सुशोभित-
वह एक अत्यंत तनावपूर्ण क्षण था! उस समय किसी को अंदाज़ा नहीं था कि वह क्षण भारत के भाग्य का निर्णय करने की क्षमता रखता है। लेकिन अब पीछे लौटकर देखने पर ऐसा ज़रूर लगता है।
2002 के गुजरात दंगों के बाद प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी राज्य के दौरे पर आए थे। वे भारतीय जनता पार्टी में निर्विवाद रूप से नम्बर वन की पोज़िशन पर थे और गुजरात के मुख्यमंत्री उस समय पार्टी-हायरेर्की में बहुत नीचे थे। अटलजी दंगों से बहुत नाराज़ थे और ख़बरें थीं कि वो मुख्यमंत्री का इस्तीफ़ा चाहते थे, लेकिन उनकी सरकार में नम्बर दो की हैसियत रखने वाले आडवाणी इससे सहमत नहीं थे। माहौल में तनाव था!
गुजरात में प्रेसवार्ता के दौरान एक पत्रकार ने अटलजी से पूछ लिया कि क्या वे मुख्यमंत्री के लिए कोई संदेश लेकर आए हैं? अटलजी ने कहा, “मुख्यमंत्री के लिए मेरा एक ही संदेश है कि वे राजधर्म का पालन करें… राजधर्म… ये शब्द बहुत सार्थक है। मैं उसी का पालन कर रहा हूँ। राजा के लिए प्रजा-प्रजा में भेद नहीं हो सकता, न जन्म के आधार पर, न जाति के आधार पर, न सम्प्रदाय के आधार पर।”
गुजरात के मुख्यमंत्री उस समय प्रधानमंत्री के समीप ही बैठे थे और इस उत्तर से थोड़े बेचैन और असहज महसूस कर रहे थे। उन्होंने एक-दो बार प्रधानमंत्री की ओर देखा, मानो कुछ कहना चाह रहे हों। और आख़िर में प्रधानमंत्री को बीच में टोकते हुए बोल ही बैठे, “हम भी वही कर रहे हैं साहेब।”
वह एक अत्यंत तनावपूर्ण क्षण था, क्योंकि पहले ही नाराज़ अटलजी अगर इस बेअदबी और ढिठाई से चिढ़कर सरेआम बोल बैठते कि “आप क्या ख़ाक राजधर्म का पालन कर रहे हैं, अगर करते तो क्या आपकी नाक के नीचे इतना सब हो जाता?”, तो गुजरात के मुख्यमंत्री का राजनैतिक कॅरियर उसी दिन ख़त्म हो जाता। लेकिन प्रधानमंत्री ने मामले की नज़ाकत को समझा और ख़ुद को सम्भालते हुए कहा, “मुझे विश्वास है नरेंद्र भाई यही कर रहे हैं।”
यथास्थिति बहाल हो गई। हायरेर्की क़ायम रही। उसी साल गुजरात में चुनाव हुए और वोटरों ने नरेंद्र भाई को जिताकर गुजरात दंगों की उनकी हैंडलिंग को अपनी अप्रूवल रैटिंग दे दी। वे 2007 और 2012 में भी जीते। फिर केंद्र में 2014 और 2019 में जीते। आज वे पार्टी में नम्बर वन की उसी पोज़िशन पर हैं, जिस पर कभी अटलजी थे।
राजधर्म का यह भी आशय है कि अगर आप व्यक्तिगत रूप से किसी के प्रति विद्वेष रखते हैं, या वह आपके समर्थक-वर्ग का विरोधी है, या आपको लगता है कि उसने अन्याय किया है, तब भी शासक होने के नाते आप अपनी धारणाओं के विपरीत जाकर उसको पूरी नागरिक सुरक्षा और न्याय मुहैया कराते हैं, क्योंकि जब आप पद पर होते हैं तो एक व्यक्ति नहीं संस्था होते हैं और संस्था का स्वयं का कोई पूर्वग्रह नहीं हो सकता है।
यही कारण था कि सन् सैंतालीस में जब भारत-विभाजन हुआ तो देश के नेताओं गांधी, नेहरू, पटेल, राजाजी, प्रसाद, आम्बेडकर आदि ने उस समय एकमत से कहा कि भले पाकिस्तान एक इस्लामिक राष्ट्र की तरह बन रहा हो, लेकिन भारत सभी के लिए है, इसमें सभी मिलजुलकर रहेंगे, और राज्यसत्ता सबको समान रूप से संरक्षण देगी। इसका कारण यह नहीं था कि ये लोग कायर या डरपोक थे, बल्कि इसका कारण यह था कि ये लोग जानते थे वे जिस जगह पर बैठे हैं, वहाँ अगर उनके मुंह से हिंसा या प्रतिशोध का समर्थन करने वाली एक भी ग़लत बात निकली तो देश में ख़ून की नदियाँ बह जाएँगी। पर भारत के तात्कालिक नेतृत्व ने अपने ऊपर क्रोध, अधैर्य और पक्षपात की भावनाओं को हावी नहीं होने दिया।
मणिपुर से जब वायरल वीडियो सामने आया था तो शुरू में तो सत्तारूढ़ दल के समर्थक सकपकाए-से रहे, किंतु शीघ्र ही वे किंतु-परंतु का व्याकरण लेकर जनता के समक्ष प्रस्तुत हो गए, कि ऐसा तो होता ही रहता है, यहाँ भी होता है और वहाँ भी होता है, आप इस पर भी बोलो और उस पर भी बोलो। फिर वे मणिपुर की जनसांख्यिकी के बारे में शोध करके लाए कि कैसे वहाँ पर धर्मांतरण हो रहा है, कैसे मैतेई वहाँ के मूल-निवासी हैं और कैसे 30 फ़ीसदी कुकी लोगों ने वहाँ की 90 फ़ीसदी ज़मीन हथिया रखी है, आदि-इत्यादि।
तो क्या वे प्रकारांतर से यह संकेत करना चाह रहे थे कि मैतेइयों के साथ ऐतिहासिक रूप से अन्याय हुआ है, इसलिए केंद्र-राज्य की डबल इंजिन की सरकार उन्हें अपना ग़ुस्सा निकालने का अवसर दे रही है, ठीक वैसे ही, जैसे 2002 में गुजरात में ग़ुस्सा निकालने की अनुमति कथित रूप से दी गई थी?
जिस सरकार के ऐसे समर्थक हों, उसे विरोधियों की क्या ज़रूरत है? उसके विवेकहीन समर्थक ही उसकी लुटिया डुबोने के लिए काफ़ी हैं। क्योंकि देश का बहुसंख्य जनमत इस सिद्धांत को कभी स्वीकार नहीं करेगा कि सत्ता और प्रभुत्व का इस्तेमाल प्रतिशोध की हिंसा के लिए किया जाए और अपराधी अगर अपने पक्ष के हों तो उन्हें संरक्षण दिया जाए। जनता ऐसे विचार रखने वाली सरकार को बाहर का रास्ता दिखाने में देरी नहीं करेगी।
यूपीए-द्वितीय के विरुद्ध जो पर्सेप्शन निर्भया, 2जी, कोलगेट, कॉमनवेल्थ ने बनाया था, वैसा ही पर्सेप्शन एनडीए-द्वितीय के विरुद्ध अब अदाणी, बृजभूषण, ईडी, दलबदल और मणिपुर के कारण निर्मित हो रहा है और दस सालों की एंटी-इनकम्बेंसी बहुत ही शक्तिशाली राजनैतिक लहर होती है, जो अच्छे-अच्छे अपराजेयों को परास्त कर देती है।
और अफ़सोस, कि आज सत्ताधीश को उसके ‘राजधर्म’ की याद दिलाने वाला कोई बड़ा-बुज़ुर्ग भी पार्टी में शेष नहीं रह गया है!
अनुभव सिन्हा
July 28, 2023 at 6:01 pm
महाशय,
पत्रकारिता तो जमीन की गहराई और आकाश की उंचाई जैसी ही होती है। पर, देखने-समझने में यह स्पष्ट होता है कि भारत के सन्दर्भ में कुछ प्रतिनिधि शब्दों का जाल जमीन की गहराई और आकाश की उंचाई से भी इतर है। आज की ही तारीख में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से जुडी़ आपके प्लेटफार्म पर वह खबर भी है जिसमें एआई और कारपोरेट की जुगलबंदी की भयावहता का चित्रण है। इससे यह स्थापित होता है कि तकनीक के आगे समाजवाद और पूंजीवाद की कोई औकात नही है। प्रकारान्तर से इसका मतलब व्यक्तिगत गहरे आर्थिक हितों के पोषण को ही स्थापित करना है। इसमें विचारों की शक्ति और दुर्बलता का अकथनीय समिश्रण है जहां कल्पना शक्ति किसी नपुंसक की भांति असहाय नजर आती है। अभीतक तो हमने दुस्साहस ही देखा जिसे हमारी अहिंसक प्रवृति झेलती आई है। अगर यही हमारी सच्चाई है तो यह सिर्फ एक ही पक्ष है न !! इसके दूसरे पक्ष की उतनी ही सहज व्याख्या की साहसिकता सामने क्यों नही आती ? आपके घर पर मैं कब्जा कर लूं, आपके परिवार की महिलाओं के समक्ष आपके टुकडे़-टुकडे़ कर दूं तब क्या मरने के बाद आप देखने आयेंगे कि आपके परिवार की महिलाओं के साथ कैसा सलूक हो रहा है ? नपुंसक बनिए, कोई नही रोकेगा। पर इतना जरूर याद रखिए कि भले आप अकेले हों, भले आपका प्रभाव शुन्य हो, आप जीवित हैं तो किसी-न-किसी रूप में आप समाज को प्रभावित करते हैं।
धन्यवाद।