वे ईंट-ईंट को दौलत से लाल कर देते।
अगर ज़मीर की चिड़िया हलाल कर देते।।
जन के मंसूर। बुझे और लाचार मन के दस्तार और दस्तूर। और अपनी इंसानी फन के ला-महदूद दानिशमंद इंसान। मंसूर ता-क़यामत सबके दिलों में रहेंगे। इश्क़ करते थे वे जन गण के मन से। फिकर होगी जिन्हें वो तख्त-ए-सुल्तानी बचायेंगे। हमारी फिक्र है कुछ और हम पानी बचायेंगे। मंसूर गाजी भी थे। माजी के हालातों की ईमानदार तारीखसाजी के अलीक मुसन्निफ़ और खर्रा-खुर्री गवाह भी थे।
सहाफती नजरिया लिए मंसूर एजाज के लिए अलमबरदार बनने की होड़ में कभी शामिल नहीं रहे। उनका एजाज उनके आज जाने के बाद लोगों की नजरों से मुसलसल गिरने वाले आंसूओं के रेशमी कतरे हैं। ये मंसूरी मुहब्बतपनाही के नीले कतरे जिंदगी की स्लेट पर उनकी बेबाक़ी की दमकती वर्णमालाएं भी हैं। मंसूर की ऊर्जा से उर्जित हो अपने आपको अलहदा महसूसने और पाने की कैफियात बयां करने वाली शख्सियतें आज मंसूर के मशविरे और मसविदे को रो-रो के याद कर रही हैं। मंसूर यायावर और दिलेर यारबाज़ थे। मंसूर इंसानी वजूद की खातिर उसके आदिम इंसाफ़ वाली पैदाइशी इश्क़ के पैरहन में डूबे ऐेसे इस्तेदोआ थे जो हर लम्हा दिलवालों-मतवालों के काम आए।
हौसले की बाती और जमीर की जमीन पर हिम्मत के चराग जलाने वाले मंसूर जन सरोकार को इबादत समझ ताजिंदगी उससे मिली खुशियों को अपना हासिल और हक में मिला हिसाब समझते रहे। अपने बाद के लिए उसे फानी जिंदगी की इबारत समझते रहे। मंसूर के लिए जिंदगी जिम्मेदाराना रवैया थी। मंसूर के लिए जिंदगी लोगों के मुहब्बत खातिर उधार थी।
मंसूर के लिए वफादारी ही ईमानदारी थी। मंसूर के लिए ईमानदारी दयानतदारी थी। मंसूर ने अपने जिंदगी के मंसूर में अमन को अव्वल मुकाम पर रक्खा। मंसूर सद्भावना और संभावना के मिश्रण से मिलकर बने एक ऐसे नाचीज़ सिपहसालार थे जो तमाम लोगों के लिए असबाब, अहबाब, और अरबाब बनने को ता-जिंदगी आखिर कोशां रहे। मंसूर ने अपनी जहीन और महीन फिक्र-ओ-नजरियात और फिक्र-ओ-फन के समंदर में खूब-खूब तैराकी की। और फिर जो तोहफ-ए-तसव्वुर का लहजा निकाला की लोग दीवाने हुए।
लोकप्रियता की ला-महदूद हदों को बार-बार छुआ उन्होंने। सरकारी नहीं बल्कि सरोकारी जमीन पर इल्म-ओ-अदब की रौशनी में फिक्र की रौशनाई से आजादी के दायरे बनाए और हर फिक्रमंद को उसमे समेटना चाहा। परिधि के परिधान को झिंझोंड के फेंक उन्होंने हमेशा फ्रेमलेस मुहब्बतपनाही की रचना की। मंसूर बहादर थे। गाजी थे। राजी थे। शाही थे। सबाही थे। इंसानी जेहन का एजाज करना उनके तहजीब-ओ-तमद्दुन की रविश में शामिल शरीक था। मंसूर दीवाने भी थे। इंसानी हुक़ूक के लिए आवाज़ लगाने की अजीब कद्दावर शिफत थी उनमें। उन्मेषी और अभियानी थे मंसूर। मंसूर का जाना जीवन के दरम्यान से इंसानियत से तरबतर अमन के अम्बरीष लहक खुश्बू का जाना है।
लेखक तौसीफ गोया से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.
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