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सियासत

मंदी से निपटने को मोदी सरकार ने दिखाई इच्छाशक्ति, ढेर सारी घोषणाओं से बाजार में हलचल

Apoorva Bhardwaj : मंदी की मांग में राष्ट्रवाद का सिंदूर…. नीति आयोग के राजीव कुमार का कहना है कि नोटबन्दी और जीएसटी ने अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी है। 70 साल के बाद ऐसी मंदी आयी है। रुपया और मार्केट औंधे मुंह गिर रहे है। मूूडी ने भारत की रेटिंग घटा दी है। ऑटोमोबाइल से लेकर रियल इस्टेट तक सारे सेक्टर जबरजस्त मंदी के चपेट में है। बाजार में नगदी का भारी संकट है। कुल मिलाकर हालात आलार्मिंग है।

एक घण्टे पहले तक सोई हुई सरकार अचानक हरकत में आ गई है। सारे सरचार्ज हटा दिए है। कैपिटल गेन्स टैक्स भी हटा दिया है। रेपोरेट घटा कर ईएमआई कम करने की बात कही है। मतलब सरकार के तोते उड़ रहे है लेकिन मंदी की परवाह किसे है, आओ इसका पता लगाए।

अमीर को तेजी और मंदी से कोई फर्क नही पड़ता है। गरीब का काम सब्सिडी से चल ही जाता है। अब बच जाता है सरकार का पक्का वोटबैंक मध्यम वर्ग। उसको मैनेज करने के लिए पूरा राष्ट्रवाद डोज तैयार है। तीन तलाक, 370, कश्मीर, चिदम्बरम, पाकिस्तान आदि इत्यादि टीवी से लेकर मोबाइल के द्वारा आपको इसका डेली डोज दिया जा रहा है ताकि आपको किसी भी प्रकार की कोई परेशानी न हो और आप पोजीटिव बने रहे।

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अगर फिर भी आपको कुछ अजीब सा लग रहा हो तो आप तुरन्त रिपब्लिक, जी टीवी, इंडिया टीवी का हेवी वॉच डोज ले या व्हाट्सअप और फेसबुक के जरिये कथित राष्ट्रवादी समूहों से जुड़िये और रिलेक्स करिए। गाना गाते रहिये.. लाइफ हो आऊट ऑफ कंट्रोल… सिटी बजा के बोल …भैया आल इज वेल।


Ashwini Kumar Srivastava : जिस तरह आज वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने आर्थिक मंदी के स्पष्ट संकेत मिलते ही त्वरित कदम उठाते हुए बड़े पैमाने पर राहत के कार्यक्रमों का ऐलान किया है, उससे एक बात तो साफ हो गयी कि मोदी सरकार का दूसरा कार्यकाल पहले की तुलना में लाख गुना बेहतर है। पहले कार्यकाल में वित्त मंत्री अरुण जेटली के नेतृत्व में नोटबन्दी या जीएसटी जैसे तमाम विध्वंसक आर्थिक फैसले करके बेहदअमानवीय और मूर्खतापूर्ण तरीके से अर्थव्यवस्था को एक के बाद एक चोट पहुंचाई जा रही थी। यही नहीं, उसके बाद त्राहि माम् करते उद्योगों या जनता की भी एक नहीं सुनी जा रही थी। जबकि उसके ठीक उलट अब इस बार सरकार न सिर्फ बर्बादी की तसवीर को देख पा रही है बल्कि अपनी आर्थिक बेवकूफियों को भी अक्लमंदी साबित करने की जिद की बजाय नितांत गंभीरता से आर्थिक मंदी से निबटने के उपाय भी कर रही है।

हालांकि एक आम आर्थिक समझ रखने वाले पूर्व पत्रकार के तौर पर मेरी तो निजी राय फिलहाल यही है कि मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल की विध्वंसक आर्थिक नीतियों के चलते 2015-16 से लेकर अभी तक तीन-चार बरसों के दौरान जितनी आर्थिक बर्बादी देश की होनी थी, वह अब लगभग हो चुकी है। इसलिए अगले कुछ माह बाद से अर्थव्यवस्था फिर से तेजी पकड़ने लगेगी। लेकिन देश में ज्यादातर या लगभग शत प्रतिशत आर्थिक विशेषज्ञ आर्थिक मंदी के आने की ही बात इस समय कर रहे हैं इसलिए सरकार भी घबराई हुई है। इसी घबराहट में सरकार मंदी से निपटने के उपाय में कोई कमी नहीं छोड़ना चाह रही।

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जाहिर है, सरकार की इस तमाम कवायद से देश की आर्थिक दशा दिशा को उम्मीद से पहले ही वापस पटरी में लाने में मदद मिल सकेगी, इसलिए मुझे भी लगता है कि यह स्वागतयोग्य कदम है। मगर मैं यह भी मानता हूँ कि सरकार को अब अर्थव्यवस्था पर आ रही नकारात्मक खबरों को लेकर पैनिक स्थिति में नहीं आना चाहिए। क्योंकि चाहे नोटबन्दी हो या जीएसटी …या पिछले कार्यकाल में की गईं मोदी सरकार की अन्य गलतियां हों… अब उन गलतियों से भी देश की अर्थव्यवस्था उबरने की तरफ अग्रसर है। ऑटो सेक्टर में भी पर्यावरण नियमों को लेकर अपनी सख्ती से किनारा करके सरकार ने वहां भी मंदी के मंडराते खतरे से उद्योग को बचा ही लिया है।

इसलिए पितृपक्ष के बाद से यानी सितंबर के आखिरी दिनों में नवरात्रि के पावन अवसर से बाजार में तमाम उद्योग धंधे अगर एक बार फिर से कुलांचें नजर आएं तो किसी को हैरत नहीं होनी चाहिए। मैं यह कतई नहीं कह रहा कि अगले चंद माह में ही आर्थिक तेजी की सूनामी आ जायेगी लेकिन यह जरूर कह रहा हूँ कि जिस आर्थिक मंदी का हव्वा खड़ा किया जा रहा है इस वक्त, वह किसी भी सूरत में अब नहीं आएगी….बल्कि अब तो देश की अर्थव्यवस्था एक नई मजबूती की राह पकड़ने की तरफ अग्रसर हो चुकी है। ज्यादा नहीं, बस एक साल यानी अगले साल सितंबर अक्टूबर आते आते लोग आर्थिक मंदी की बात तक भूल चुके होंगे और देश के बढ़ते आर्थिक विकास की बातें कर रहे होंगे।

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विश्लेषक अपूर्व भारद्वाज और अश्विनी कुमार श्रीवास्तव की एफबी वॉल से.

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