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सियासत

राजा का वक्त लम्बा नहीं, राजा का किरदार बड़ा होना चाहिए… पढ़िए ये सच्ची ऐतिहासिक कहानी!

मनीष सिंह-

बाबूमोशाय, जिंदगी लम्बी नही.. जिंदगी बड़ी होनी चाहिए।

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ये डायलॉग मोहम्मद शाह के दौर के काफी बाद आया, सो उन्हें इसकी जानकारी नही हो पाई।

होती भी तो चिंता नही करते, क्योकि बादशाहत के सत्ताइस बरस की उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि यही थी, कि जब दूसरे दो-चार-छह मास या बरस में मारे जा रहे थे,

मोहम्मद शाह रंगीला 27 बरस राज कर गए। वो दौर मुगलिया सल्तनत का सय्यद युग था। औरँगजेब की मौत के बाद, उसके लंबे समय तक कैद रखे गए बेटे को गद्दी मिली।

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याने मुअज्जम जो बहादुरशाह ,प्रथम के नाम से 65 की उम्र में बादशाह हुआ, और चार साल में अल्लाह को प्यारा हुआ। यह है 1712 की बात है।

इसके बाद सय्यद भाइयो ने जिनकी दरबार मे चलती थी, बादशाह बनाने हटाने मरवाने का खेल शुरू किया। अगले 9 साल में चार बादशाह आये और गए।

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पांचवे एक 19 बरस के लड़के को जेल से निकाल कर गद्दी पर बिठाया गया।

रोशन, मुअज्जम का पोता था। बाप उत्तराधिकार के युध्द में मारा गया, और अल्पवयस्क बेटे को जहांदार शाह ने जेल में डाल दिया था।

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जेल से निकलकर गद्दी पर बैठा, मोहम्मद शाह का विरुद धरा, और जनता ने दिया “रंगीला” का तखल्लुस…

रंगीले को शायरी का शौक था। अच्छा बोलता था। कला, नृत्य, संगीत, पेंटिंग, शराब और नशे का शौकीन। अच्छे कपड़े पसन्द करता, असल मे एलीट वर्ग की घाघरे जैसी ड्रेस की जगह अचकन (जो नेहरू पहनते थे) का चलन मोहम्मद शाह ने शुरू किया।

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उंसके ही दौर में उर्दू परवान चढ़ी, ख्याल गायकी बढ़ी, कव्वाली ऊंची चढ़ी, दिल्ली में बाग बगीचे बने, और नाइट लाइफ का कहना ही क्या।

रोज नए इवेंट होते। कोठा संस्कृति, मुशायरे और नृत्य संगीत के जोरदार प्रोग्राम से दिल्ली के कूचे गुंजायमान रहते।

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सारे कलाकार, नचनिये गवैये भांड, जो औरँगजेब के वक्त दिल्ली छोड़कर भाग गए थे। लौटकर दिल्ली आ बसे।

मगर जिल्ले इलाही खुद कम कलाकार नही थे। सत्ता में आने के दो बरस बाद एक सैयद भाई का मर्डर हो गया। दूसरे को जहर दे दिया गया।

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मगर इसमे बादशाह का कोई हाथ नही था। यही तो कलाकारी थी।

फिर दरबार मे और भी कलाकारियाँ हुईं। कोई गवइया, कोई बाबा, कोई मित्र, कोई चमचा वजीर बन जाता। फिर हटा दिया जाता, दूसरा आ जाता।

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दरबार खुद में कल्चरल इवेंट था। कभी बादशाह दरबार मे आते हुए कपड़े पहनना भूल जाते, कभी सबको जनाने कपड़े पहन कर आने का आदेश देते।

कोई वजीर कल घुंघरू बांधकर आये। न आये तो जेल जाए। लड़ाई वडाई का शौक नही था, किसी ने नपुंसक कह दिया, तो मुगलिया गद्दी पर यौनकर्म करते हुए तस्वीर बनवाई। गूगल पर उपलब्ध है।

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यह दौर था जिसमे निजाम उल मुल्क मुगलिया सल्तनत बचाने की कोशिश कर रहे थे। जब बादशाह का हाल देखा तो दक्कन जाकर अपनी रिसायत बना ली।

देखा देखी दूसरे सरदार भी अपने अपने इलाको के नवाब होते गए। बादशाह कभी कभी परेशान होते तो बाप दादो को गरियाते।

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राजकाज अस्तव्यस्त था। कभी मराठे चढ़ आते , कभी बंगाल, कभी गुजरात, कभी अवध का सरदार स्वतन्त्र हो जाता। साम्राज्य सिकुड़ रहा था, टूट रहा था, बादशाह इवेंट में मस्त थे।

सेना, सरदार और दरबार मे फूट और झगड़े थे। जब नाकाबिल राजा हो, अफसर निरंकुश हों, मजे में मस्त रियाया हो, घर मे फूट हो, तो लुटेरों को मौका मिल जाता है।

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नादिरशाह ने मौका भांप लिया। चढ़ आया।

ये 1739 था। बादशाह ने करनाल के पास उसे रोकने की सोची, फ़ौज के साथ पहुंच गये। मगर जैसे दरबार मे जाते वक्त कपड़े भूल जाते, इस बार तोपखाना दिल्ली भूल आये।

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थोड़ी झड़प के बाद आखिर नेगोशिएशन शुरू हुए। पांच लाख रुपये देकर पिंड छुड़ाना तय रहा।

मगर सदाअत खान की निशानदेही पर नादिर पलट गया। दो सौ साल की गद्दीनशीनी, और मुगलिया दौलत में से सिर्फ 5 लाख…

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पैसा उसे कम लगा। दिल्ली पर हमला किया। कत्लेआम और आगजनी की। तीन दिन के कत्लेआम में कोई तीस हजार लोग मरे। सदाअत खान ने ग्लानि से आत्महत्या कर ली।

बादशाह ने नही की। उसने नादिर की खातिरदारी की, जमुना के तीर उसे बिठाकर झूले झुलाए।

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कोहिनूर, तख्ते ताउस, बेशुमार दौलत और सिंधु के उस पार के इलाके देकर बाय बाय किया। और फिर डूब गया अय्याशी में।

रंगीला दस और साल जिया और 1748 में अल्लाह ने उसे अपने दरबार मे बुला लिया। तो रंगीले बादशाह ने कुल सत्ताईस साल राज किया था।

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दिल्ली के लाल किले पर चढ़कर सलामी लेने वालों सूची बेहद लम्बी है। आम इंसान को उनमें से कुछ ही याद रहते हैं। कुछ को इतिहास गर्व और इज्जत से नाम लेता है,

कुछ को जमाना वक्र मुस्कान के साथ, मोहम्मद शाह रंगीला कहकर याद रखता हैं।

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आज कोई नेहरू का रिकार्ड तोड़ना चाहता है, कोई हिटलर का। मगर किसने कितने बरस राज किया, यह इतिहास का महत्वपूर्ण सवाल नही होता। इसलिए कि राजा का वक्त लम्बा नही, राजा का किरदार बड़ा होना चाहिए।

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