पर लगाम कसने का काम यशपाल कपूर का था, जो इंदिरा जी के ओएसडी थे। कुलमिलाकर संजय गांधी, विद्याचरण शुक्ल, बंशीलाल, ओम मेहता, आरके धवन और यशपाल कपूर ही देश के नियंता थे, और मोहम्मद यूनुस इंदिराजी के एम्बसडर एट लार्ज जो इंदिरा जी के निजी दुश्मनों की खबर रखा करते थे।
कैबिनेट के अन्य सदस्य इस कदर भयभीत थे मानों बस उनकी गिरफ्तारी होने ही वाली है। अस्सी साल के बुजुर्ग उमाशंकर दीक्षित अपमानित कर कैबिनेट से निकाले जा चुके थे। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री पीसी सेठी पर किसी बात को लेकर संजय गांधी का नजला गिरा, उन्हें रातोंरात हटाकर श्यामाचरण शुक्ल को मुख्यमंत्री बना दिया गया। इमरजेंसी का डर कांग्रेस के भीतर भी गहराई से बैठ गया था। सबके सब संजय गांधी से डरे और सहमें हुए थे उन्हें यह मालुम था कि इंदिरा गांधी संजय के सामने विवश हो चुकी हैं।
इमरजेन्सी काल में लोकतांत्रिक संस्थाओं की जो गत की गई यदि संविधान मनुष्य रूप में जीवंत होता तो निश्चित ही संसद भवन के कंगूरे से कूदकर आत्महत्या कर लेता। विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका सभी की भूमिका किसी सामंत के दरवाजे पर खड़े कारिंदों जैसी थी।
प्रेस झुके ही नहीं अपितु रेंग रहे थे। इंडियन एक्सप्रेस और रामनाथ गोयनका जरुर कुछ दिनों तक तने रहे। बिडला का हिंदुस्तान टाइम्स समूह इमरजेन्सी का प्रवक्ता बन चुका था। टाइम्स आफ इंडिया और स्टेट्समैन जैसे समूह संजय की चौकड़ी के सामने हुक्का भरते थे। कौन संपादक हो यह विद्याचरण शुक्ल तय करते थे। देश की चारों न्यूज़ एजेंसियों पीटीआई, यूएनआई, समाचार भारती, हिंदुस्तान समाचार को विलोपित कर सरकार नियंत्रित एजेंसी “समाचार” बन चुकी थी। बड़े अखबार समूह खुद ही पाँवों में बिछ चुके थे जो खड़े थे उन्हें अधिग्रहित करने की पूरी तैय्यारी थी। प्रेस कौंसिल आफ इंडिया को भंगकर निष्प्रभावी बनाया जा चुका था। सबकुछ संजय गांधी की योजना के अनुरूप ही चल रहा था जिसपर इंदिरा गांधी की पूरी सहमति थी। जनता सरकार आने के बाद सूचना प्रसारण मंत्री बने लालकृष्ण आड़वाणी ने ठीक ही फटकारा था-आपको झुकने के लिये कहा गया तो आप रेंगने लगे।
संसद में 42वां संशोधन लाकर हाईकोर्ट को रिटपिटीशन जारी करने के अधिकार सीमित कर दिए गए। आर्टिकल 368 में बदलाव करके यह व्यवस्था बना दी कि संविधान के बदलाव पर ज्यूडिशियल रिव्यू न किया जा सके। इमरजेन्सी की घोषणा ही अपने आपमें संसद नाम की लोकतांत्रिक संस्था पर संहातिक प्रहार था। इंदिरा गांधी ने 25 जून को शाम 5 बजे राष्ट्रपति से भेंट किया, रात 11.30 बजे इमरजेन्सी की घोषणा कर दी गई। पत्र में राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को कैफियत दी गई कि कैबिनेट बुलाने का वक्त ही नहीं मिला पाया, जबकि बात यह नहीं थी। दूसरे दिन 26 जून को 90मिनट की सूचना पर कैबिनेट आहूत की गई जिसमें इमरजेन्सी लागू करने की स्वीकृति ली गई, किसी के चूँ चपड़ करने की हिम्मत तक न हुई।
पिछले दिनों राजनीति से ज्यूडीशियरी के प्रभावित होने की तल्ख बहस व चर्चाएं गूँजती रहीं। सुप्रीम कोर्ट के चार जजों की ऐतिहासिक प्रेस कान्फ्रेंस हुई। कांग्रेस ने सीजेआई दीपक मिश्र के खिलाफ महाभियोग की मुहिम चलाई। राजनीतिक गलियारों में राजनीतिक सहूलियत के हिसाब से जजों की नियुक्ति और पदोन्नति की भी अनुमानित खबरें चर्चाएं भी चलती रहीं। इनके बरक्स इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलेगा इमरजेंसी काल में तो लगभग समूची ज्यूडीशियरी ही बंधक बनी हुई थी। तबादले, नियुक्तियों और पदोन्नतियों का ऐसा भी कुत्सित खेल हुआ यह जानने के लिए बीती बातों को सामने लाना और भी जरूरी हो जाता है।
12जून 1975 को इलाहाबाद के हाईकोर्ट जगमोहनलाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी के निर्वाचन के खिलाफ फैसला दिया था। अपील की मियाद 15 दिन की रखी। कुलदीप नैय्यर अपनी किताब में लिखते हैं -फैसले के कई महीनों बाद जब मैं जस्टिस सिन्हा से मिला तो उन्होंने बताया कि एक कांग्रेस के सांसद ने इंदिरा गांधी के पक्ष में फैसला देने के लिए रिश्वत की पेशकश की थी। इसी तरह न्यायालय के एक सहकर्मी ने भी उन्हें उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनाने का प्रलोभन दिया था।
इमरजेंसी के दरम्यान जस्टिस सिन्हा किस यातना से गुजरे ये तो एक अलग कहानी है लेकिन खुद को इंदिरा गांधी का वफादार साबित करने के लिए दिल्ली के एक स्थानीय वकील वीएन खेर ने खुद ही सुप्रीम कोर्ट में इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील दायर कर दी, इसी अपील को स्वीकार करते हुए जस्टिस कृष्णा अय्यर ने स्टे दे दिया। बाद में खेर साहब के ऐसे भाग्य खुले कि वे भारत के मुख्य न्यायाधीश के पद तक पहुंच गए।
कुलदीप नैय्यर जो कि स्वयं इमरजेन्सी में गिरफ्तार किए गए थे, उनकी गिरफ्तारी को दिल्ली हाईकोर्ट की जिस खंडपीठ ने अवैध घोषित किया था उसके जज रंगराजन साहब को गोवाहाटी स्थानांतरित कर दिया गया, दूसरे जज आरएन अग्रवाल को पदावनत कर पुनः सेशन जज बना दिया गया। नैय्यर के अनुसार यह इनकी सत्ता की मंशा के खिलाफ गुस्ताखी की सजा थी।
इमरजेंसी की वैधता का सवाल भी सुप्रीम कोर्ट में आया। सीजेआई एएन रे ने एक पीठ गठित कर उसे यह मामला सौंपा। इस पीठ में एचआर खन्ना, एमएच बेग, वायबी चंद्रचूड़ और पीएन भगवती थे। खन्ना को छोड़ सभी ने इंदिरा गांधी द्वारा लगाई गई इमरजेन्सी के पक्ष में अपने मत दिए। बाद में परिणाम यह हुआ कि एचआर खन्ना को सुपरसीड कर बेग को मुख्यन्यायाधीश बनाया गया। अन्य भी बारी-बारी से देश के प्रधान न्यायाधीश बने। इमरजेन्सी में न्यायपालिका का जो भी न्यायाधीश आड़े आया उसे ठिकाने लगाया गया। ग्यारह जजों के तबादले किए गए।
इमरजेन्सी में लोकतांत्रिक संस्थाओं की जैसी गति बनाई गई और जिस पार्टी की स्वेच्छाचारी सरकार ने ऐसा किया कम-अज-कम उसका हक तो नहीं ही बनता कि वह सुचिता की दुहाई दे। इमरजेन्सी के कंलक के काले धब्बे इतने गहरे हैं कि भारत में जबतक लोकतंत्र जिंदा बचा रहेगा तबतक वे काले धब्बे बिजुरके की भाँति टँगे दिखाई देते रहेंगे। इमरजेंसी वाकय दूसरी गुलामी थी, इसकी दास्तान को जीवंत बनाए रखना इसलिए भी जरूरी है जिससे आने वाली सरकारों को कभी ऐसा कदम उठाने की हिम्मत न पड़े।
लेखक जयराम शुक्ल मध्य प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं. उनसे संपर्क 8225812813 के जरिए किया जा सकता है.