संतोष सारंग-
आजकल ‘गोदी’ और ‘हड़बड़ी’ वाली पत्रकारिता का दौर चल रहा है। ऐसे में ‘इंवेस्टिगेटिव जर्नलिज्म ‘ का नमूना देख कर थोड़ा सुकून मिला। प्रभात खबर के स्थानीय संपादक पवन प्रत्यय और इस खबर की खोज करने वाले हमारे साथी रहे प्रेमांशु शेखर को बहुत-बहुत धन्यवाद।
आज तो खबरों में न तथ्य दिखता है और न सत्य। खबर वह होती है, जिसे तह में जाकर निकाली जाए। खबरों के प्रकाशन से पूर्व उसकी सत्यता की जांच जरूरी है। लेकिन दुर्भाग्य यह कि यह सब काम कौन करेगा? न न्यूजरूम का माहौल पहले जैसा बौद्धिक रहा, न डेस्क पर काम करने वाले लोगों ( कुछ को छोड़कर) की पत्रकारीय समझ गहरी रही।
संपादक नाम की संस्था तो पहले ही समाप्त कर दी गयी है। अब सबकुछ मालिक के हाथ में और मालिक सरकार के हाथ में। रिपोर्टर-सब एडिटर तो समझिए बस आदेशपालक हैं। समझिए वे जूते की फैक्ट्री में काम नहीं करके अखबार की फैक्ट्री में काम करते हैं। प्रबंधन की काॅस्ट कटिंग नीति के कारण मैन पावर की कमी का खामियाजा अंततः रिपोर्टर व डेस्क के लोगों को ही झेलना पड़ता है। ऊपर से हर दिन प्लानिंग की खबरें और पॉजिटिव/एक्सक्लूसिव रिपोर्ट करने का दबाव।
रिपोर्टर करें भी तो क्या? लगा कि यह तो आल एडिशन खबर जा सकती है तो शुरू हो जाता है शब्दों का जाल बुनना। दूसरे अखबार से आगे निकलने की होड़ में खबर पर काम करने का समय नहीं मिला। ऐसे में खबर निकल गई तो ठीक, नहीं तो एक्सक्लूसिव रिपोर्ट भी ‘ललन प्रकरण’ बन कर रह जाती है। वैसे कुछ खबरें किसी खास उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्लांट भी की जाती है, जिसे प्रायोजित खबर भी कहते हैं।
ये है दैनिक भास्कर में प्रकाशित खबर-