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टीवी

ये पोस्ट उनके लिए है जिन्हें अभी भी मीडिया / न्यूज चैनलों या पत्रकारों से उम्मीद है!

-विवेक सत्य मित्रम-

नेपोटिज़्म, कास्टिंग काउच, खेमेबाज़ी और फ़ेवरेटिज़्म! सुशांत की मौत के बाद से टीवी न्यूज़ पर दिन भर में हज़ारों बार इन शब्दों का इस्तेमाल बॉलीवुड के लिए किया जाता है। मैं समझ नहीं पाता कि इसमें से कौन सी बीमारी है जो मीडिया या टीवी न्यूज़ में नहीं पाई जाती? मैंने एक दशक से ज्यादा वक्त तक मीडिया में काम किया है और इस दौरान मैं ट्रेनी से चैनल हेड तक की पोज़ीशन पर रहा।

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मेरा निजी अनुभव कहता है कि जिस हद तक नेपोटिज़्म, कास्टिंग काउच, खेमेबाज़ी और फेवरेटिज़्म मीडिया खास तौर पर चैनलों में है वैसा बॉलीवुड में भी नहीं होगा। बावजूद इस पर कोई भी पत्रकार खुलकर कुछ नहीं बोलता जो फिलहाल सुशांत को न्याय दिलाने के लिए सिर पर कफ़न बांधे टीवी स्क्रीन पर दिन भर रोना-पीटना मचाए रहता है या फ़िर वो जो स्क्रीन के पीछे रहकर ओजपूर्ण भाषा में वीर रस और रौद्र रस से ओतप्रोत स्क्रिप्ट लिखता है। कुछ अपने अनुभव बताता हूं जो इस इंडस्ट्री के डबल स्टैंडर्ड के बारे में आपकी राय साफ़ कर सकते हैं-

● मेरे नाम में मेरा सरनेम नहीं जुड़ा है और मुझे इस बात का अपने मीडिया करियर में काफ़ी नुकसान उठाना पड़ा। मेरे नाम की वजह से लोग मेरी जाति को लेकर हमेशा कन्फ्यूज़ रहे। किसी को लगता रहा कि मैं पक्का एससी/एसटी या ओबीसी कैटेगरी से आता हूं तो कुछ को लगता रहा कि मैं संभवतः साउथ इंडियन हूं लेकिन हिंदी पर मेरी पकड़ और मेरी चमड़ी के रंग की वजह से ज्यादातर लोग कन्फ्यूज़ रहे। अगर मैं अपना सरनेम लगाता तो मेरा नाम ‘विवेक सत्य मित्रम्’ की जगह ‘विवेक पांडेय्’ होता और फ़िर इस बात की संभावना ज्यादा है कि मुझे आसानी से मेरी पहली नौकरी मिल जाती जिसके लिए मुझे साल भर धक्के खाने पड़े जब तक कि पीटीआई की लिखित परीक्षा में नहीं चुना गया। सरनेम भर लगा लेने से मैं बिना प्रयास ही कुछ संपादकों का फ़ेवरिट हो जाता, कुछ गिरोहों में मेरी एंट्री हो जाती और बहुत सी साज़िशों से बच जाता जो समजातीय लोगों ने मेरे ख़िलाफ़ रचीं लेकिन ऐसा हो न सका। ख़ैर, अब क्या फ़ायदा? पर क्या ये सच नहीं है कि मीडिया में ज्यादातर नौकरियां सोर्स पैरवी की बदौलत मिलती हैं और सोर्स पैरवी में जाति/समुदाय/क्षेत्र एक अहम रोल प्ले करता है। क्या ये नेपोटिज़्म नहीं है?

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● आईआईएमसी में मैं अपने बैचमेट्स में उन गिने चुने लोगों में था जो पढ़ाई के दौरान ही तमाम अख़बारों में छपने लगे थे। मेरे कई बैचमेट्स को लगता था कि मेरी नौकरी तो पक्की ही है इसलिए कुछ भीतर ही भीतर मुझसे चिढ़ते भी थे। साथ ही मैं अपने कोर्स डायरेक्टर का फेवरिट भी था। लेकिन हुआ उल्टा। मैं संभवतः अपने बैच का इकलौता छात्र था जिसकी नौकरी एक साल बाद लगी। मेेरे साथ के ज्यादातर बच्चे 6 महीने में नौकरी पा चुके थे। मेरे साथ के कुछ बच्चे कैंपस प्लेसमेंट के ज़रिए स्टार न्यूज़ चले गए थे और उसमें एकाध ऐसे भी थे जिनकी कुल जमा उपलब्धि यही थी कि वो उस जाति विशेष से थे जिससे हमारे वो गुरू जी थे जिन्होंने अपने दम पर स्टार न्यूज़ को कैंपस प्लेसमेंट के लिए बुलाया था। ख़ैर, मेरी उस ज़माने में दैनिक हिंदुस्तान में काम करने की बहुत इच्छा थी लेकिन मुझे पता चला कि उसके लिए मेरा पहाड़ी होना बहुत ज़रूरी है जो मैं था नहीं। मैं कई चैनल हेड्स और संपादकों को जानता हूं जिन्होंने धड़ल्ले से अपने जाति/समुदाय/ क्षेत्र विशेष के कम काबिल या नाकारा लोगों को नौकरी पर रखा। कुछ ऐसे भी संपादकों को जानता हूं जो जाति और क्षेत्रवाद को पहली अर्हता मानते रहे। क्या ये नेपोटिज़्म नहीं है?

● जब मैं स्टार न्यूज़ में काम करता था तब वहां एक लड़का बेहद कम अनुभव के साथ उस पोज़ीशन पर भर्ती हुआ जिस पर मैं चार साल बाद पहुंचा था और लोग उससे डरे सहमे भी रहते थे। बाद में पता चला कि वो एक बड़े टीवी पत्रकार का कज़िन है जो स्टार न्यूज़ के लिए उन दिनों कुछ हिट कार्यक्रम बनाते थे। उस लड़के का करियर ग्राफ़ देखकर बहुतों ने दांतों तले उंगली दबाई होगी। भूमिहार, कायस्थ, ब्राह्मण और मुस्लिम समुदाय के तमाम ऐसे लोगों को जानता हूं जिन्हें मीडिया में कभी काम करने का मौका नहीं मिलता अगर वो उस जाति/ समुदाय विशेष से नहीं आते! कुछ मीडिया संस्थानों में बहुत से लोगों को सिर्फ़ इसलिए नौकरी नहीं मिलती क्योंकि वो किसी जाति विशेष से आते हैं जो वहां के आका को सूट नहीं करता। कुछ संस्थानों में कुछ लोगों की नौकरी सिर्फ़ इसलिए बची रहती है क्योंकि वो वहां के किसी अधिकारी के दूर के या पास के रिलेटिव या यार/दोस्त होते हैं! क्या ये नेपोटिज्म नहीं है?

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● देश के स्वघोषित इकलौते सरोकारी पत्रकारिता वाले चैनल जिसके एक पत्रकार को आजकल पत्रकारिता का मसीहा माना जाता है वहां किस तरह ब्यूरोक्रेट्स/ राजनेताओं और प्रभावशाली लोगों के बच्चों, रिश्तेदारों को नौकरियां दी गईं ये बात किसी से छिपी नहीं है! इस ग्रुप के हिंदी चैनल में (जिसके कर्मचारियों को दोयम दर्ज़े का समझा जाता रहा) तो फ़िर भी मिडिल क्लास के कम पगार में बल्लियों उछलने वाले हिंदीभाषी लोगों को मौक़े मिल जाते थे पर इसके एलीट अंग्रेज़ी चैनल में शायद ही कोई ऐसी भर्ती हुई हो जिसका बाप “तू जानता नहीं, मेरा बाप कौन है!” वाली कैटेगरी से हों! अगर मेरी बात पर शक हो तो इस चैनल के बड़े नामों के बारे में गूगल करके देख लीजिए आपको पता चल जाएगा किसका बाप/पति कौन तीसमारखां आदमी है? इस चैनल के विपरीत परिस्थितियों में भी खड़े रहने के पीछे यही मॉडस ऑपरेंडी काम आई है! क्या एक किस्म का नेपोटिज़्म नहीं है?

● अब आते हैं गिरोहबंदी पर। देश के ज्यादातर यानि 99% चैनलों को एक ख़ास गिरोह के लोग चलाते हैं। उन्हीं की हुकूमत चलती है वहां। वहां काम करने वाली बाक़ी की जनता की हालत कीड़े मकोड़ों सी होती है। इस देश में शायद ही कोई बड़ा न्यूज़ चैनल हो जहां की कोर टीम में वो लोग हों जो ‘आउटसाइडर’ हों। इस पर ठीक से बात करने से पहले मीडिया में गिरोहबंदी का मतलब समझ लें। गिरोह संपादकों का वो कोर ग्रुप है जिसमें शामिल लोगों की वफ़ादारी संस्थान नहीं बल्कि उस संपादक के प्रति होती है जो उन्हें नौकरी देता है। ये एक दूसरे के निजी हितों और लाभ के लिए संस्थान की भी ऐसी तैसी करने को तैयार रहते हैं। संस्थान के की पोज़ीशंस पर इनका कब्ज़ा होता है चाहे वो कितने ही नाकारा और कामचोर क्यों ना हों। इनकी व्यक्तिगत ट्यूनिंग इतनी मज़बूत होती है कि ये एक दूसरे की कमियों, ग़लतियों और ब्लंडर्स तक को जगजाहिर नहीं होने देते। बेहतर असाइनमेंट्स, अपरेज़ल और प्रमोशन में ये सबसे अधिक लाभ पाते हैं और इनकी नौकरी हर हाल में सुरक्षित रहती है। संस्थान में होने वाली राजनीति की धुरी इनके इर्द गिर्द होती है। और हां, आम तौर पर बॉस की चापलूसी करके अपने नंबर बढ़वाने में लगे रहने वाले गिरोह के ये लोग गज़ब के पैरासाइट होते हैं। ये अपने आका के साथ ही एक जगह से दूसरे जगह मूव करते रहते हैं। आका के इधर उधर होने पर लगभग ये तय होता है कि वो भी उनके पीछे-पीछे हो लेंगे। क्योंकि ये असुरक्षित लोगों की एक फौज़ है जो एक दूसरे के बिना सर्वाइव नहीं कर सकते। उदाहरण के लिए जब एक नंबर वन सर्वश्रेष्ठ चैनल के एडिटर वहां से न्यूज़ 24 गए थे तो उनके साथ एक पूरा अमला वो चैनल छोड़कर न्यूज़ 24 चला गया था। और ऐसा हमेशा होता है टीवी में। कोई संपादक कहीं जाता है तो ये तय होता है कि उसके साथ एक ठीकठाक अमला वहां जाएगा। क्या ये खेमेबाज़ी नहीं है? क्या ये आउटसाइडर्स के हितों के ख़िलाफ़ नहीं है जिन्हें स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का मौक़ा तक नहीं मिलता क्योंकि संपादक उन लोगों पर ही दांव लगाएगा जो उसकी कारस्तानियों के हमराज़ हैं या जो उसकी गाली को चरणामृत समझकर स्वीकार करते हैं! न जाने कितने काबिल लोगों को नौकरी नहीं मिलती इस गिरोहबंदी की वजह से, कितनों की सैलरी नहीं बढ़ती, कितनों का शोषण किया जाता है, कितनों को अपने गिरोहवाले को बचाने के लिए बलि का बकरा बनाया जाता है, क्या ये नेपोटिज्म नहीं है? क्या ये फेवरेटिज़्म नहीं है?

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● अब आते हैं कास्टिंग काउच और फेवरिटज़्म पर। टीवी में एंकर्स के लिए पापुलैरिटी हासिल करने का सबसे आसान तरीक़ा होता है प्राइम टाइम में दिखना या फ़िर बड़े असाइनमेंट्स या बीट्स कवर करना मसलन प्रधानमंत्री के साथ विदेश यात्रा पर जाना वगैरह। और इसमें चैनल हेड से लेकर इनपुट एडिटर और आउटपुट एडिटर तक की मर्ज़ी शामिल होती है। बहुत से चैनलों में इन ओहदों पर कुछ ऐसे लोग बैठे होते हैं जो इस ‘मेहरबानी’ की एवज़ में फीमेल एंकर्स से ‘रिटर्न गिफ़्ट्स’ की उम्मीद पालते हैं। और ये एक नंगा सच है। मीडिया में सभी जानते हैं कि कौन कैसे कहां पहुंचा है? कभी कभी कुछ लोगों के बारे में अफ़वाह भी फैलाई जाती है पर ‘कास्टिंग काउच’ टीवी न्यूज़ चैनलों की सच्चाई है इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। बहुत सी काबिल महिला पत्रकारों को जानता हूं जिन्होंने ‘मेहरबानी’ के बदले ‘रिटर्न गिफ़्ट’ देना स्वीकार नहीं किया और उसकी वज़ह से उनका करियर रसातल में पहुंचा दिया गया। तंग आकर या तो उन्होंने ख़ुद ये करियर छोड़ दिया या फ़िर उन्हें इसके लिए मज़बूर कर दिया गया। अगर आप भड़ास4मीडिया पर रेलेवेंट कीवर्ड सर्च करें तो आपको पता चलेगा कि टीवी न्यूज़ चैनलों में बॉलीवुड से कई गुना गंदगी मौज़ूद है! क्या टीवी में होने वाला ‘कास्टिंग काउच’ और ‘फ़ेवरेटिज़्म’ बॉलीवुड से बेहतर है? और ऐसा करने वाले किस मुंह से फिल्मवालों को ज़लील करते फ़िरते हैं?

मैंने जो कुछ भी लिखा है सब आंखोंदेखी है और फर्स्टहैंड भुगता हुआ सच है। पूरी दुनिया को नौकरी दिलवाने के लिए नौकरी सिरीज़ चलानेवाले रवीश कुमार सरीखे पत्रकारों ने अपने साथ के कम वेतन पाने वाले पत्रकारों के निकाले जाने पर क्या कभी आवाज़ उठाई? यूट्यूब चैनल पर हाथ मल मलकर सरकार की बखिया उधेड़ने में लगे दाढ़ी वाले पत्रकार निजी जिंदगी में किस हद तक ऐरोगेंट हैं और साथी पत्रकारों से कितनी बदतमीज़ी से बात करते हैं क्या आप जानते हैं? आजकल टीवी न्यूज़ वालों को सरोकार की पत्रकारिता सीखाने वाले अब फिल्ममेकर बन चुके एक वरिष्ठ टीवी पत्रकार ने टीआरपी के लिए दशक भर पहले ‘एलियन’ से लेकर ‘भूत-प्रेत’, ‘नाग-नागिन’, ‘मल्लिका सहरावत के कथित एमएमएस’ और स्टूडियो में रोने-पीटने वाले कैसे-कैसे शोज़ किए, वो हम कैसे भूल सकते हैं? सच ये है कि टीवी में कोई साफ़ पाक नहीं है। मूल्य और आदर्श इनके लिए कोरी बकवास है। और न्याय? हाहाहा! जहां सैलरी के नाम पर रेवड़ियां बांटकर पत्रकारों को नौकरी जाने का भय दिखाकर दिन रात काम कराया जाता हो, वो लोग न्याय की बात ना ही करें तो बेहतर है! भारतीय मीडिया में काम करने वाले लोगों का किस हद तक शारीरिक/मानसिक और भावनात्मक शोषण होता है ये बात कोई भी मीडियाकर्मी आपको बता सकता है। लेकिन नौकरी जाने के भय से ना तो वो आवाज़ उठा सकता है और ना ही सार्वजनिक तौर पर इसे स्वीकार कर सकता है। इसलिए वो कोशिश करता है कि किसी तरह वो नेपोटिज़्म, फ़ेवरेटिज़्म और गिरोहबाज़ी के इस साम्राज्य में कंप्रोमाइज़ करके किसी तरह बना रहे ताक़ि उसकी दाल रोटी चलती रहे। वरना उसके पास भूखे मरने के अलावा कोई चारा नहीं होगा। न जाने कितने पत्रकार मीडिया में शोषण और यातना से तंग आकर आत्महत्या कर चुके हैं, क्या ये बात टीवीवाले नहीं जानते? क्या कभी उनके लिए किसी राइवल चैनल ने कोई शो किया?

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रही बात मेरी तो, इन्हीं सब चीज़ों से तंग आकर मैंने सात साल पहले टीवी न्यूज़ इंडस्ट्री छोड़ दी वो भी तब जब मैं बहुत ही कम उम्र में अपने करियर के उस मुक़ाम पर था जहां से वो सब कुछ हासिल किया जा सकता था जो आज किसी कश्यप, सरदाना, चौधरी, कुमार या गोस्वामी के पास है। लेकिन मैं वो पत्रकारिता करने को तैयार नहीं था जहां पत्रकारिता के अलावा सब कुछ होता है और वहां बचे रहने या आगे बढ़ने के लिए घटिया राजनीति का हिस्सा बनना पड़ता है, कुछ नाकारा लोगों की जी हुजूरी करनी पड़ती है, मालिकों के वेस्टेड इंटरेस्ट्स के लिए ख़बरें दबानी/गिरानी या चलानी पड़ती हैं! इसलिए बॉलीवुड को पानी पीकर दिन रात गरिया रहे इन जोकरों को सीरियसली लेना बंद करिए, इन्हें सिर्फ़ टीआरपी चाहिए न्याय और इंसाफ़ जैसी बातें इन्हें शोभा नहीं देतीं! पत्रकारिता में दो ही तरह के लोग बचे हैं एक वो जो किसी गिरोह का हिस्सा है़ं और दूसरे वो जिनके पास इसके अलावा जिंदा रहने का कोई दूसरा चारा मौजूद नहीं। और इन दोनों को पत्रकारिता से कोई लेना देना नहीं है। इसलिए इन्हें भगवान बनाना बंद करिए, इनके लिए अपनों से झगड़ा करना बंद करिए, इनके फैनक्लब में शामिल होना बंद करिए! ये सभी के सभी अलग अलग मुखौटों में एक ही हैं, नितांत स्वार्थी, दोहरे चरित्र वाले, सत्ता-प्रसिद्धि-ताक़त और पैसे के भूखे लोग। मान लीजिए, इनके लिए पत्रकारिता एक धंधा है! एक टूल है, वो सब कुछ हासिल करने का जिसमें सिर्फ़ निजी स्वार्थ छिपा है। इनकी समाज और सरोकार की बातें एक छलावा भर है! आपको ये मूर्ख समझते हैं वरना इतनी दुर्गति ना होती न्यूज़ चैनलों की। ख़ैर, अपना क्या है? हम तो कबके झोला उठाकर निकल चुके हैं पाप की इस दुनिया से! समाचार समाप्त हुए!

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1 Comment

1 Comment

  1. Mukesh kumar Jha

    August 28, 2020 at 11:16 pm

    सर नमस्कार,
    मुझे तो आज तक सर नेम लगाने का फायदा नहीं मिला. ये सर नेम से कुछ नहीं होता, होता है सब जुगाड़ से. बाद में धीरे-धीरे सब सीख ही जाते हैं.

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