Om Thanvi : अखबारी काम-काज में मुझ पर दर्जनों मुकदमे हुए। सब मानहानि के। एक तो अरुण जेटलीजी ने ही किया था, जो रजामंदी में वापस हो गया। फिर भी संपादक के नाते मैंने कोई पच्चीस-तीस मुकदमों में तो जमानत करवाई होगी। तीन-चार बार गैर-जमानती वारंट भी जारी हुए, क्योंकि तय तारीखों पर अदालत न पहुँच सका। मगर न मेरा कुछ बिगड़ा, न ही कोई मुकदमा गवाही के स्तर तक पहुंचा। झंझट जरूर अनुभव होता है, जिसे पेशे का हिस्सा मान निभा जाते हैं। मुझे नहीं खयाल पड़ता कि मानहानि के हजारों मुकदमों में कितने फैसले के मुकाम तक पहुँच पाते होंगे, कितनों में मुलजिम मुजरिम साबित हुआ होगा। आपको पता हो तो बताएं।
दरअसल, मानहानि का कानून उन सड़े-गले कानूनों में है जो अंगरेजों ने अपने फायदे के लिए बनाए और जिन्हें हम ढोए चले जाते हैं। इससे न्याय नहीं मिलता। जिनके पास पैसा है, साधन हैं, वे इस कानून का इस्तेमाल विरोधी को डराने, अदालतों के चक्कर कटवाने के लिए करते हैं। इसलिए एकाध पड़ाव के बाद मुकदमा आगे नहीं बढ़ता, अक्सर वापस ले लिया जाता है क्योंकि आपराधिक मुकदमे में शिकायतकर्ता को भी हर तारीख पर हाजिर रहना पड़ता है (सिविल मुकदमे में नहीं, पर उसमें स्टाम्पड्यूटी पर पैसा बहुत खर्च होता है)।
यह बात तजुर्बे के आधार पर कह रहा हूँ, गडकरी-जेटली या किसी अन्य नेता के मुकदमों से इसका लेना-देना नहीं है। या तो यह कानून बदलना चाहिए, या इसमें मुनासिब संशोधन होना चाहिए। इसका मौजूदा स्वरूप पीड़ित को न्याय नहीं दिलाता; साधनसम्पन्न को कानून के दुरुपयोग का अवकाश जरूर सुलभ करवा देता है।
हाँ, मौजूदा विवाद के सिलसिले में यह जरूर कहना चाहता हूँ कि राजनेताओं की खाल कुछ ज्यादा मोटी होनी चाहिए। बात-बात में वे किसी लचर कानून की गोद में जा बैठें, यह शोभा नहीं देता। न इतने भर से कोई उन्हें निर्दोष मान बैठेगा। बल्कि इसमें उनकी असहिष्णुता ही प्रकट होती है। जब जांच बैठ रही है तो ईमानदारी से उसमें सहयोग क्यों न करें। इस मामले में नरेंद्र मोदी भले, जो गाली खाकर भी अदालत के पचड़े में न पड़ते हैं न दूसरों को डालते हैं!
वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी के फेसबुक वॉल से.