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सियासत

मोदी को क्यों जरूरत है निरंकुश सत्ता की?

कृष्ण पाल सिंह-

लोकसभा चुनाव के कार्यक्रम की घोषणा का समय जैसे-जैसे नजदीक आ रहा है वैसे-वैसे विपक्षी कुनबे में बिखराव बढ़ता जा रहा है। उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी को इंडिया गठबंधन में खींचने की अंतिम समय तक चल रही कोशिश के बीच मायावती ने फिर एक बार घोषणा कर दी है कि वे किसी गठबंधन में शामिल नहीं होगीं। उनका अकेले अपनी दम पर लोकसभा चुनाव लड़ने का फैसला अटल है। उधर बंगाल में भी ममता बनर्जी ने एकतरफा तौर पर तृणमूल कांग्रेस के 42 प्रत्याशियों की सूची जारी करके इंडिया गठबंधन को ठेंगा दिखा दिया है।

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भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस का मनोबल गिराने के अभियान को निरंतर बनाये हुए है जिसके तहत विभिन्न राज्यों में दिग्गज कांग्रेसी नेताओं को भाजपा में शामिल कराया जा रहा है। मध्य प्रदेश में कांग्रेस के कद्दावर नेता सुरेश पचैरी बड़े लाव लश्कर के साथ पार्टी छोड़कर भारतीय जनता पार्टी की शरण में चले गये हैं जिससे राज्य में कांग्रेस की बची खुची हवा भी निकल गई है। राजस्थान में भी कांग्रेस में भगदड़ मची है। जन मानस में मनोवैज्ञानिक रूप से स्थापित किया जा रहा है कि विपक्ष का बजूद खत्म दिखायी दे रहा है जिसके कारण अपना वोट बर्बाद करने की बजाय मतदाता कमल का ही बटन दबाने में गनीमत समझें। लगभग चुनौती विहीन बनते जा रहे इन हालांतों के रहते हुए भी भारतीय जनता पार्टी जिस तरह के घटिया षणयंत्रों और हथकंडों का इस्तेमाल करने में लगी हुई है वह विचित्र है। उसे लोकलाज और गरिमा का कोई ख्याल नहीं रह गया है।

लोकतंत्र का अपना शिष्टाचार है। इस व्यवस्था में जिस तरह की नफासत के पुट का तकाजा है वह वर्तमान परिस्थितियों में एकदम नदारत है। वर्तमान दौर में युद्ध और प्रेम में सब जायज है के उसूल पर अमल दिखायी दे रहा है। इलेक्शन वांड के मामले में सुप्रीम कोर्ट के सामने सरकार की जिस तरह से भद पिटी है वह अपने आप में शर्मनाक है। सरकार एसबीआई पर दबाव बनाये हुए है कि वह चुनाव के पहले इलेक्शन बांड का ब्यौरा सुप्रीम कोर्ट में दाखिल न करे। यहां तक कि इसके चलते एसबीआई अधिकारियों पर अदालत की अवमानना की कार्रवाई की तलवार लटक गई है। साफ है कि इलेक्शन बांड की बिक्री में बड़ा घपला है। दाल में काला मात्र नहीं है बल्कि यह दिखायी दे रहा है कि मोदी ने पूरी दाल ही काली करके परोसना तय कर लिया है।

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प्रारम्भिक सूचनाओं से पता चलता है कि भाजपा के लिए चंदा ऐंठने की खातिर कंपनियों को एजेंसियों का दुरूपयोग करके ब्लैक मेल किया गया है। जिन कंपनियों ने पिछले चार सालों से भाजपा को एक रूपये चंदा नहीं दिया था उन पर छापे पड़ने के बाद उन्होंने बड़ी रकम के इलेक्शन बांड भारतीय जनता पार्टी के लिए खरीदे। चुनाव के पहले अगर इलेक्शन बांड का ब्यौरा सार्वजनिक हो गया तो सरकार की कारस्तानी का पर्दाफाश हो जायेगा और इससे जनमत उसके खिलाफ चला जाने की आशंका है। इसके पहले चुनाव आयुक्तों के चयन के लिए जो कानून बनाया गया उसमें पारिदर्शिता की हत्या सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश को चयन करने वाले पैनल से हटाकर कर ही दी गई थी।

आखिर सरकार चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में मनमानी क्यों करना चाहती है। यह तरीके लोकतांत्रिक नफासत के अनुरूप तो नहीं कहे जा सकते। सत्ता को हथियाने और मजबूत बनाने के लिए सारी नैतिकता ताक पर रखकर काम करने का यह तरीका सत्ता के लिए मध्य काल में होने वाली बर्बर मारकाट की याद दिलाता हैं। हो सकता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से अपनी कई पुस्तों के वैभव के लिए सत्ता को निचोड़ने जैसा कोई खतरा न हो जिससे यह आशा बांधी जा रही है कि उनकी निरंकुशता कठोरता पूर्वक निरीह जनता की उन्नति और सुख शांति सुनिश्चित करने हेतु समर्पित होगी। पर इस बात की गारंटी क्या है कि सर्वोच्च पद पर बैठे व्यक्ति को स्वैच्छाचार का अधिकार देने वाली ऐसी व्यवस्था के चलते आगे चलकर किसी दुष्ट व्यक्ति के हाथ में सत्ता की कमान पहुंच गई तो वह देश और समाज का बेड़ा किस तरह गर्क कर सकता है।

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वर्तमान सत्ता के खाते में उपलब्धियों की कमी नहीं है। निश्चित रूप से उसने देश की सीमाओं की रक्षा को मजबूती दी है। दुनिया में भारत की धाक को नई बुलंदी पर पहुंचाया है। द्रुत विकास के लिए असाधारण तेजी से देश भर में आधार भूत संरचनाओं का विस्तार किया गया है। अपने इस शानदार रिपोर्ट कार्ड को लेकर साफ सुथरे ढ़ंग से अगर सत्तारूढ़ पार्टी चुनाव मैदान में उतरे तो भी वह विपक्ष को काफी पीछे छोड़ सकती है। लेकिन वह राजनीतिक सफलता के लिए गलत से गलत साधनों के प्रयोग से बाज नहीं आना चाहती। यह स्वच्छ राजनीति का सपना देखने वालो के लिए बहुत बड़ा आघात है। सत्ता की इस मानसिकता ने ऊपर से नीचे तक नैतिक व्यवस्था को छिन्न भिन्न करके रख दिया है। सर्वाइवल आफ फिटेस्ट का जंगल कानून सर्वत्र हावी नजर आ रहा है। कानून को धता बताने वाले सीना जोरों के लिए ही आगे बढ़ने के रास्ते खुल पा रहे हैं। जो अनुशासन के दायरे की परवाह करते हैं वे भीड़ में गुम होकर रह रहे हैं।

भारतीय जनता पार्टी को सत्ता में लाकर देश को धार्मिक राज्य के रूप में परिवर्तित करने का स्वप्न देखने वालों ने इस तरह की व्यवस्था की तो कल्पना नहीं की थी। एक ओर लोग सरकार के इस रवैये और सत्ता के लिए उसके नग्न तांडव से क्षुब्ध हैं दूसरी ओर राष्ट्रवाद और धर्म का उन्माद उन्हें दूसरे विकल्प की ओर भी निगाह नहीं करने दे रहा। नई व्यवस्था का खाका लोगों के दिमाग से गायब हो चुका है जबकि इसके बिना राजनीतिक गतिशीलता बेमानी सिद्ध होकर रह जाती है।

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यह पूरी तरह सत्य है कि आज चुनाव में कोई मुद्दा नहीं रह गया है जबकि लोकतंत्र को पटरी पर लाने के लिए बाहुबल के साथ-साथ थैला शाही की छाया से भी इसको मुक्त कराने की जरूरत है। हालांकि बिना पैसे के राजनीति तो पिछले कई दशकों से असंभव हो चुकी थी लेकिन फिर भी वास्तविक तौर पर समाज के बीच निस्वार्थ ढ़ंग से काम करने वाले जन सेवियों के राजनैतिक पटल पर आगे आने का सपना देखना कुछ वर्ष पहले तक लोगों ने बंद नहीं किया था लेकिन अब तो यह स्थिति बन चुकी है कि गांठ के पूरे हुए बिना राजनीति के मैदान में जोर आजमाइश करना मूर्खता है।

इसलिए राजनीतिक ख्वाब सजाने वाले लोग चुनाव में भरपूर धन लुटाने में सक्षम बनने के लिए येनकेन प्रकारेण पैसे पर झपट्टा मारना अनिवार्य समझते हैं और पार्टियां अपने ऐसे कार्यकर्ताओं और नेताओं को टोकने की जरूरत नहीं समझती जिसमें भारतीय जनता पार्टी सबसे आगे है। ऐसी मानसिकता के लोग जब राजनीति के केन्द्र बिन्दु में छा जायेंगे तो वंचितों को समता और स्वतंत्रता की अनुभूति कराने की जरूरत उसके द्वारा क्यों समझी जायेगी। यह विपर्यास आज सरकार की नीतियों में साफ दिखायी देता है।

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पहले कारपोरेट को सरकारें प्रोत्साहित करती थी लेकिन यह भी कर्तव्य मानती थी कि जो बुनियादी सुविधायें हैं वे आम आदमी की पहुंच में हों इसके लिए सरकार को उनकी सुलभता हेतु अनुदान की व्यवस्था करनी पड़ेगी। पर आज तो सरकार आम आदमी की चिंता छोड़कर मुनाफा खोर दुकानदार बनती जा रही है। वह कितनी भी आवश्यक सुविधा के लिए लोगों से मुनाफा सहित भरपूर कीमत वसूलने को तत्पर नजर आने लगी है। अगर केजरीवाल जैसे लोग नये नारे के साथ सत्ता में आकर रियायती दर पर आम आदमी के लिए बिजली की व्यवस्था करें तो इसे रेवड़ियां बांटना करार देकर उन्हें कोसा जाने लगता है। लोकतंत्र को उद्योग तंत्र मे बदलने के प्रयास को रोकने और उसे जनवादी दिशा में ढालने के लिए नई अंगड़ाई दिखायी देनी चाहिए तभी आने वाला भविष्य शुभ कहा जा सकेगा।

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