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उत्तर प्रदेश

जन शिकायतों के निस्तारण के मामले में उत्तर प्रदेश की स्थिति बेहद खराब

केपी सिंह-

मगरूर प्रशासन पर किसका वरदहस्त… जन शिकायतों के निस्तारण के मामले में उत्तर प्रदेश में स्थिति बेहद खराब है जबकि यह सुशासन की सबसे प्रमुख कसौटी मानी जाती है। कुछ दिनों पहले सरकार ने जन शिकायतों के तथाकथित समाधान को लेकर लोगों का फीड बैक चैक कराया था जिसमें पता चला था कि तीन चौथाई लोग अधिकारियों के दावे को गलत ठहराते हैं।

अधिकारी कैरियर मैनेजमेंट के मामले में बहुत गुरू घंटाल कहे जा सकते हैं जो धरातल की सच्चाई पर पर्दा डालने के लिये आंकड़ों की बाजीगरी में अपनी पूरी विशेषज्ञता झोंक डालते हैं। सम्पूर्ण समाधान दिवस जैसे फोरम पर जहां सरकार की विशेष नजर रहती है, पंजीकृत होने वाली शिकायतों के कागजी निस्तारण में अधिकारी पूरी तत्परता दिखा डालते हैं ताकि उनके आंकड़े दुरूस्त रह सकें लेकिन अभी भी वे विरासत में मिली उपनिवेशवादी मानसिकता से उबर नहीं सके हैं इसलिये चेतन अचेतन रूप से शिकायत देना उनकी निगाह में जुर्रत करना ठहरता है।

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इस स्वराज में भी अधिकारी को लोग प्रजा समझते हैं जिनमें अपनी पीड़ा पर मुखर होने की बजाय सब्र दिखाने का शऊर होना चाहिये। उन्हें वे ‘खुराफाती’ बर्दाश्त नहीं हैं जो अधिकारियों और कर्मचारियों की गलतियों पर बात बात पर उंगली उठाते हों। उनकी नजर में ऐसे लोगों की सुनने की कोई जरूरत नहीं होना चाहिये बल्कि बस चले तो ऐसे लोगों को सबक सिखाने में भी चूक न की जाये। जाहिर है कि जन शिकायतें जब ऐसी मानसिकता के अधिकारियों के हाथ पड़तीं हैं तो उनका यही हश्र तय है।

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कार्यशैली को सम्पूर्णता में देखा जाये तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि वे साफ सुथरे और संवेदनशील प्रशासन के कायल हैं लेकिन कुछ पूर्व धारणाओं के शिकार होने की बजह से उनकी सदिच्छा का नतीजा विपरीत आता है। जिलों में रैंकर डीएम, एसपी तैनात करने की बजाय उनकी च्वाइस नौजवान अफसरों को मौका देने की है। सिद्धांत रूप में तो यह विचार अच्छा है क्योंकि प्रथम दृष्टया यही लगता है कि नौजवान अफसरों पर दुनियादारी का रंग नहीं चढ़ा होता है और प्रशासन में दृढ़ता दिखाने की भी कुब्बत उनमें होती है लेकिन इस समय दुनिया उल्टी पुल्टी चल रही है जिसके असर से अफसरशाही भी अछूती नहीं है।

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भौतिकतावाद का चश्मा सभी आयु, जाति, वर्ग, धर्म के लोगों पर ऐसा चढ़ गया है कि आदर्शवादी सोच की उम्र में ही आईएएस और आईपीएस संवर्ग तक के अफसरों को जो देश की सर्वश्रेष्ठ मेधा में से आते हैं, ट्रेनिंग के समय से ही पैसे कमाने का चस्का भाने लगता है। इसलिये यह कोई पैमाना नहीं है कि संवर्ग को अगुवाई देने से प्रशासन में ईमानदारी रहेगी और किस संवर्ग पर मेहरबानी लुटिया डुबो देगी। कई रैंकर अफसर ऐसे देखे गये हैं जिन्हे पैसे की हविश छू नही गयी। रैंकर अफसरों में भी उसूलों के मामले में दिलेरी दिखाने वाले मिल सकते हैं, साथ में रैंकर अफसरों में अनुभव से सामाजिकता और मानवता के गुण पनप जाते हैं जिसकी बहुत कमी अहंवादिता के कारण नये अफसरों में देखी जाती है। इसलिये जिलों में पद स्थापना के मामले में मुख्यमंत्री से कहीं न कहीं चूक हो रही है जिसके कारण उनकी सकारात्मक सोच का वांछित प्रतिफलन नहीं हो पा रहा है। जन शिकायतों के मामलों में प्रशासन की निष्ठुर छवि उभरने के पीछे यही कारण मुख्य है। मुख्यमंत्री को चाहिये जिले की बागडोर के लिये प्रशासन में संवर्ग को प्राथमिकता देने की बजाय अधिकारी की व्यक्तिगत ख्याति पर ध्यान दें। अगर अफसर अच्छा और सक्षम है तो उसे आजमाने में हिचक नहीं दिखाई जानी चाहिये भले ही वह फ्रेशर हो या रैंकर।

जन शिकायतों के प्रति अधिकारियों के बेरूखे रवैये का ही परिणाम है भ्रष्टाचार का बढ़ते जाना। इस सरकार में घपलेबाज अफसरों पर जितनी गाज गिरी उतनी कार्रवाई पहले किसी भी सरकार के कार्यकाल में नहीं हुयी। इसके बावजूद और तो और सत्तारूढ़ पार्टी के कार्यकर्ता तक यह कहते और मानते हैं कि जितनी भी रिश्वतखोरी आज है उतनी पहले कभी नहीं थी। रिश्वत का रेट और परसेंटेज भी बहुत बढ़ गया है। ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार करने वालों को शासन का बिलकुल खौफ नहीं बचा है। दूसरे राम नाम की लूट जैसी स्थिति पैदा हो गयी है जिसके चलते उन लोगों का संयम भी मौका हाथ से न निकलने देने के उतावलेपन में टूट गया है जो आमतौर पर भ्रष्ट नहीं हो सकते थे। इस कहावत का भी कोई अर्थ नहीं है कि जब पूरे कुंए में ही भांग पड़ी हो तो सरकार क्या करे।

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लेकिन उदाहरण गवाह हैं कि किसी भी जिले में अगर डीएम या एसपी ने ही ठान लिया कि वे गड़बड़ी नहीं होने देंगे तो उनके समय कर्मचारियों को अपने लोभ का संवरण करने में ही खैर नजर आयी। ऐसे में यह कैसे माना जा सकता है कि अगर मुख्यमंत्री उतारू हो जाये तो भी आज के माहौल में भ्रष्टाचार नहीं रूक सकता। दरअसल यही पर्याप्त नहीं है कि मुख्यमंत्री के इरादे मात्र नेक हों। लेकिन उसकी कार्यनीति भी कारगर होनी चाहिये। भ्रष्टाचार की शिकायतों को लेकर भी मुख्यमंत्री की कुछ पूर्व धारणायें आड़े आ रहीं हैं। मुख्यमंत्री भी समझते है कि लोग यहां तक कि अपनी पार्टी के चयन प्रतिनिधियों व कार्यकर्ताओं के बारे में भी उनका यही विचार है कि जिसे वे कई बार सार्वजनिक रूप से प्रकट कर चुके हैं कि उनके द्वारा दलाली के लिये अधिकारियों पर दबाव बनाने हेतु उनके भ्रष्टाचार की शिकायतें की जाती हैं। उनके इस पूर्वाग्रह भरे विचार के कारण भ्रष्टाचार की शिकायतों को रफा दफा करने वालों को खूब प्रोत्साहन मिला है।

अगर भ्रष्टाचार की ठोस शिकायतों पर उसे करने वाले की नीयत की पड़ताल में लग जाने की बजाय प्रारंभिक स्तर पर ही प्रभावी जांच के लिये पहल होने लगे तो बहुत कुछ ठीक हो सकता है। यह सही है कि मुख्यमंत्री ने अधिकारियों को जरूरत से ज्यादा सिर चढ़ा रखा है इसलिये वे इतने मगरूर हो गये हैं कि खुद तो गड़बड़ करते ही है, अपने से नीचे वालों की गड़बड़ी की शिकायतों की भी सही जांच कराना उन्हें गवारा नहीं है। यह अच्छा है कि जब जागो तभी सवेरा यानी मुख्यमंत्री ने अब जन शिकायतों के सही निस्तारण न किये जाने की प्रवृति को गंभीरता से लिया है। खबरें आ रहीं है कि जिन जिलों को जन शिकायतों के निस्तारण में लापरवाही के लिये चिह्ति किया गया है उनके अधिकारी हटाये जा रहे हैं।

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अगर ऐसा होता है तो अधिकारी लोगों के प्रति अपनी जबावदेही महसूस करने के लिये बाध्य होंगे जो अभी यह चर्चा कर बैठते हैं कि पब्लिक को तो अधिकारियों की झूठीं शिकायत की आदत पड़ गयी है। उनका टोन ऐसा रहता है मानों वे किसी दूसरे देश से आये हुकुमरान हों। ऐसा कहते हुये वे भूल जाते हैं कि स्वयं वे भी उसी समाज के बीच से आये हैं जिसके प्रति हिकारत जताने के लिये वे उसे पब्लिक कह रहे हैं।

अगर इस मामले में कार्यवाही होती है तो पब्लिक यानी लोगों की वर्तमान माहौल के कारण जो घुटन है वह खतम होगी।

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रिश्वतखोरी बढ़ने की एक वजह यह भी है कि कुछ हजार रूपये वेतन पाने वाले अधिकारी और कर्मचारी रातोंरात करोड़पति और अरबपति बन रहे हैं फिर भी पकड़े नहीं जाते। सतर्कता, एंटी करप्शन और अभिसूचना जैसे विभाग जिनका काम आय से अधिक संपत्ति जमा करने वाले सरकारी कारिंदों की निगरानी करना है अपने दायित्व में विफल क्यों हैं। क्या उनके पास संसाधनों की कमी है तो उनकी पूर्ति की जानी चाहिये। कानून व्यवस्था के मोर्चे पर मुख्यमंत्री ने जिस तरह कटिबद्ध होकर प्रयास किया भ्रष्टाचार से मुक्त प्रशासन बनाने के लिये भी वैसा उपक्रम बहुत जरूरी है।

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