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सुख-दुख

अध्यापक, मार्गदर्शक और प्रायोजक : नेटवर्किंग में माहिर लोग ज्यादा आगे बढ़ते हैं!

मां का निश्छल प्यार इतना अनमोल इसलिए है कि मां के गर्भ में भी बच्चा मां के प्यार को अनुभव कर सकता है, यही कारण है कि पैदा होने पर बच्चा सबसे ज्यादा अपनी मां से जुड़ा होता है और रोता हुआ शिशु भी मां की स्नेहिल गोद में आकर चुप हो जाता है। बड़ा होने पर बच्चा मां-बाप और भाई-बहनों, यानी, परिवार से सीखना शुरू करता है और जीवन को समझने की कोशिश करता है। कुछ और बड़ा होने पर बच्चा स्कूल जाता है और अपनी कक्षा में अध्यापकों से सीखता है। परिवार से मिले संस्कारों और सीख के बाद बच्चे की औपचारिक शिक्षा की शुरुआत यहां से होती है।

हमारे देश में स्कूल-कालेज की शिक्षा अधिकतर किताबी होती है और शिक्षक सिर्फ शिक्षक है। हमारे देश में ज्यादातर अध्यापकों की अपनी शिक्षा भी किताबी है, स्कूल-कालेज-युनिवर्सिटी का पाठ्यक्रम भी किताबी है और विद्यार्थियों की ज्यादातर शिक्षा किताबों तक सीमित रहती है। यह जानना रुचिकर होगा कि सन् 1969 में शिक्षा जगत में एक प्रयोग किया गया जिसमें यह पता लगाया गया कि किन तरीकों से कितना सीखा जाता है। इस शोध के आधार पर एक ‘कोन आफ लर्निंग’ (सीखने का त्रिकोण) तैयार किया गया।

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इस शोध में यह बात सामने आई कि सीखने का सबसे कम प्रभावी तरीका पढऩा और लेक्चर सुनना है जबकि सबसे प्रभावी तरीका काम को सचमुच करके देखना है। अगला सबसे प्रभावी तरीका असली अनुभव की नकल (सिमुलेशन) करके सीखना है। इसके बावजूद क्या यह दिलचस्प नहीं है कि शिक्षा तंत्र इस प्रयोग के इतने वर्षों बाद भी मूलत: पढऩे और लेक्चर सुनने के पुराने तरीकों से ही सिखाता चला आ रहा है। इस शिक्षा पद्धति में व्यावहारिकता की तो कमी है ही, दूसरी कमी यह भी है कि अक्सर अगली कक्षा में जाने पर विद्यार्थी पिछली कक्षा का ज्ञान भूलता चलता है और जब वह शिक्षा समाप्त करके निकलता है तो अधिकांश ज्ञान को भूल चुका होता है।

औपचारिक रूप से सिखाने वाले लोगों का दूसरा स्तर मार्गदर्शक का है। मार्गदर्शक वह व्यक्ति होता है जो स्वयं किसी व्यवसाय विशेष में पारंगत होता है और उस व्यवसाय में सक्रियता से जुड़ा होता है। मार्गदर्शक को उस व्यवसाय विशेष की लगभग हर छोटी-बड़ी बात की जानकारी होती है, तथा मार्गदर्शक को उस व्यवसाय की चुनौतियों और उनके संभावित समाधानों का भी पता होता है। अध्यापक और मार्गदर्शक में यही अंतर है।

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क्या आपने कभी सोचा है कि ज्यादातर वकीलों के बच्चे वकील, डाक्टरों के बच्चे डाक्टर और राजनीतिज्ञों के बच्चे राजनीतिज्ञ क्यों बनते हैं? ऐसा इसलिए है क्योंकि एक वकील अपने पेशे की बारीकियों को समझता है और वह अपने बच्चे को उस व्यवसाय के सैद्धांतिक और व्यावहारिक, यानी, दोनों पक्षों का ज्ञान देता है। घर में वैसा ही वातावरण होता है क्योंकि उसी पेशे से जुड़ी बातों का जिक्र बार-बार होता रहता है। यह ज्ञान किताबी ज्ञान के मुकाबले में कहीं ज्य़ादा सार्थक, उपयोगी और प्रभावी होता है। इसीलिए जीवन में मार्गदर्शक का महत्व अध्यापक के महत्व से भी ज्यादा है।

लेकिन हमें ज्ञान देने वालों में मार्गदर्शक से भी ज्यादा ऊँचा स्तर प्रायोजक का है। प्रायोजक की भूमिका को समझने के लिए हमें थोड़ा गहराई में जाना होगा। मार्गदर्शक से हमारा रिश्ता लगभग एकतरफा होता है। मार्गदर्शक हमें सिखाता है, समझाता है, हमारी गलतियों पर टिप्पणी करता है और हमें सही राह दिखाता है लेकिन हम उसे बदले में कुछ नहीं दे रहे होते। प्रायोजक की भूमिका इससे काफी अलग होती है। प्रायोजक वह होता है जो हमारे पेशेवर कैरिअर को आगे बढ़ाने के लिए सक्रिय भूमिका निभाता है, सिर्फ हमें हमारी गलतियां ही नहीं बताता बल्कि कंपनी के वरिष्ठ लोगों में हमारी छवि के बारे में भी जानकारी देता है और यदि उसमें कु छ सुधार आवश्यक है तो उसके रास्ते भी सुझाता है, आवश्यक होने पर हमारी सिफारिश करता है, हमारे संपर्क मजबूत करने में सहायक होता है।

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ऐसा व्यक्ति साधारणतया उसी कंपनी अथवा व्यवसाय में हमारा वरिष्ठ अधिकारी होता है जो हमें अपना समर्थन इसलिए देता है ताकि हम उसके विभाग अथवा कंपनी में उसके आंख-कान बन सकें। यहां एक बड़े फर्क को समझना आवश्यक है। अक्सर लोग मान लेते हैं कि किसी प्रायोजक की चमचागिरी करके आप सफलता की सीढिय़ां चढ़ सकते हैं। वह सफलता की एक राह अवश्य है पर यहां हम उन लोगों की बात नहीं कर रहे, उसके बजाए हम ऐसे लोगों की बात कर रहे हैं जो योग्य हैं, अपनी पूरी शक्ति से अपनी जिम्मेदारियां निभाने तथा कंपनी को आगे बढ़ाने का प्रयत्न ही नहीं करते बल्कि उसमें सफल होकर दिखाते हैं। यह भूमिका चमचागिरी से बिलकुल अलग है।

यह ऐसी भूमिका है जहां दोनों पक्ष एक-दूसरे के काम आते हैं। वरिष्ठ अधिकारी अपने कनिष्ठ साथी को प्रबंधन तथा अन्य वरिष्ठ साथियों में उसकी छवि की जानकारी देता है, भविष्य में आने वाले अवसरों की पूर्व जानकारी देकर उसे उन अवसरों के लिए तैयारी करने की सुविधा देता है। कोई भी अधिकारी अकेला अपने विभाग के सारे लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकता, उसके लिए उसे अपने मातहतों के सहयोग की आवश्यकता होती है और एक ऐसा मातहत अधिकारी जो अपने वरिष्ठ अधिकारी की ताल में ताल मिलाकर काम कर सकता हो, उस वरिष्ठ अधिकारी के लिए उतना ही उपयोगी है जितना कि वह वरिष्ठ अधिकारी अपने मातहत के लिए। पेशेवर जीवन का यह एक अनुभूत सत्य है कि वे लोग जो किसी प्रायोजक के साथ जुडऩे की कला में माहिर होते हैं, सफलता की सीढिय़ां अक्सर ज्य़ादा तेज़ी से चढ़ते हैं। बहुत से ऐसे लोग जो योग्य तो हैं पर उन्हें किसी प्रायोजक का समर्थन हासिल नहीं है, योग्यता के बावजूद तेजी से उन्नति नहीं कर पाते।

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यही कारण है कि आज के जमाने में नेटवर्किंग को इतनी महत्ता दी जाती है। नेटवर्किंग में सफल लोग ज्यादा आगे बढ़ते हैं, तेजी से आगे बढ़ते हैं और अक्सर ऐसे दूसरे लोगों को पीछे छोड़ देते हैं जो काबिल तो हैं पर नेटवर्किंग में माहिर नहीं हैं। लब्बोलुबाब यह कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। हम कितने ही काबिल हों और कितने ही ऊंचे पद पर हों, हमें दूसरों का साथ चाहिए, सहयोग चाहिए, समर्थन चाहिए, प्रायोजन चाहिए। ऐसा नहीं है कि इनके बिना हम सफल नहीं हो सकते लेकिन तब सफलता के शिखर छून में कदरन लंबा समय लग सकता है और यदि हम अपनी योग्यता का पूरा लाभ लेना चाहते हैं तो योग्यता बढ़ाने और काम में दक्ष होने के साथ-साथ हमें नेटवर्किंग में भी माहिर होना होगा और अध्यापक, मार्गदर्शक और प्रायोजक की अलग-अलग भूमिकाओं की बारीकियों को समझकर अपने रिश्ते विकसित करने होंगे, तभी हम सफल होंगे, ज्यादा सफल होंगे और जल्दी सफल होंगे।

दि हैपीनेस गुरू के नाम से विख्यात, पी. के. खुराना दो दशक तक इंडियन एक्सप्रेस, हिंदुस्तान टाइम्स, दैनिक जागरण, पंजाब केसरी और दिव्य हिमाचल आदि विभिन्न मीडिया घरानों में वरिष्ठ पदों पर रहे। वे एक नामचीन जनसंपर्क सलाहकार, राजनीतिक रणनीतिकार एवं मोटिवेशनल स्पीकर होने के साथ-साथ वे स्तंभकार भी हैं और लगभग हर विषय पर कलम चलाते हैं।

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