Mukesh Aseem : नेशनल सैंपल सर्वे के अनुसार 40 साल में पहली बार उपभोग खर्च में गिरावट दर्ज की गई है। 2017-18 में ग्रामीण क्षेत्रों में यह 8.8% गिरा। शहरी क्षेत्र में इसमें पिछले 6 साल में मात्र 2% ही वृद्धि हुई। मतलब शहरी क्षेत्र की आबादी के बडे हिस्से का उपभोग भी कम ही हुआ है किंतु शहरों में मौजूद पूँजीपति, धनपति व मध्यम वर्ग के बढे उपभोग के चलते मजदूरों के उपभोग में हुई कमी छिप गई है।
इसके साथ राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आँकड़े मिलाइये – दिहाड़ी मजदूरों की आत्महत्या दर में भारी वृद्धि हो रही है। पिछले साल इनकी तादाद बढकर लगभग 26 हजार पहुंच गई। वहीं किसानों (जिनमें खेत मजदूर भी शामिल हैं) में 11 हजार से अधिक आत्महत्या दर्ज की गईं। अर्थात यहाँ भी मुख्य मार खेत मजदूरों व सबसे छोटे गरीब सीमांत किसानों, जो अर्ध-मजदूर ही अधिक हैं, पर ही पडी है।
निष्कर्ष निकलता है कि आर्थिक संकट का बोझ सबसे अधिक शहरी व ग्रामीण मजदूर वर्ग को झेलना पड़ रहा है। एक और रोजगार की उपलब्धता घटी है, दूसरी ओर जो रोजगार उपलब्ध है, उसमें भी वास्तविक मजदूरी दर गिरी है।
किंतु विडंबना यह है कि अधिकांश वामपंथी समूह और बुद्धिजीवी भी आबादी के आधे से अधिक मजदूर वर्ग की तबाही पर कुछ कहने के बजाय छोटे उत्पादकों की चिंता में दिन रात एक किये हुए हैं, उनके उत्पादों विशेषतया खाद्य उत्पादों के दाम बढवाना उनकी मुख्य चिंता है। फिर ये अक्सर सामाजिक परिवर्तन की लडाई में मजदूरों द्वारा साथ न दिये जाने पर उनको पिछड़ी चेतना, जातिवाद, धार्मिक अंधता में फँसे रहने या फासिस्टों के प्रभाव में आने के लिए कोसते मिलते हैं। लेकिन सवाल है कि अगर वामपंथी मजदूरों के हितों की विरोधी माँगें उठाते रहें तो मजदूरों को उनका साथ देना ही क्यों चाहिये या उससे भी बडी बात इन्हें वामपंथी ही क्यों मानना चाहिये?
इससे पहले कि कोई इसे किसान विरोधी बात बताने का तर्क दे, यहाँ यह भी कहना जरूरी है कि किसान एक वर्ग नहीं, गरीब सीमांत से अमिर फार्मर तक विपरीत स्वार्थ वाले विभिन्न वर्गों में बँटा है। उत्पादों के दाम बढने से असल में किसानों के अधिकांश गरीब हिस्से को भी कोई लाभ नहीं होता क्योंकि उनके पास बेचने के लिए इतना सरप्लस उत्पाद होता ही नहीं। दूसरे कम पूँजी की वजह से उनकी उत्पादन लागत अधिक होती है जो बाजार दाम बढने के साथ ही और बढ जाती है अर्थात दाम बढने पर भी उनका घाटा घटता नहीं, बढता ही है। तीसरे, उन्हें भी उपभोग के लिए अधिकांश चीजें, खाद्य पदार्थ भी, बाजार से खरीदने होते हैं, अतः दाम बढना उधर से भी उनके लिए आफत ही है।
दाम बढने का लाभ सिर्फ बडे किसानों, डेरी या अन्य कृषि आधारित उत्पादकों को ही होता है जिनकी उत्पादन लागत छोटे उत्पादकों के मुकाबले कम होती है और वे पहले से ही लाभ में होते हैं। दाम बढने से वो अतिरिक्त लाभ हासिल कर लेते हैं और मजदूरों व सीमांत उत्पादकों की स्थिति और भी कष्टकारी होती जाती है।
Ravish Kumar : उपभोक्ता ख़र्च 40 साल में सबसे कम, इसे बढ़ाने के लिए 50 रु की चाय होगी दुरंतो रेल में।
2011-12 में एक महीने में एक उपभोक्ता 1501 रुपये ख़र्च करता था। 2017-18 में एक महीने में एक उपभोक्ता का ख़र्च 1446 रुपये हो गया। चालीस साल में पहली बार यह गिरावट आई है। यह डेटा नेशनल सैंपल सर्वे NSO का है। ग्रामीण इलाक़ों में 8.8 प्रतिशत की कमी है और। शहरों में 2 प्रतिशत की वृद्धि। मतलब यह है कि ग़रीबी बढ़ी है। कमाई घटी है।
सोमेश झा ने बिज़नेस स्टैंडर्ड में यह रिपोर्ट लिखी है। अब इंडिया टुडे की इस ख़बर को देखिए। आपका महीने का ख़र्च कम हो गया है इसलिए सरकार ने ट्रेन में चाय महँगी कर दी है। आप लोगों को इसका स्वागत करना चाहिए। अब रेल दुरंतो के यात्रियों से शाम की चाय के पचास रुपये लेगी। स्लीपर में कौन सा रईस चल रहा है जो पचास रुपये की चाय पीएगा। डाइनेमिक प्राइस के नाम पर आप दो हज़ार का टिकट पाँच हज़ार में ख़रीद कर सरकार की मदद तो कर ही रहे हैं।
सरकार के पास पैसा नहीं है। पैसा तमाशे और मूर्खता में उड़ गया। इस बार जीडीपी के पाँच प्रतिशत से कम रहने के आसार है। साढ़े पाँच साल तक आर्थिक मोर्चे पर फेल रही है। तो अब गेस कीजिए। लोगों को झुंड में बदलने के लिए कौन सा मुद्दा आने वाला है? गोदी मीडिया क्या करने जा रहा है? कहीं मूर्ति तोड़ी जाने वाली है या कहीं धर्म का मसला आने वाला है? आर्थिक नाकामी राजनीतिक सफलता की सर्वोत्तम गारंटी है। इसलिए आर्थिक मोर्चे पर फेल होने के लिए सरकार इतनी मेहनत करती है। पोजिटिव ढूँढने वाले बताएं इसका पोज़िटिव क्या हो सकता है ।
Satyendra PS : ये हिंदी वाले इतनी हीन भावना और कुंठा से ग्रसित क्यों होते हैं? पहले बनारस में देखता था कि वार्ता की मित्र Hari Govind Vishwakarma की एक्सक्लूसिव खबरें अखबार चुरा लेते थे। बड़ी बेशर्मी से उसे हमारे संवाददाता, निज संवाददाता आदि लिखकर छाप लेते थे।
अंग्रेजी में देखता हूँ कि सम्पादक मानकर चलते हैं कि दूसरे अखबार का रिपोर्टर न तो कोदो देकर पढा है, न उसे सेलरी कम मिलती है, न उसके पास ब्रेन कम है, वो भी एक्सक्लूसिव निकालेगा ही। उसके बाद बहुत स्वस्थ मस्तिष्क से चर्चा होती है कि इसमें अब हम क्या कर सकते हैं जिससे अपने पाठकों को अच्छा फॉलोअप दे सकें, या फिर उस खबर को छोड़ दिया जाए। अक्सर जिक्र भी कर दिया जाता है कि फलां अखबार में प्रकाशित खबर के मुताबिक।
एजेंसी की खबर भी कभी चुराते नहीं देखा। कभी कभी तो ऐसा होता है कि कोई खबर हिंदी अखबार में छप गई है और सेम खबर दूसरे दिन टाइम्स ऑफ इंडिया में लंबी चौड़ी आती है, बगैर किसी कुंठा के।
बिजनेस स्टैंडर्ड में खपत को लेकर एक खबर आई कि 40 साल में पहली बार नीचे गया। सरकार ने खबर आने के बाद रिपोर्ट खारिज कर दी कि वह तो ड्राफ्ट रिपोर्ट थी। अखबारों में यह जिक्र करने में भी शर्म आती है कि किस अखबार ने वह खबर छापी थी।
हिंदी में कभी यह गट्स नहीं होता कि सम्पादक कह दे कि हम जो कह रहे हैं वही खबर है। वह सुबह सबेरे अपने रिपोर्टर्स को गरियाते हैं कि तुम गधे हो, देखो, टाइम्स ने क्या लिखा है, बिजनेस स्टैंडर्ड, इंडियन एक्सप्रेस ने क्या लिखा है!
इसके अलावा अगर कोई रिपोर्टर नाक में दम कर दे तो अंग्रेजी वाले प्रतिस्पर्धी अखबार के उस रिपोर्टर को खरीद लेंगे। कहेगा कि बुलाओ उसको। पे मास्टर हम हैं, पूछो कि किन शर्तो पर हमारे यहां आएगा!
ब्रांड और सम्मान ऐसे बनता है। आंख में कीचड़ निकल रहा हो, पत्रकार की चिंता यह हो कि बेटे की फीस कैसे भरें, सब्जी कैसे खरीदें तो ब्रांड नहीं बनता। मजदूर खुश रहे, तब वह जय जय करेगा। कई मोर्चे हैं, कई पनघट हैं और बड़ी कठिन है डगर पनघट की।
मुकेश, रवीश और सत्येंद्र की एफबी वॉल से.