लोकसभा आमचुनाव में जब अस्सी सीटों वाले उत्तरप्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी को चार-पांच सीटें ही मिलीं और वो भी मुलायमसिंह यादव, उनकी बहू और दो एक भतीजों की, तो नेताजी खिसियाए और बौखलाए भी. इस शर्मनाक पराजय का ठीकरा उन्होंने मोदी के बजाय बेटे मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की मुफ्त लेपटॉप योजना पर फोड़ा. यूपी सरकार की इस योजना के जरिए सरकारी स्कूलों के विद्यार्थियों को मुफ्त लेपटॉप बांटे गए थे. उधर मध्यप्रदेश में भी मुफ्त लैपटॉप की एक योजना सुर्ख़ियों में है. कहा जा रहा है कि लैपटॉप के नाम पर रसीद लेकर हर हितग्राही को चालीस-बयालीस हजार रूपए बांटने के बाद ही बदनाम व्यापम घोटाले को नई ऊर्जा मिली, जिसने राज्यपाल तथा मुख्यमंत्री को भी लपेटे में ले लिया ! इसलिए कल को हमारे अंधविश्वासी नेता लैपटाप को मनहूसियत का प्रतीक बताने लगें तो चकित न होइएगा.
मध्यप्रदेश में लैपटॉप बाँटने की तस्वीर दूसरे किस्म की है. यहाँ लैपटॉप का हितग्राही विद्यार्थी या कोई दीगर जरूरतमंद नहीं, बल्कि पत्रकार बिरादरी है. मजे की बात यह कि पत्रकारों को मुफ्त लैपटॉप का वायदा विधानसभा आम चुनाव के समय सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की प्रदेश इकाई ने किया था. इससे भी दिलचस्प यह तथ्य है कि इस मुफ्तखोरी को घोषणापत्र में इस अंदाज में जगह दी, मानो यह समाज के सबसे `गए-गुजरे` तबके के कल्याण के लिए बेहद जरूरी हो..! आज का कड़वा सच तो यही है कि सभाओं और घोषणापत्रों में किए गए वायदों को चुनावी जुमला कह कर ख़ारिज किया जा रहा है. लेकिन लैपटॉप का वायदा चूँकि मीडिया से किया गया था, सो फ़टाफ़ट इस पर अमल की कवायद भी शुरू कर दी गई.
उपहार रूपी खुली रिश्वत के लिए बदनाम दीवाली के अवसर से लेपटॉप बांटने की शुरुआत कर दी गई. पहली खेप में चुनिंदा पत्रकारों को इस उपहार से नवाजा गया और लेपटॉप की बजाय उसकी कीमत देने का तरीका चुना. उत्तर प्रदेश सरकार ने खुद लेपटॉप खरीद कर बांटे थे. मध्य प्रदेश सरकार ने समझबूझ से काम लिया और वह इस झंझट में नहीं पड़ी ! पत्रकारों से लेपटॉप खरीदी की रसीद भर मांगी गई, जिसके मिलते ही रकम उनके खाते में जमा कर दी जाती है.
कहावत है कि पत्रकारों को साधना तराजू में मेढक को तौलने जैसा ही है. सो लेपटॉप के बहाने मुफ्त के चालीस हजार को लेकर सिर फुट्टवल तो होना ही थी. कहते हैं कि हितग्राहियों में अपना नाम ना होने से कुपित एक संपादक के विरोध का तरीका अखबार मालिक को रास नहीं आया और उनकी नौकरी चली गई. कुछ पत्रकारों ने इसे लालीपॉप अर्थात बेवजह की रिश्वत कह कर गैर जरूरी बताया. उनका तर्क है कि जो पत्रकार लेपटॉप का इस्तेमाल करते हैं उनके पास वह पहले से ही मौजूद है और जो नहीं करते हैं उन्हें देने का कोई मतलब नहीं. इसलिए दोनों ही सूरतों में पत्रकारों की दिलचस्पी रकम में होगी, न की लेपटॉप में. इस ऐतराज में दम भी है क्योंकि इस दिनों लेपटॉप की रसीदें ज्यादा कट रही हैं पर उतने बिक भी रहे हैं या नहीं, यह शोध का विषय है. असंतोष को देखते हुए अब लेपटॉप की पात्रता का दायरा बढ़ाने की भी खबर है.
पत्रकार बिरादरी को लेपटॉप देने पर नहीं, बल्कि देने के तौर तरीकों पर ऐतराज है. वे घोषणापत्र में ऐलान कर इसे देने और बैंक खाते में रकम जमा करने से कुपित हैं. सही भी है क्योंकि उपहार का आदान-प्रदान ख़ामोशी से होता है. सार्वजनिक ऐलान कर इसे बांटने से पत्रकारों की भद्द ही पिट रही है. ऐसा भी सुनने में आया है कि सरकारी साधन-सुविधाओं से गले-गले तक उपकृत कुछ पत्रकारों ने इस मौके को अपनी इमेज चमकाने का मौका मानते हुए यह तोहफा कबूल करने से इनकार कर दिया है !
वैसे पत्रकारों को साधने के लिए हमारे मध्यप्रदेश की सरकारें, फिर वह कांग्रेस की रही हो या बीजेपी की, बिछी ही रहती हैं. सरकार के प्रचार विभाग में पत्रकारों की सेवा टहल के लिए अलग से शाखा भी है. कुछ समय पहले तक तो इसका नाम ही पत्रकार सत्कार शाखा था. शायद किसी दूरदर्शी अधिकारी या पत्रकार के ऐतराज पर इसका नाम जरूर बदल दिया गया है लेकिन काम कतई नहीं बदला है. विभाग की इस शाखा के मार्फ़त सरकार ने पिछले नौ सालों में छब्बीस करोड़ रूपए से ज्यादा पत्रकारों के सत्कार पर फूंक डाले हैं. इसमें लेपटॉप गिफ्ट की नई मद में इस साल किया जा रहा अनुमानित पांच करोड़ रुपए का खर्च शामिल नहीं है.
इस कथा का एक कृष्णपक्ष और भी है. भोपाल या सूबे के अन्य महानगर से इस घोषित उपहार और अघोषित खुशामद के खिलाफ पत्रकार बिरादरी की ओर से कोई आवाज नहीं उठी ! ना किसी पत्रकार संगठन ने और ना ही किसी पत्रकार ने सरकार में अपना विरोध औपचारिक रूप से दर्ज कराया है. मध्यप्रदेश में ज्यादातर मीडिया मालिक अपने रसूख का बेजा इस्तेमाल कर कारोबारी हो गए हैं और उनका जलवा देख कारोबारी भी मीडिया में घुस आए हैं. नतीजा यह की मीडिया सत्तापरस्त और सरकारपरस्त हो कर रह गया है. ऐसे में मातहत पत्रकार करें भी तो क्या करें..? सरकार की सरपरस्ती और प्रशस्ति ही मानो उनकी नियति बन कर रह गई है..! ऐसे में लेपटॉप के बहाने दी जा रही नगदी को नकारने का जोखिम भला वे कैसे लेते..?
लेखक श्रीप्रकाश दीक्षित से ईमेल संपर्क : [email protected]