ओम थानवी-
तो हम भी कोविड से दो-चार हो लिए। मेरे बाद प्रेमलताजी भी। दोनों एक श्रेष्ठ अस्पताल में स्वास्थ्य-लाभ ले रहे हैं। छह रेमडेसिविर लग चुके। बुख़ार और प्राणवायु दोनों रास्ते पर हैं।
चिकित्सक कहते हैं स्टेरॉइड की नौबत नहीं आई है; संभवतःआएगी भी नहीं। टीकों ने बचा लिया। चिकित्सकों के अनुसार, हम अपवाद के उदाहरण न देखें। टीके लगवा चुके लोगों को कोरोना घेर सकता है, लेकिन अक्सर टिकता नहीं।
फिर भी इतना तो है ही कि सुबह छह बजे से रात सोने तक तरह-तरह की जाँच का सिलसिला और पर्यवेक्षण जारी रहता है। अस्पताल का यही बड़ा लाभ है। ज़रूरत के वक़्त सभी यंत्र और सुविधाएँ मौजूद हैं। उनकी व्यवस्था इसलिए कि किसिम-किसिम की व्याधियाँ पाले हुए हूँ। अनेक बरसों से। मधुमेह और रक्तचाप तो पैंतीस साल से हैं। मगर कमोबेश क़ाबू में हैं।
हम पिछले हफ़्ते भरती हुए थे। प्रेमलताजी दो रोज़ बाद आईं। किसी को बताया इसलिए नहीं कि चाहने वाले (और क्यों नहीं न चाहने वाले भी) फ़िक्रमंद होंगे। दुआएँ तो बिना कहे साथ रहती हैं।
लैपटॉप के साथ अपना कार्यस्थल मैंने अस्पताल में आठवें मंज़िल के धूपदार कमरे को बना लिया है। लेकिन बहुत ज़रूरी काम के लिए ही। मित्रों को अनुपस्थिति न महसूस हो, इसलिए जब-तब फ़ेसबुक-ट्विटर पर भी अपनी बात कह आया हूँ। यहीं से एक ऑनलाइन शोकसभा में भी शिरकत की।
देखते-देखते कितने लोग निर्मम काल की भेंट चढ़ गए हैं। कितने अपने। इस कमरे की खिड़की के किनारे एक ही आसन पर एक ही मुद्रा में एक ही स्थिर-से दृश्य को निहारते हुए मैं हरदम उनका शोक मनाता हूँ, जो कोरोना से जूझते हुए हमें छोड़ गए। प्रेमलताजी संकट की घड़ी में सदा साहसी हैं। मैं जब-तब भावुक हो उठता हूँ। हमारी दुनिया अकारण छोटी होती चली जा रही है।
लेकिन दिल क्या बुझाना। आगे की ओर देखते हैं। जैसा कि फ़ैज़ साहब कह गए —
माना कि ये सुनसान घड़ी सख़्त बड़ी है
लेकिन मेरे दिल ये तो फ़क़त एक घड़ी है
क्षमा करें कि अभी हम फ़ोन पर ऊर्जा ख़र्च नहीं कर रहे। मगर यक़ीन रखें गाड़ी पटरी पर है। आप इस पोस्ट से समझ सकते हैं। अगले हफ़्ते घर पर होंगे।