प्रेस फोटोग्राफर मंसूर आलम के निधन पर वाराणसी प्रेस क्लब में हुई शोक सभा

हिन्दुस्तान अखबार के वरिष्ठ फोटोग्राफर मंसूर आलम के आकस्मिक निधन पर पत्रकारों और छायाकारों के बीच शोक की लहर दौड़ गई। वे पैर में संक्रमण होने के चलते वाराणसी के एपेक्स हास्पिटल में भर्ती थे, जहाँ उन्हें बचाया नहीं जा सका। लोकप्रिय व्यक्तित्व के धनी मृदुभाषी फोटो पत्रकार मंसूर आलम के असामयिक निधन से वाराणसी के फोटो पत्रकारिता के मजबूत कड़ी के जाने से पूरा पत्रकारिता जगत स्तब्ध है।

मंसूर आलम को दैनिक जागरण के रत्नाकर दीक्षित और हिंदुस्तान के रजनीश त्रिपाठी ने यूं याद किया…

दैनिक जागरण भदोही के ब्यूरो चीफ रत्ननाकर दीक्षित की कलम से….

बनारस के हिंदुस्तान अखबार के सीनियर फोटोग्राफर मंसूर भाई को समर्पित लघुकथा…

-आसिफ कल सात कार्यक्रम है शहर में। सभी महत्‍वपूर्ण हैं। सभी कार्यक्रम के फोटो जरूर चाहिए।

सब कहेंगे कि ज़माने में कोई मंसूर भी था…

वे ईंट-ईंट को दौलत से लाल कर देते।
अगर ज़मीर की चिड़िया हलाल कर देते।।

जन के मंसूर। बुझे और लाचार मन के दस्तार और दस्तूर। और अपनी इंसानी फन के ला-महदूद दानिशमंद इंसान। मंसूर ता-क़यामत सबके दिलों में रहेंगे। इश्क़ करते थे वे जन गण के मन से। फिकर होगी जिन्हें वो तख्त-ए-सुल्तानी बचायेंगे। हमारी फिक्र है कुछ और हम पानी बचायेंगे। मंसूर गाजी भी थे। माजी के हालातों की ईमानदार तारीखसाजी के अलीक मुसन्निफ़ और खर्रा-खुर्री गवाह भी थे।

स्थानीय संपादक प्रदीप कुमार की मीटिंग से पहले और बाद में ये साहब ठंढ में भी पसीना साफ करते नजर आते थे

छायाकार साथी मंसूर आलम के इंतकाल की खबर अंदर तक हिला गई। हिंदुस्तान की लांचिंग के वक्त हमने साथ काम किया था। बेहद सरल और भावुक मंसूर को कभी किसी भी कवरेज के लिए कह दीजिए, ना मना करते थे और ना ही चेहरे पर कोई शिकन लाते। ऐसे शख्स को कोई संपादक टेंशन कैसे दे सकता है। वैसे संपादक को ज्यादा दोष नहीं दिया जा सकता। कारण पुराना है। फौज में जिस तरह ट्रेनिंग होती है और फिर वो रंगरूट ट्रेनर बनता है तो वही करता है। कुछ ऐसा ही उसके साथ है।