Pushya Mitra : मनोहर पर्रिकर और राजनाथ सिंह जैसे ताकतवर मंत्रियों का राज्य में मुख्यमंत्री की कुर्सी थामने के लिये उतावलापन बता रहा है कि हाल के दिनों में किस तरह बहुत तेजी से सत्ता का केंद्रीकरण हो रहा है। PMO और CMO जैसी संस्थाओं में आजकल पूरी सरकार केंद्रित हो जा रही है। सारा काम वहीँ से निर्देशित हो रहा है। मंत्रियों के पास अब कोई काम नहीं रहा है, फाइलों पर दस्तखवत करने के सिवा। उनके पास अब इतना ही पॉवर रहा है कि अपने कुछ लोगों को लाभ दिला सकें। कुछ टेंडर वगैरह पास करवा सकें।
बिहार में एक मंत्री से व्यक्तिगत परिचय है। उनका यहां जाता हूँ तो यह अहसास व्यक्तिगत रूप से होता है। अपने ही विभाग में होने वाले फैसलों पर उनका कोई नियंत्रण नजर नहीं आता। वे भी आम इंसान की तरह कहते हैं, ऐसा होना चाहिये, यह जो हो रहा है गलत हो रहा है। मैं उनकी बात सुनकर अवाक् रह जाता हूँ।
गठबंधन की वजह से यहां कुछ मंत्रियों के पास जरूर पॉवर है मगर केंद्र में तो यह स्थिति भी नहीं है। राजनाथ, अरुण जेटली और सुषमा स्वराज जैसे मंत्रियों को जब किसी फैसले को डिफेंड करते देखता हूँ तो ऐसा लगता ही नहीं है कि उनका इस फैसले से कोई रिश्ता भी रहा होगा। वहां हर काम मोदी करते हैं, बजट भाषण के बाद उस पर टिप्पणी के बहाने उससे बड़ा भाषण दे डालते हैं।
अब इन मंत्रियों की मजबूरी है कि ये मोदी और नीतीश जैसे नेताओं का दबदबा बर्दाश्त करें क्योंकि इन्हें वोट भी इनकी वजह से ही मिलती है और मंत्री पद भी कृपा स्वरुप ही मिला है। ज्यादातर मंत्रियों को इसी स्थिति में पाता हूँ। अगर अरुण जेटली अकेले किसी चुनावी रैली को संबोधित करने पहुँच जाएँ तो 500 लोग भी न पहुंचें। वही हाल बिहार के ज्यादातर मंत्रियों का है। यही वजह है कि मोदी को यूपी चुनाव में घूम घूम कर भाषण देना पड़ता है और वाराणसी में कैंप करना पड़ता है।
मगर यह सब देश और राजनीति के लिये ठीक नहीं है। बॉलीवुड के सुपर स्टारों की तरह हर पार्टी का एक व्यक्ति तक केंद्रित हो जाना तात्कालिक समाधान तो है मगर इससे उस दल का फैमिली प्राइवेट लिमिटेड में बदल जाने का खतरा है। बीजेपी जैसी पार्टी में जिस तरह मोदी एक कार्यकर्त्ता से देश के पीएम बन गए वह संभावना भी खत्म होती जा रही है। वरुण गांधी, संजय जोशी, गोविंदाचार्य जैसे लोगों का लगातार हाशिये में चले जाने यह बताता है कि इस पार्टी में असहमति की गुंजाइश खत्म होने लगी है। और यह हर पार्टी का हाल है।
विकेंद्रीकरण को लोकतंत्र की असली ताकत माना जाता है। ऐसा समझा जाता है कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था कि संरचना ऐसी हो कि आखिरी व्यक्ति तक इसमें अपने लिये ताकत महसूस कर सके। वह फैसलों को प्रभावित कर सके। इसी वजह से लोकसभा से लेकर ग्रामसभा तक की अतिरिक्त व्यवस्था की गयी है कि वह समय समय पर आवाम की राय से सरकार को प्रभावित कर सके। मगर अब तो कैबिनेट मीटिंग में भी शायद ही कोई ऐसा मौका आता हो कि कोई मंत्री किसी फैसले का विरोध करे या उस पर कोई टिप्पणी करे।
पटना सचिवालय में देखता हूँ CMO से सीधे विभाग के सेक्रेटरी के पास निर्देश आता है। सेक्रेटरी प्रस्ताव बनाकर मंत्री के पास दस्तखवत कराने जाता है इस टिप्पणी के साथ कि cm साहब के यहां से निर्देश आया है। ऐसे तो सरकारें चल रही हैं। और इसकी इकलौती वजह है कि पीआर एजेंसियों ने राजनीतिक दलों को समझा रक्खा है कि पर्सनालिटी कल्ट के बगैर चुनाव जीतना मुमकिन नहीं है। लिहाजा हर स्तर पर लोकतंत्र की बैंड बज रही है।
बिहार के वरिष्ठ पत्रकार पुष्य मित्र की एफबी वॉल से.