Shashi Bhooshan Dwivedi : पता नहीं क्यों मृत्यु के बाद किसी की लाश या चिता की फोटो लगाना मुझे अच्छा नहीं लगता। शायद दिक्कत मेरी ही होगी। लेकिन आज एक सीख मिली। आमतौर पर मैं हिंदी साहित्य के किसी बुजुर्ग के पैर नहीं छूता। सिवाय विश्वनाथ त्रिपाठी के। आज तक उनसे कोई लाभ लिया नहीं और सोच रखा है कि कभी कोई लाभ उनसे मिलने वाला भी होगा तो लूंगा नहीं। आज पंकज सिंह जी की अंतेष्टि में मैंने और उमाशंकर चौधरी ने अनायास उनके पैर छू लिए तो उन्होंने पास बैठाकर कहा कि देखो कई लोग मेरे पैर छू गए मैंने किसी से नहीं कहा लेकिन तुम लोगों से तो कहूँगा कि श्मशान में मृतक के सिवा किसी के पैर नहीं छूने चाहिए। यह हमारी परंपरा है। मैं शर्मिंदा था।
Mukesh Kumar : जाने कितने वादे हम पूरे नहीं करते, कितनी मुलाकातें स्थगित करते रहते हैं और आखिरकार वे पूरी नहीं हो पातीं। आज पंकज सिंह जी के अंतिम संस्कार से लौटते हुए यही सोच रहा था। पिछले दो साल में और नहीं तो पाँच-छह बार उन्होंने आग्रह के साथ घर आने को कहा। मैंने भी पूरी ईमानदारी से उनसे वादा किया कि बस अगले हफ्ते या दो दिन बाद ही पहुँचता हूँ। उन्हें अपना कविता संकलन भी भेंट करना था, मगर जा ही नहीं सका। और अब तो ख़ैर उनसे मुलाकात होगी ही नहीं। एक अपराधबोध सा अभी तक कचोट रहा है। सोच रहा हूँ कि अब जिनसे भी आने का वादा किया है, उन्हें पूरा कर दूँ और आगे भी अगर वादा करूँ तो तुरंत निभा दूँ। क्या पता अपना या किसी और को बुलावा कब आ जाए। इसे मरघट दर्शन न समझें। ये एक भूल का एहसास है और उसे दुरुस्त करने की ईमानदार चाह।
पत्रकार शशिभूषण द्विवेदी और मुकेश कुमार के फेसबुक वॉल से.
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