यश मालवीय-
लालबहादुर वर्मा को याद करना एक ऐसे दोस्त को याद करना है,जिसके लिए ज़िंदगी भर दोस्ती एक मूल्य जैसी ही रही।वो किसी को बख्शते नहीं थे,अपने आप को भी नहीं। बेहतर दुनिया का सपना देखना और दिखाना आख़िरी सांस तक उन्हें अज़ीज़ रहा। इस सपने को देखने में वो अपनी रातों की नींद भी हराम करते रहे। वो बंद कमरों के कामरेड नहीं थे।वो अपने को जितनी गंभीरता से लेते थे, उतना ही सामने वाले को भी। हम उनके बहुत नालायक दोस्त रहे, वो हमारे सामने हमेशा ही चुनौतियां उछालते रहे और हम उछलते रहे ।उनकी डांट खाना मुझे बहुत अच्छा लगता था क्योंकि उनकी डांट में एक अजीब सी कशिश होती थी। उनसे मेरा रिश्ता हेट एंड लव वाला था। वो सार संकलन बहुत करते थे और मुझे बिखरना भाता था। वो हमें पिताग्रस्त और इलाहाबादग्रस्त कवि कहते, मैं उन्हें इतिहासग्रस्त इतिहासकार कहता।

वो डंके की चोट पर कहते कि इतिहास अपने को दुहराता नहीं पर वो स्वयं को ही दुहराते रहते। उन्हें कविता की समझ नहीं थी और मुझे इतिहास की पर बाईचांस उन्होंने एक बहुत अच्छा शेर कह लिया था-
उसको देखा तो हो गए काफ़िर
बुतपरस्ती मेरा ईमान न था।
ज़िंदगी भर वो इसी शेर के हैंगओवर में रहे।वो जितना ही मेरे घटियापन से चिढ़ते,उतना ही मुझे बढ़िया लगते।उनका दुनिया को बदलने का मुगालता मुझे बहुत प्रिय रहा।उनके भीतर मुझे एक वत्सल पिता सांस लेता दिखता,जो प्रायः अपनी औलाद की बदमाशियों और करतूतों पर निछावर हुआ जाता है।वो मेरे पेग में पानी अधिक मिलाते और ख़ुद नीट लेना पसंद करते।वो पीते बहुत कम थे पर सुरूर में चौबीसों घंटे रहते।एक बेचैन आत्मा थे। कहते थे कि ये बेचैनी हमारे मनुष्य होने का सबूत है,कभी कोई गैंडा बेचैन नहीं होता।
उनका यूरोप का इतिहास पढ़ते हुए हम सब बड़े हुए हैं।वो गुरू थे ,घंटाल नहीं थे।वो मुझसे अधिक मेरी पत्नी और बच्चों को प्यार करते थे और कहा करते थे कि कहां फंस गई सीधी सादी लड़की, हालाकि आंटी को देखकर हम भी कुछ ऐसा ही सोचते थे कि हमेशा एजेंडे पर रहने वाले व्यक्ति से वो कैसे निर्वाह करती हैं।वो बुरा अधिक मानते थे और अच्छा बहुत कम।इधर कुछ चिढ़े चिढ़े से रहने लगे थे। वामपंथी होकर भी वामपंथियों के दुहरे आचरण से नफ़रत करते थे,हालाकि इस दुहरेपन के वो ख़ुद भी शिकार हो जाया करते थे।वो बहुत सारी मानवीय कमजोरियों के साथ बड़े आदमी थे।महान थे,महीन नहीं थे।
अल्लापुर में रहने वाले और ए जी ऑफिस में कार्यरत रहे ज्योतिषाचार्य सुधाकर त्रिपाठी के वह किरायेदार थे। दोनों के सम्बन्ध बहुत अच्छे थे क्योंकि दोनों एक दूसरे को सुनते थे।शायद इसीलिए पंडित जी के साथ शांत भाव से उन्हें सत्यनारायण कथा सुनते हुए भी देखा गया।
एक बड़े आदमी के सारे अंतर्विरोध उनमें थे। वो पूजापाठ में यकीन नहीं करते थे, ज़ाहिर है कि नास्तिक थे मगर कोई यदि पूजा कर रहा हो तो उसके लिए फूल चुनकर ला सकते थे।इलाहाबाद छोड़ना उनकी ऐतिहासिक भूल थी, जिसे वह कभी स्वीकार नहीं कर पाए, जबकि यह भी कहते थे कि इलाहाबाद से कभी जाया नहीं जा सकता और वो भी सचमुच कहां जा पाए, लौट लौट कर इलाहाबाद आते रहे या आने के बहाने खोजते रहे। उन्हें टेकन फार ग्रांटेड लेने वालों ने बहुत छला। छले जाकर भी वह आनंदित होते थे।
सुखी होने का कोई मौक़ा वो कभी छोड़ते नहीं थे फिर भी दुखी रहते थे। ईमानदार आदमी थे इसलिए अपनी आत्मकथा में ख़ुद को प्रलाप करने से भी रोक नहीं पाए।दिलचस्प आदमी थे हर काम दिल से करते थे। ज़िंदगी भर लोगों से घिरे रहने वाले वर्मा जी को भी महामारी लेती गई और चार कंधे भी उन्हें मुश्किल से मिले।ये तो इसलिए भी हुआ कि उन्होंने जीवन भर अपने लिए कभी किसी के कंधे का इस्तेमाल नहीं किया तो आख़िरी वक्त कैसे करते।अकेले हो गए थे पर एक अकड़ और ऐंठ में रहते थे,जिसे उनकी अना भी कह सकते हैं। उन्हें खोकर हम सब कुछ और विपन्न और दरिद्र ही हुए हैं। यह तो मालूम ही है कि अब कोई दूसरा लालबहादुर वर्मा पैदा नहीं होगा। अलविदा दोस्त।
One comment on “एक इतिहासकार का इतिहास हो जाना : अब कोई दूसरा लालबहादुर वर्मा पैदा नहीं होगा!”
क्या l b Verma sir राजेन्द्र college छपरा में padhya था, 1977,79.