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सुख-दुख

विरल होते हैं ख़ैय्याम : तुम अपना ग़म और परेशानी मुझे दे दो…

वीर विनोद छाबड़ा-

दो साल पहले 19 अगस्त को मोहम्मद ज़हूर ख़ैय्याम 93 साल की उम्र में गुज़रे थे. ये ठीक है कि उन्होंने लंबी उम्र पाई और फिर दुनिया में आना-जाना तो लगा ही रहता है. मगर इसके बावजूद उनका गुज़र जाना कोई मामूली घटना नहीं थी.

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संगीत की दुनिया को बहुत बड़ा झटका लगा था. वो गुज़रे दौर से वर्तमान को जोड़ने वाली आखिरी कड़ी थे. पिछली 15 अगस्त को उनकी पत्नी जगजीत कौर भी गुज़र गयीं जिनके कारण हम अतीत को वर्तमान से जोड़ते थे. 18 फरवरी 1927 को जालंधर के राहों में जन्मे ख़ैय्याम ने सिनेमा में आने के लिए ज़बरदस्त स्ट्रगल करी.

बचपन से ही कुंदन लाल सहगल के प्रति दीवानगी रही. परिवार में किसी का गायन या संगीत से लेना-देना नहीं रहा. मगर दीवानगी इंसान को पागलपन की हद तक रिस्क उठाने को मजबूर कर देती है.

एक दिन महज़ ग्यारह साल की नादान उम्र में वो जालंधर से भाग कर दिल्ली पहुंच गए, चाचा के घर. चाचा बहुत गुस्सा हुए. मगर दादी ने बचा लिया. उन्होंने ख़ैय्याम को स्कूल में भर्ती करा दिया, मगर बच्चे का दिल पढाई-लिखाई में नहीं लगा. चाचा ने उनका संगीत के प्रति लगाव देख कर हार मान ली और पंडित अमरनाथ शर्मा के हवाले कर दिया जहां हुसनलाल और भगतराम भी संगीत सीख रहे थे और जो कालांतर में हिंदी सिनेमा इतिहास की पहली संगीतकार जोड़ी बने.

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यहाँ से ख़ैय्याम लाहोर चले गए, बाबा चिश्ती से अग्रतर संगीत का ज्ञान अर्जित करने. वो लाहोर में बनने वाली फिल्मों में संगीत भी दिया करते थे. बाबा ने उन्हें रख तो लिया, मगर सिर्फ रहने और खाने की शर्त पर, मेहनताना एक धेला भी नहीं. कुछ दिन मज़े से गुज़रे. पैसा ख़त्म हो गया. वो अपने व्यापारी भाई से मदद मांगने गए. भाई ने बुरी तरह डांट दिया, तुमने अपनी ज़िंदगी बर्बाद कर ली है. ख़ैय्याम गहरे अवसाद में चले गए. उन्हें लगा संगीत में कुछ नहीं रखा है.
खुद को किसी अन्य फील्ड में साबित करने के लिए खैय्याम सेना में भर्ती हो गए. उन दिनों सेकंड वर्ल्ड वार चल रही थी. साथियों को गाने सुना कर खुश करते थे. मगर यहां जल्द ही उनका मन उचट गया.

संगीत और के.एल. सहगल उनके दिलो-दिमाग से निकल ही नहीं पाए. तीन साल बाद ही नौकरी छोड़ कर फिर लाहोर आ गए. यहां बी.आर. चोपड़ा से भेंट हुई जो उन दिनों अंग्रेज़ी के पत्रकार हुआ करते थे और फिल्म कॉलम लिखते थे. उनकी सिफारिश पर बाबा चिश्ती ने उन्हें फिर रख लिया, मगर इस बार एक सौ पच्चीस रूपए माहवार पर. ख़ैय्याम का विश्वास पक्का हुआ, संगीत का मोल है, कद्रदान हैं. चिश्ती बाबा के एक अन्य सहायक हुआ करते थे रहमान वर्मा. वो उनके साथ बम्बई आ गए जहां उन्हें गुरुभाई हुसनलाल-भगतराम मिले जो उस वक़्त कामयाबी के झंडे गाड़ रहे थे. वो और रहमान उनके साथ हो लिए.

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कुछ दिनों बाद दोनों ने मिल कर संगीतकार जोड़ी बनाई, शर्माजी-वर्माजी. इसमें ख़ैय्याम बने शर्मा जी. उनकी पहली फिल्म आयी, हीर-रांझा. इसी बीच पार्टीशन हो गया. रहमान पाकिस्तान चले गए, मगर ख़ैय्याम को बम्बई में ही अपना सुनहरा भविष्य नज़र आया. अब वो शर्मा जी के छद्म नाम से संगीत देने लगे…अकेले में वो घबराते तो होंगे…(बीवी, 1950) हिट हो गया. मगर अच्छी पहचान बनी तलत महमूद के गाये इस गाने से… शाम-ए-ग़म की क़सम आज ग़मगीन हैं हम…(फुटपाथ, 1953). इसी में वो पहली बार अपने असली नाम से आये, ख़ैय्याम.

रमेश सहगल की ‘फिर सुबह होगी’ (1958) उनकी ज़िंदगी का टर्निंग पॉइंट बनी. इंक़लाबी शायर साहिर के साथ उनकी जोड़ी बनी…वो सुबह कभी तो आएगी…फिर न कीजे मेरी गुस्ताख़ निगाहों को गिला…ये विश्व विख्यात रूसी लेखक फ्योदोर दस्तोयव्स्की के उपन्यास ‘क्राइम एंड पुनिशमेन्ट’ पर आधारित थी और चूंकि ख़ैय्याम साहब ने इस पढ़ा हुआ था इसलिए उनके हिस्से में आयी. उन्होंने एक सबक और लिया, जिस फिल्म की कथा ज़ोरदार हो, मैसेज देती हो और गीतकार गुणी व संवेदनशील हो उसी में संगीत देंगे.

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जां निसार अख्तर, मजरूह सुल्तानपुरी, कैफ़ी आज़मी, अली सरदार जाफरी, निदा फ़ाज़ली जैसे नामी और प्रोग्रेसिव गीतकार उनके साथी रहे. यही वज़ह है कि फिल्म चले न चले, मगर उनका संगीत हिट होता रहा…जाने क्या ढूंढती रहती हैं ये आँखें मुझमें…जीत ही लेंगे हम बाज़ी प्यार की…(शोला और शबनम, 1961)… बहारों मेरा जीवन भी संवारो… कुछ देर और ठहर, और कुछ देर न जा…(आख़िरी ख़त)…तुम चली जाओगी, परछाईयां रह जाएंगी…तुम अपना ग़म ओ परेशानी मुझे दे दो…(शगुन)…ठहरिये होश में आ लूं तो चले जाइएगा…(मोहब्बत इसको कहते हैं)…कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है…मैं पल दो पल क शायर हूँ…(कभी कभी)…इन आखों की मस्ती के दीवाने हज़ारों हैं… दिल क्या चीज़ है क्या आप मेरी जां लीजिये…(उमराव जान)…ए दिले नादां आरज़ू क्या है जुस्तजू क्या है…(रज़िया सुलतान)…देख लो आज हमको जीभर के…(बाज़ार)…आजा रे मेरे दिलबर आजा… (नूरी)…’मजनून’ में ख़ैय्याम की खूबसूरत कम्पोज़िंग सुन कर राजेश खन्ना उनके ऐसे दीवाने हो गए कि उन्हें एक कार गिफ्ट की. बदक़िस्मती से ‘मजनून’ बन नहीं पायी, मगर राजेश खन्ना से उनका दोस्ताना बना रहा. ‘थोड़ी सी बेवफ़ाई’ का गाना याद करें…हज़ार राहें मुड़ के देखें…उन्होंने राजेश खन्ना की ‘दर्द’ और ‘दिले नादां’ में भी संगीत दिया.

‘फिर सुबह होगी’ की क़ामयाबी पर राजकपूर ने दावत दी. ख़ैय्याम साहब भी आये. उनकी मौजूदगी से राजकपूर के रेगुलर संगीतकार शंकर-जयकिशन थोड़ा परेशान हुए, जैसे उनका पत्ता साफ़ होने जा रहा है. ख़ैय्याम ने भांप लिया. बिना बताये, पार्टी छोड़ कर चले गए. ‘कभी कभी’ के लिए जब यश चोपड़ा साइन करने आये तो उन्होंने साफ़ साफ़ कह दिया, सोच लो, फ्लॉप दर फ्लॉप देने का मुझ पर लेबल लगा है. यश बोले, मुझ परवाह नही. और बाकी तो हिस्ट्री है. आगे चल कर उन्होंने यश की ‘नूरी’ और ‘त्रिशूल’ में भी संगीत दिया. यश ख़ैय्याम को ‘सिलसिला’ में भी चाहते थे, मगर उन्हें कहानी हज़म नहीं हुई. यश ने उन्हें बार-बार फिर से विचार करने को कहा. लेकिन वो अड़े रहे, न तो न. अगर उन्होंने समझौते किये होते तो 1947 से शुरू हुए लम्बे फ़िल्मी सफर में उनके हिस्से में मात्र सतावन नहीं दो ढाई सौ फ़िल्में तो होती हीं.

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ख़ैय्याम ने नॉन-फ़िल्मी अल्बम में भी संगीत दिया…पांव पड़े तोरे श्याम ब्रिज में लौट चलो…मीना कुमारी का अल्बम ‘आई राइट आई रिसाइट’ तो बहुत ही मशहूर हुआ. 1962 में चीन युद्ध के दौरान पंडित नेहरू ने देशभक्ति से ओत-प्रोत डॉक्यूमेंटरी फ़िल्में बनाने को महबूब ख़ान से कहा. एक डॉक्यूमेंटरी में जां निसार अख़्तर ने लिखा और ख़ैय्याम ने कम्पोज़ किया…एक है अपनी ज़मीं, एक है अपना गगन, एक है अपना जहां, एक है अपना वतन, अपनी आब-सुख एक हैं, अपने सभी ग़म एक हैं, आवाज़ दो हम एक हैं…
ख़ैय्याम साब को उनकी संगीत की क्वालिटी के मुताबिक फ़िल्में भले ज़्यादा नहीं मिलीं, मगर सम्मान बहुत मिला। भारत सरकार ने उन्हें 2011 में पद्म भूषण से सम्मानित किया. फिल्मफेयर ने सर्वश्रेष्ठ म्युज़िक के लिए दो बार नवाज़ा, कभी कभी और उमरावजान.

2010 में फिल्मफेयर ने उन्हें लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड के लिए याद किया. खैय्याम साहब अपनी कामयाबी का श्रेय गायिका पत्नी जगजीत कौर को देते हैं जिन्होंने उनके लिए ‘शगुन’ में आवाज़ दी थी…तुम अपना ग़म अपनी परेशानी मुझे दे दो…वो चाहते थे कि फिल्मों के टाइटिल्स में उनके साथ जगजीत का नाम भी जुड़े, म्युज़िक ख़ैय्याम-जगजीत. मगर जगजीत ने मना कर दिया, मुझे आपके पीछे खड़े होने में सुख मिलता है. उनके एक बेटा था प्रदीप, जिसकी कम आयु 2012 में हार्ट-अटैक से मौत हो गयी थी. उसकी याद में उन्होंने 2016 में ट्रस्ट बनाया जिसमें उन्होंने अपनी ज़िंदगी भर की दस करोड़ रूपए की कमाई दे दी ताकि इसके ब्याज से फिल्म बिरादरी से जुड़े ज़रूरतमंदों को आर्थिक मदद दी जा सके. उन्होंने इस बात का भी ख्याल रखा कि जब वो नहीं रहें तब भी ट्रस्ट चलता रहे. यक़ीनन ख़ैय्याम जैसे मनीषी और बड़े दिल वाले विरल होते हैं, बार बार पैदा नहीं होते.

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