संजय सिन्हा-
जब आंख ही से न टपका… कल जबलपुर में एक बड़ी घटना घटी। हाई कोर्ट में वकीलों ने खूब हंगामा किया और अपने एक साथी के शव को लेकर जजों के खिलाफ आंदोलन किया। मैं घटना की रिपोर्टिंग नहीं कर रहा, पर आपको बता रहा हूं कि हुआ क्या और क्यों? ये जानना ज़रूरी है क्योंकि समाज में असंतोष का गुब्बारा जिस तरह फूल रहा है, उसे भविष्य में शायद इसी तरह फूटना है।
फिल्म ‘लगान’ में सूखा पड़ना, लोगों का भूखे मरना, लगान नहीं भर पाना, अंग्रेजी अफसरों के आगे गिड़गिड़ाना, फिर क्रिकेट खेलना, क्रिकेट में अंग्रेजों को हरा देने पर लगान माफ कर देने की शर्त का होना, फिर क्रिकेट में इंगलिश जेंटलमैनों को हरा देना और लगान माफ हो जाना आपको याद होगा। जो आपको नहीं याद होगा वो संजय सिन्हा याद दिलाना चाहते हैं। फिल्म में दस सेकेंड की एक छोटी-सी घटना को मैं फिल्म का टर्निंग प्लाइंट मानता हूं।
मैं क्योंकि इतिहास का विद्यार्थी रहा हूं तो मैं इतिहास को समग्र में पढ़ कर भी उसके अंश की आत्मा तलाशता हूं। मंगल पांडे कभी क्रांति करते ही नहीं। वो तो अंग्रेजों की टीम के सिपाही थे। उनकी बंदूक की नाल हमेशा भारतीयों की ओर होती थी। अंग्रेज कहते थे फायर तो मंगल पांडे की बंदूक चलती थी धांय और किसी भारतीय के सीने को छलनी कर जाती थी। लेकिन एक छोटी-सी घटना ने उन्हें अपने ही सिस्टम से बगावत करने के लिए बाध्य कर दिया था। घटना इतनी-सी थी कि ये खबर उड़ी कि जिस कारतूस के पिन को वो मुंह से खोलते हैं, उसे चिकना करने के लिए गाय की चर्बी का इस्तेमाल होता है। उन्होंने बगावत से पहले अपने अफसर से सवाल पूछा ही होगा कि क्या वास्तव में ऐसा है? अफसर भड़क गया होगा। “टुम सिपाई, टुम मुझसे कोश्चन करता है। गाय का फैट है टो क्या? टुम्हारी औकाट कैसे हुई मुझसे ऐसे कोश्चन करने की? टुम बंडूक चलाओ।”
बस यही वो टर्निंग प्वाइंट था, जब मंगल पांडे की बंदूक की नाल अंग्रेजों की और घूम गई थी। यही हुआ था फिल्मी कहानी ‘लगान’ में। कुलभूषण खरबंदा फिल्म में छोटे राजा साहब बने थे। थे तो इंगलिश हुकूमत के पिठ्ठू। भारतीय मजदूरों की हाड़-मांस की कमाई से इंगलिश बाबुओं को लगान भरते थे। उस साल बारिश हुई नहीं थी। अकाल था। राजा साहब इंगलिश हुक्मरान के घर गए थे। रिक्वेस्ट कर रहे थे कि इस साल लगान माफ कर दीजिए। अचानक मांस खा रहे इंगलिश अफसर ने राजा साहब की ओर मांस का एक टुकड़ा बढ़ाया।
“टुम भी खाओ।”
राजा साहब ने बहुत अदब से कहा, “सर, मैं मांस नहीं खाता हूं।”
सर जी भड़क गए। “टुम मुझे मना करटा है। खाओ। खाना ही होगा। खाओगे टो लगान माफ कर डूंगा। पूरे गांव का लगान माफ कर डूंगा।”
राजा साहब सहम तो गए थे लेकिन अड़ गए, “सब कर लूंगा सर, पर मांस नहीं खाऊंगा। नहीं खा सकता हूं। असंभव है।”
“असंभव? टो लो भुगटो लगान।”
और फिर कहानी आगे बढ़ गई। राजा साहब जो इंगलिश हुक्मरान के टट्टू ही थे, उन्होंने भी बात दिल पर ले ली। होने को तो क्रिकेट का मैच हुआ, हकीकत में ये स्वाभिमान पर लगी चोट के हिसाब का मैच था।
तय बात है, कभी किसी के स्वाभिमान को चोट नहीं पहुंचानी चाहिए। चाहे पिता अंधा ही रहा हो, पर उसके पुत्र को अंधा कहना धृष्टता है। इन दिनों मैं क्योंकि वकालत की पढ़ाई कर रहा हूं तो कोर्ट-कचहरी आता-जाता रहता हूं। आपको तो पता ही है कि टीचर चाहे पढ़ाने में फुल दिलचस्पी न लें, संजय सिन्हा पढ़ने में फुल दिलचस्पी लेते हैं। जो काम करना है, शिद्दत से करना है। उसमें कोई कोताही नहीं।
तो मैंने ये नोट किया है कि इन दिनों कुछ जज और बड़े वकील लोग इंगलिश हुक्मरान की तरह बिहेव करने लगे हैं। पहले भी करते ही होंगे पर इन दिनों टीवी पर, यू ट्यूब पर उनका अहंकार गाहे-बेगाहे दिख जाता है। मैंने देखा है जिसे सत्ता मिलती है, वो गरम दल का सदस्य बन जाता है। कायदे से सत्ता और अधिकार पाने वाले को विनम्र होना चाहिए, पर होता उलटा है। क्योंकि मैं अपने आईपीएस मामा के घर पला-बढ़ा हूं तो मैंने अफसरी का एक रूप वो भी देखा है कि कैसे पद पाकर एक आदमी विनम्र और मददगार होता है। और मैंने ही पत्रकारिता में रहते हुए उन अफसरों को भी देखा है, जिन्हें कुर्सी मिलते ही ये भ्रम हो जाता है कि वो इंगलिश बाबू हैं। उनके सिर पर सुरखाब जी के पर लगे हैं।
कल जबलपुर में जो हुआ वो उसी मानसिकता के तहत हुआ।
मैं विस्तार की घटना में नहीं जा रहा। पर जो सुना, समझा वो यही कि अदालत में दो वकीलों के बीच रेप के किसी केस को लेकर बहस हुई। उसी दौरान जज ने या बड़े वकील ने कोई ऐसी व्यक्तिगत टिप्पणी कर दी कि आत्महत्या करने वाले वकील को वो अपमान लगा। भरी अदालत में अपमान। वकील केस हारते और जीतते रहते हैं,कोई बड़ी बात नहीं। बड़ी बात क्या थी? वो टिप्पणी जिससे वकील के दिल को चोट लगी। वो उसे अपना अपमान लगा।
आत्महत्या करना पाप है। किसी को ऐसा नहीं करना चाहिए। लेकिन ये मानव मन है। किसका मन कितना आहत होगा कोई तय नहीं कर सकता है। ऐसा बहुत बार होता है जब हमें किसी की कही बहुत छोटी-सी बात इतनी चुभ जाती है कि हम रिश्ता ही तोड़ लेते हैं। वैसे तो संजय ज्ञान यही है कि माफ करते चलो। लेकिन शायद हर मामले में ऐसा न भी हो।
तो वकील उस व्यक्तिगत टिप्पणी से आहत होकर घर गया, आत्महत्या के कारणों को बताते हुए पत्र लिखा और लटक गया। इस घटना के बाद वकीलों का खून खौल उठा। समाज इसी दिशा में आगे बढ़ रहा है। बहुत से लोग दब जाते हैं। चुप रह जाते हैं। बहुत से लोग बगावत कर बैठते हैं। जान दे देते हैं, जान लेने पर उतारू हो जाते हैं।
इन दिनों सरकारी अफसर और ‘बड़े लोग’ बेलगाम हो रहे हैं। पता नहीं किस हनक में रहने लगे हैं। देश में तो लाल बत्ती की हुंकार बंद होने के बाद सरकारी अफसरों ने अपनी गाड़ी के नंबर प्लेट के ऊपर नीचे बड़ी-बड़ी तख्तियां लगवा ली हैं कि देखो, मैं इस पद पर हूं। मैं खास हूं। मेरे लिए रास्ता छोड़ो। अधिकतर अफसरों ने सरकारी नियम के विरुद्ध गाड़ी के भीतर हूटर लगवा रखा है। जहां थोड़ी भीड़ दिखी ड्राइवर हूटर बजाने लगता है। क्यों भाई? तुम इंगलिश हुक्मरान हो? आम भारतीय तुम्हारा गुलाम है?
एसपी की गाड़ी में बड़ा-बड़ा लिखा है एसपी। कलेक्टर की गाड़ी में लिखा है कलेक्टर। सीएसपी। डीएसपी। एडीएम। एसडीएम। तहसीलदार। और तो और बैंक, सड़क, बिजली विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों की प्राइवेट गाड़ियों तक पर लाल रंग से पोता रहता है – ‘भारत सरकार’।
ऐसा इसलिए लिखा जाता है कि रोड पर उन्हें वीआईपी माना जाए। छुटके जज तक गाड़ी पर बड़ा-बड़ा न्यायाधीश लिखा रहता है। उनकी न्यायाधीश लिखी गाड़ियों में साहब की बीवियां खुद को क्वीन एलिजाबेथ समझ कर बाज़ार में घूमती हैं। विधायक, पार्षद, पूर्व विधायक, पूर्व पार्षद लिखी गाड़ियों के ड्राइवर तो उपद्रव मचाते ही रहते हैं। टोल नाका पर झगड़ा करते नज़र आते ही रहते हैं। सवाल ये है कि क्यों? क्यों चाहिए आपको वीआईपी ट्रीटमेंट?
क्यों किसी को बताना आप न्यायाधीश हैं? बैंक में मैनेजर हैं। थानेदार हैं। सिपाही हैं। कुछ भी क्यों बताना? ये एक तरह की कुंठा होती है, अपने को वीआईपी बताना। मैं समाज के भीतर मौजूद अफसरी कुंठा की कहानी लिखने बैठूंगा तो पोथा लिख बैठूंगा। लेकिन अभी बात जबलपुर के हाई कोर्ट में हुए हंगामे की।
हंगामा, तोड़-फोड़, मारपीट किसी तरह से जायज नहीं। हर विरोध के कुछ नियम होते हैं। नियम के दायरे में ही विरोध भी करना चाहिए। लेकिन पिछले दिनों मैंने ये देखा है और महसूस किया है कि ऊंची कुर्सी पर बैठे लोग कुछ भी बोल देते हैं। कुछ भी बोल देना अपना अधिकार समझते हैं। मैंने कई जजों को फैसले के साथ ऐसी टिप्पणियां करते देखा है, जिसकी ज़रूरत नहीं थी। यही करते मैंने एसपी, डीएसपी, थानेदार को देखा है। भाई/बहन आपने एक परीक्षा दी थी, पास कर गए, नौकरी मिल गई तो क्या आपको ये भी छूट मिल गई कि आप जो चाहे कह सकते हैं, कर सकते हैं? इस सोच से समाज में कुछ लोग डरते हैं। कुछ लोग मरते हैं और कुछ लोग विद्रोह कर बैठते हैं।
ये मेरी चिंता है कि समाज अब उस ओर बढ़ रहा है जहां विद्रोह की चिंगारी चमक रही है। कभी गरीब को इतना नहीं सताना चाहिए कि वो रो दे।
सुना है न आपने, “गरीब को इतना न सताओ, वो रो देगा और खुदा ने सुन लिया तो आपकी जड़ खोदेगा।”
हर व्यक्ति का अपना काम होता है। उसे दायरे में अपना काम करना चाहिए। कोई भगवान नहीं होता है। राजे, रजवाड़े और ब्रिटिश हुकूमत से तो आपने इतनी मेहनत करके, बलिदान देकर मुक्ति पाई है। फिर ये भारतीय लालशाही क्यों?
जबलपुर में जो हुआ वो दुखद है। मुझे अफसोस है कि एक युवा वकील ने अपनी जान दे दी। मुझे अफसोस है कि बहुत से वकीलों ने अदालत परिसर में तोड़-फोड़ की। दोनों अफसोसनाक हैं। पर उससे भी अधिक अफसोस इस बात का कि हम कुछ भी कहने से पहले नहीं सोचते कि उसका असर क्या होगा? कहां तक होगा?
प्रोफेशनल कार्य में व्यक्तिगत टिप्पणी सदैव निंदनीय है। सुप्रीम कोर्ट तक जजों को ये हिदायत दे चुका है कि व्यक्तिगत टिप्पणी से बचें। पर क्या कीजिएगा? कम्बख्त हनक है ही ऐसी चीज़ की एक बार लत लग जाए तो छुड़ाए नहीं छूटती।
तीन ज्ञान- कभी किसी का दिल न दुखाएं, कभी अन्याय न करें, कभी खुद को खुदा न समझें।
लहू को रगों में बहने दें साहब, किसी को आंख से टपकाने के लिए मजबूर न करें। आंख से टपकते लहू कंट्रोल में नहीं आते।