Rajiv Nayan Bahuguna : अरविन्द केजरीवाल को एक श्रेय तो जाता है कि उसने धुर विरोधी कांग्रेस और भाजपा को कम से कम एक मुद्दे पर एकजुट कर दिया। एक दूसरे से फुर्सत पाते ही वे दोनों केजरीवाल पर टूट पड़ते हैं। क्यों? उदाहरण से समझाता हूं।
आज से 20 साल पहले मैं फूलों की घाटी को जाता था। रस्ते में विकट पगडंडी पर धूर्त लोकल ढाबे वाले उस समय भी 20 रूपये में चाय का कल्चवाणी बेचते थे। किसी निरीह यात्री ने विरोध किया, तो आपसी प्रतिद्वंदिता भूल गर्म चिमटे और मुछ्याले लेकर उस पर टूट पड़ते थे। एक अन्य स्थानीय युवक ने विकल्प दिया। ताज़ा चाय 5 रूपये में देना शुरू की।
मैं पँहुचा तो सभी ढाबे वाले समवेत हो मेरे पास आकर बोले- यह छोकरा सस्ते के चक्कर में गन्दे पानी तथा नकली चीनी वाली घटिया चाय बेचता है। कभी दुर्घटना हो जायेगी। आप पत्रकार हो, इसके विरोध में लिखो।
मैंने प्रति प्रश्न किया- जब यहां आस पास सब जगह स्वच्छ जल के निर्झर बह रहे हैं, तो यह गन्दा पानी लेने क्या 18 किलोमीटर दूर हाइवे पर जाता होगा? क्योंकि उससे पहले यहां गन्दा पानी कहीँ उपलब्ध ही नहीं है। और, तुम सब मिल कर उससे नकली चीनी की एक मूठ छीन लाओ, मैं देखना चाहता हूँ।
इस पर सब मुझ पर कुपित हो गए और बोले, तू फ़र्ज़ी पत्रकार है।
बस केजरीवाल से सबको यही समस्या है। उसने स्वच्छ, पारदर्शी, वैकल्पिक राजनीति का मार्ग प्रशस्त कर दिया, तो अब तोड़ नहीं सूझ रहा। जैसे गांधी की राजनीति का तोड़ न सूझा, तो उसके विरोधी उसकी बकरी को लेकर ही बहस छेड़े रहते थे। वैसे ही केजरीवाल के मफलर और उसकी खांसी को लेकर मार मचाए रहते हैं, क्योंकि शेष क्या कहेंगे, उसने जो कहा, वह किया। अब तू सुधर जा, या कोई और धंधा देख ले। दिल्ली पंजाब के पश्चात यह संक्रमण और फैलेगा। सुधरो, या सिधारो।
वरिष्ठ पत्रकार और सोशल एक्टिविस्ट राजीव नयन बहुगुणा की एफबी वॉल से.
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