शुरुआती रुझान आने शुरू हो गए हैं! रायटर्स की तस्वीर के साथ हेडलाइन है- श्रीनगर में कम से कम 40 जगह प्रतिरोध, पत्थरबाज़ी और ख़ाली सड़कों के बीच ईयू सांसदों का कश्मीर दौरा (शुरू)।
सनद रहे, रायटर्स अख़बार नहीं वायर एजेंसी है- दुनिया के 100 से ज़्यादा देशों में दसियों हज़ार मीडिया हाउस इनकी खबरें लेने का महीने का पैसा देते हैं- बोले तो (उनकी) शाम तक ये खबर पश्चिमी देशों के दो कौड़ी की हैसियत के भी मीडिया हाउस के पोर्टल पर होगी। सुबह तक दुनिया के हर मतलब भर के अख़बार के पहले पन्ने पर!
ये फ़ैसला जिसकी भी करतूत थी उसे अपनी क़िस्मत का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि इस सरकार में लिया है जिसमें कुछ भी कर दो सजा नहीं होती- फिर नोटबंदी हो या पुलवामा में सूचना के बावजूद चूक!
कहीं उत्तर कोरिया होता तो आप बस कल्पना भर कर सकते थे क्या अंजाम होता!
दूसरा रुझान भी सामने…. रायटर्स के बाद असोसिएटेड प्रेस ने भी ‘यूरोपियन यूनियन’ सांसदों की कश्मीर यात्रा को धोया!
पूरी खबर इस यात्रा/सरकार के पक्ष में एक पंक्ति भी नहीं है!
ख़ाली सड़क पर किसी को दौड़ाते लग रहे 4 सुरक्षा कर्मियों की (फ़ाइल ही होगी इसीलिए चुनाव और महत्वपूर्ण है) तस्वीर के साथ शीर्षक है- यूरोपियन यूनियन सांसद कश्मीर की ‘रेयर’ (दुर्लभ) यात्रा पर।
अंदर: पहले तो अगस्त में मुस्लिम बहुल इलाक़े के ‘सांविधानिक अधिकार’ ख़त्म कर कड़े दमन के दो पैराग्राफ़ के साथ शुरुआत है।
तीसरे में शुरुआत है कि सरकार ने प्रतिबंध थोड़े ढीले किए हैं पर कश्मीरियों ने अपने खुद के आर्थिक नुक़सान की क़ीमत पर भी ‘जारी दमन के बीच चुपचाप सामान्य ज़िंदगी वापस शुरू करने से इंकार कर’ भारत सरकार को ‘चकरा दिया है”।
आगे जोड़ा- इसके पहले भारत ने संयुक्त राष्ट्र्संघ रिपोर्टर, अमेरिकी सीनेटर, विदेशी मीडिया और खुद भारत के सांसदों को कश्मीर में घुसने की अनुमति देने से इंकार का विस्तार से ज़िक्र है!
उसके बाद तो और भी भयावह है- यूरोपियन यूनियन के ब्रिटिश सांसद क्रिस डेविस का उनको निमंत्रण देकर उनके जनता से मिलने की माँग पर ख़ारिज कर लेने को पूरे तीन पैराग्राफ़- उनके खुद के लंबे उद्धरण के साथ!
“मैं मोदी सरकार के इस पीआर स्टंट का हिस्सा बनकर ‘सब ठीक है’ कहने को तैयार नहीं हूँ। साफ़ है कि कश्मीर में लोकतांत्रिक सिद्धांतों को नष्ट किया जा रहा है और दुनिया को इसका संज्ञान लेना चाहिए।”
आगे कश्मीर में आज पूरी बंदी, पत्थरबाज़ी, कश्मीरियों के संघर्ष आदि का ज़िक्र है! फिर बीते कुछ दिनों में आतंकी हमलों वग़ैरह का!
ये असोसिएटेड प्रेस भी वायर एजेंसी है। दुनिया के 100 से ज़्यादा देशों में दसियों हज़ार मीडिया हाउस इनकी खबरें लेने का महीने का पैसा देते हैं, बोले तो, शाम तक ये खबर पश्चिमी देशों के दो कौड़ी की हैसियत के भी मीडिया हाउस के पोर्टल पर होगी और सुबह तक दुनिया के हर मतलब भर के अख़बार के पहले पन्ने पर!
अब तीसरी सबसे बड़ी एजेंसी एएफ़पी भर की प्रतिक्रिया देखनी रह गई है!
वैसे, मोदी जी के ‘मास्टरस्ट्रोक्स’ हमेशा अचंभित करते हैं! जैसे अभी इसे ही ले लीजिए, यूरोपियन यूनियन के 27 सदस्यीय सांसद दल को जम्मू और कश्मीर के दौरे की अनुमति दे देना!
भारत हमेशा से कश्मीर को सिर्फ़ और सिर्फ़ द्विपक्षीय मसला मानता रहा है। इस क़दर कि वह 1972 में शिमला समझौते के बाद से ही यूएन मिलिटेरी आब्जर्वर ग्रूप फ़ोर इंडिया एंड पाकिस्तान को भी अप्रासंगिक मानता रहा है।
इंदिरा जी से लेकर मनमोहन सिंह (वाजपेयी सहित) सभी प्रधानमंत्रियों ने यूएनएमओजीओआईपी की हर रिपोर्ट को ख़ारिज किया है।
आप में से शायद बहुतों को याद न हो (मैंने तब भी लिखा था) खुद मोदी सरकार ने सत्ता में आने के महीनों के भीतर- सीधे कहें तो 8 जुलाई 2014 को यूएन मिशन को भारत छोड़ देने के लिए कहा था- भले ही वह यह करवा नहीं पाई!
ऐसे में खुद मोदी का यूरोपियन सांसदों को कश्मीर के दौरे की इजाज़त देना (क्या निमंत्रण भी?) खुद कश्मीर मामले का अंतर्राष्ट्रीयकरण करना नहीं है, वह भी उस दौर में जब वह विपक्षी नेताओं ही नहीं खुद कश्मीरी पंडित और पूर्व वायुसेना उपाध्यक्ष कपिल काक तक को वहाँ नहीं जाने दे रही?
इसके पहले भी अगस्त से ही दुनिया भर के नेता- ख़ासतौर पर ट्रम्प – भारत के विरोध के बावजूद कश्मीर पर कई कई बयान देते रहे हैं, ट्रम्प ने तो पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान के सामने यह तक कह दिया था कि खुद मोदी ने उनसे मध्यस्थता की अपील की है?
मलेशिया जैसे देशों का तो ख़ैर इसे यूनाइटेड नेशंस के अपने भाषण में ही 370 हटाने के साथ साथ अन्य निर्णयों को कश्मीर पर भारत का हमला और क़ब्ज़ा कहा था और भारत के विरोध के बावजूद अब तक अपने स्टैंड पर क़ायम हैं- और सशक्त मोदी सरकार ने उनके राजदूत को तलब तक नहीं किया है जो ऐसे मामलों में तुरंत किया जाता है!
ज्ञात हो कि अभी हाल में ब्रिटेन ने हांगकांग पर टिप्पणियों को लेकर चीन के राजदूत को तलब कर लिया था!
सो इस अचानक लिए गए निर्णय के निहितार्थ क्या हैं? क्या इस मामले पर अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक स्थिति भारत के हाथ से निकली जा रही है जो इतना बड़ा कदम उठाना पड़ा? अगर नहीं, जैसा कि सरकार का दावा है, तो क्यों?
और सबसे बड़ा सवाल- अगर सांसद दल ने सिर्फ़ मानवाधिकार स्थिति की आलोचना तक कर दी- निंदा तो छोड़िए ही- तो सरकार क्या करेगी? क्या उसने सांसदों की कोई ‘वेटिंग’ की है?
बाक़ी आप अगर मोदी समर्थक हों तो सिर्फ़ ये जोड़ के पढ़िएगा कि ये फ़ैसला मनमोहन सरकार ने लिया होता तो मोदी क्या क्या भाषण दे रहे होते!
सोशल मीडिया के चर्चित टिप्पणीकार अविनाश पांडेय उर्फ समर अनार्या की रिपोर्ट.