(दयानंद पांडेय)
Dayanand Pandey : पत्रकारिता में गीदड़ों और रंगे सियारों की जैसे भरमार है। एक ढूंढो हज़ार मिलते हैं। जब लोगों की नौकरियां जाती हैं या ये खा जाते हैं तब तक तो ठीक रहता है। लोगों के पेट पर लात पड़ती रहती है और इन की कामरेडशिप जैसे रजाई में सो रही होती है। लेकिन प्रबंधन जब इन की ही पिछाड़ी पर जूता मारता है तो इन का राणा प्रताप जैसे जाग जाता है।
देखिए कि आईबीएन सेवेन के पंकज श्रीवास्तव कैसे तो अपनी मुट्ठी तानने का सुखद एहसास घोल रहे हैं। लेकिन जब अभी बीते साल ही जब सैकड़ो लोग आईबीएन सेवेन से एक साथ निकाल दिए गए थे तब इनकी यह तनी हुई मुट्ठियां इन के लाखों के पैकेज में विश्राम कर रही थीं। कमाल है! ऐसे हिप्पोक्रेसी के मार पर कौन न कुर्बान हो जाए! पढ़िए ये क्या लिख रहे हैं अपने फेसबुक वॉल पर…
”बहरहाल मेरे सामने इस्तीफा देकर चुपचाप निकल जाने का विकल्प भी रखा गया था। यह भी कहा गया कि दूसरी जगह नौकरी दिलाने में मदद की जाएगी। लेकिन मैंने कानूनी लड़ाई का मन बनाया ताकि तय हो जाये कि मीडिया कंपनियाँ मनमाने तरीके से पत्रकारों को नहीं निकाल सकतीं। इस लड़ाई में मुझे आप सबका साथ चाहिये। नैतिक भी और भौतिक भी। बहुत दिनों बाद ‘मुक्ति’ को महसूस कर रहा हूं। लग रहा है कि इलाहाबाद विश्वविदयालय की युनिवर्सिटी रोड पर फिर मुठ्ठी ताने खड़ा हूँ।”
भड़ास पर भी इनकी असलियत पढिए… यहां क्लिक करिए…
https://bhadas4media.com/edhar-udhar/3407-kachra-pankaj
लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार दयानंद पांडेय के फेसबुक वॉल से.
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